Tuesday, April 16, 2024
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धर्म-निरपेक्ष कि पंथ-निरपेक्ष?

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार : 

पिछले हफ्ते बड़ी बहस हुई। सेकुलर मायने क्या? धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष? धर्म क्या है? पंथ क्या है? अँगरेजी में जो 'रिलीजन' है, वह हिन्दी में क्या है—धर्म कि पंथ? हिन्दू धर्म है या हिन्दू पंथ? इस्लाम धर्म है या इस्लाम पंथ? ईसाई धर्म है या ईसाई पंथ? बहस नयी नहीं है। गाहे-बगाहे इस कोने से, उस कोने से उठती रही है। लेकिन वह कभी कोनों से आगे बढ़ नहीं पायी!

क्या चाहिए आपको, लोकतंत्र या धर्म-राज्य?

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार : 

सिर्फ बीस दिन हुए थे। शायद ही ऐसा पहले कभी हुआ हो। देश में कोई नयी सरकार बनी हो और महज बीस दिनों में ही यह या इस जैसा कोई सवाल उठ जाये! तारीख थी 14 जून 2014, जब 'राग देश' के इसी स्तम्भ में यह सवाल उठा था-2014 का सबसे बड़ा सवाल, मुसलमान!

मोदी के कौशल की पहली परीक्षा!

कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के कौशल की पहली परीक्षा अब है! उनके राजनीतिक जीवन की शायद अब तक की सबसे बड़ी चुनौती उनके सामने है! और शायद पहली भी! इस मामले में मोदी वाकई भाग्यशाली रहे हैं। मुझे नहीं याद पड़ता कि इससे पहले कभी उनके सामने कोई चुनौती आयी भी हो!

घेलुआ और 2019 के टोटके!

कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

राहुल और शौरी से प्रशान्त की मुलाकातें बताती हैं कि राजनीति काफी रोचक होती जा रही है! अरुण शौरी पिछले काफी समय से नरेन्द्र मोदी के मुखर आलोचक रहे हैं और समझा जाता है कि बिहार की हार के बाद जारी बीजेपी के बुजुर्ग नेताओं के बयान का मसौदा तैयार करने में उनकी बड़ी भूमिका थी।

शुभ नहीं हैं 2016 के संकेत!

कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

बिहार में सबकी साँस अटकी है! क्योंकि इस चुनाव पर बहुत कुछ अटका और टिका है! राजनीति से लेकर शेयर बाजार तक सबको बिहार से बोध की प्रतीक्षा है! किसी विधानसभा चुनाव से शेयर बाजार इतना चिन्तित होगा, कभी सोचा नहीं था। लेकिन वह इस बार वह बहुत चिन्तित है। इतना कि देश की तीन बड़ी ब्रोकरेज कम्पनियों ने खुद अपनी टीमें बिहार भेजीं! मीडिया की चुनावी रिपोर्टों पर भरोसा करने के बजाय खुद धूल-धक्कड़ खा कर भाँपने की कोशिश की कि जनता का मूड क्या है? क्यों भला?

अब ताप में हाथ मत तापिए!

कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

चिन्ता की बात है। देश तप रहा है! चारों तरफ ताप बढ़ रहा है! क्षोभ, विक्षोभ, रोष, आवेश से अखबार रंगे पड़े हैं, टीवी चिंघाड़ रहे हैं, सोशल मीडिया पर जो कुछ 'अनसोशल' होना सम्भव था, सब हो रहा है! लोग सरकार को देख रहे हैं! सरकार किसी और को देख रही है! कुत्ते संवाद के नये नायक हैं!

कामन सिविल कोड से क्यों डरें?

कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

हिन्दुओं ने तो ज्यादातर सामाजिक सुधारों को स्वीकारना शुरू कर दिया, लेकिन मुसलमानों ने पर्सनल लॉ को 'धर्म की रक्षा' का सवाल बना कर अपनी अलग पहचान और अस्तित्व का मुद्दा बना लिया और वह उसमें किसी भी बदलाव का विरोध करते रहे। 1985 का शाहबानो मामला इसकी चरम परिणति थी, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अगर कट्टरपंथी मुसलमानों के सामने घुटने न टेके होते तो आज शायद देश में आम मुसलमानों की स्थिति पहले से कहीं बेहतर होती!

कुछ नहीं करना भी एक फैसला है!

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

तो प्रधानमंत्री आखिर दादरी पर भी बोले। मौका गुरुवार को दिन की उनकी आखिरी चुनावी रैली का था। इसके पहले वह दिन भर में बिहार में तीन रैलियाँ कर चुके थे। गोमांस पर लालू प्रसाद यादव के बयान पर खूब दहाड़े भी थे। 'यदुवंशियों के अपमान' से लेकर 'लालू की देह में शैतान के प्रवेश' तक जाने क्या-क्या बोल चुके थे वह! एक-एक कर तीन रैलियाँ बीतीं, दादरी पर नमो ने कोई बात नहीं की। लोगों ने सोचा कि कहाँ प्रधानमंत्री ऐसी छोटी-छोटी बातों पर बोलेंगे? अब यह नीतीश कुमार के ट्वीट का कमाल था या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले से तय किया था कि वह नवादा में दिन की अपनी आखिरी रैली में ही दादरी पर बोलेंगे, यह तो पता नहीं। खैर वह बोले! अच्छी बात है!

तब बहुत बदल चुका होगा देश!

कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार :

तीन कहानियाँ हैं! तीनों को एक साथ पढ़ सकें और फिर उन्हें मिला कर समझ सकें तो कहानी पूरी होगी, वरना इनमें से हर कहानी अधूरी है! और एक कहानी इन तीनों के समानान्तर है। ये दोनों एक-दूसरे की कहानियाँ सुनती हैं और एक-दूसरे की कहानियों को आगे बढ़ाती हैं और एक कहानी इन दोनों के बीच है, जिसे अक्सर रास्ता समझ में नहीं आता। और ये सब कहानियाँ बरसों से चल रही हैं, एक-दूसरे के सहारे! विकट पहेली है। समझ कर भी किसी को समझ में नहीं आती!

यह छोटा-सा कदम उठेगा हुजूर?

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

शर्म कहीं मिलती है? दिल्ली में कहीं मिलती है? अपने देश में कहीं मिलती है? यहाँ तो कहीं नहीं मिलती! किसी को उसकी जरूरत ही नहीं है! यह देश की राजधानी का आलम है। जहाँ बड़ी-बड़ी सरकारें हैं। वहाँ अस्पतालों की ऐसी बेशर्मी, ऐसी बेहयाई है कि शर्म कहीं होती तो शर्म से चुल्लू भर पानी में डूब मरती! लेकिन दिल्ली में कुछ नहीं हुआ। न अस्पतालों को, न सरकारों को! सब वैसे ही चल रहा है, जैसे कुछ हुआ ही न हो!

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