Sunday, November 2, 2025
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रेत पर दुख और पत्थर पर खुशियाँ उकेरें

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

जा पाता हूँ। पर कई जगह जाना ही पड़ता है। 

बुनियादी विश्वास

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

माँ की सुनायी कहानियों में सिंहासन बत्तीसी की पुतलियों की कहानियों की मेरे मन पर अमिट छाप है। 

रिश्ते तभी चलते हैं, जब दोनों छोड़ना जानते हों

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

कुछ दिन पहले मैं अपने एक मित्र के घर गया था। मैं मित्र के घर बहुत दिनों के बाद गया था और इस उम्मीद से गया था कि मेरा मित्र मुझसे मिल कर बहुत खुश होगा।

वही कीजिए, जो अच्छा लगे

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मेरी शादी बहुत सामान्य ढंग से मेरे ढेर सारे दोस्तों की मौजूदगी में दिल्ली के आर्य समाज मंदिर में हुई थी। शादी के बाद जब मैं अपनी पत्नी के पिता से मिलने उनके घर गया तो उन्होंने मुझे समझाया कि जो हुआ सो हुआ, अब मुझे दोबारा धूमधाम से शादी करनी चाहिए। कुछ इस तरह शादी करनी चाहिए, जिसमें उनके और मेरे सभी रिश्तेदार मौजूद हों।

रिश्तों की पूंजी

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आज मैं जो सुनाने जा रहा हूँ, वो कहानी नहीं। हकीकत है। हमारा और आपका भविष्य है, अगर हम समय रहते नहीं चेते तो।

रिश्तों के साथ जीना

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

दीदी की शादी थी। एक रात पहले घर के सामने सड़क पर टेंट लगाया जा रहा था। कुर्सियाँ बिछायी जा रही थीं। हल्की-हल्की सर्दी थी। पिताजी, चाचा, मामा, मौसा, फूफा, ताऊ जी सब वहीं डटे थे। किसी को कोई जिम्मेदारी नहीं दी गयी थी, सब के सब अपनी जिम्मेदारी समझ रहे थे।

अलग लोगों की होती हैं कहानियाँ

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

“माँ, आज कौन सी कहानी सुनाओगी?”

खाना मन माफिक और पहनना जग माफिक हो

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

दीदी की जब शादी हुई थी, तब उसे ही शादी का मतलब नहीं पता था। अब उनकी शादी हो गयी, तो वो साल भर बाद ही माँ भी बन गयीं। दीदी की शादी में मेरी उम्र उतनी ही थी, जिस उम्र में बच्चे आँगन में लगे हैंडपंप पर खड़े हो कर सार्वजनिक स्नान कर लेते हैं।

भस्मासुर

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

सुबह से दस बार लिख कर मिटा चुका हूँ। कई बार सोचा जिन्दगी की कहानी लिखूँ, लेकिन आधी रात को फ्रांस में हुए धमाकों से मन बहुत विचलित हो रहा था। मुझे याद है कि उस दिन मैं अमेरिका में ही था, जब सुबह-सुबह दो विमान न्यूयार्क की जुड़वाँ ऊँची इमारतों में समा गये थे और दस हजार जिन्दगी देखते-देखते खत्म हो गयीं थीं। उस दिन भी मन बहुत विचलित हुआ था। 

भाई दूज : आस्था और विज्ञान

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

मेरे घर काम करने वाली बता रही थी कि वो भाई दूज के दिन काम पर नहीं आएगी।

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