पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आजतक
रामविलास पासवान। रामदास आठवले और उदितराज। मोदी के लिये अब यही वह तिकड़ी है जो देश भर में बीजेपी के मंच पर खडे होकर दलित वोट बैंक में सेंध लगायेगी।
संघ परिवार के लिये भी अपने राजनीतिक स्वयंसेवक को पीएम पद पर पहुंचाने के लिये यह अपने तरीके की पहली राजनीतिक बिसात होगी जब हिदुत्व की प्रयोगशाला के लिये जाने जाने वाले नरेन्द्र मोदी और आरएसएस की विचारधारा में दलित वोट बैंक साधने की राजनीति बीजेपी के मंच से होगी। दरअसल, बीजेपी को इसकी जरुर क्यों पड़ी या मोदी के पीएम बनने के रास्ते में दलित कार्ड कैसे सीढ़ी का काम कर सकता है। इसके लिये बीजेपी को लेकर देश के मौजूदा हालात और दलित वोट बैंक को लेकर बीजेपी की कुलबुलाहट को को समझना जरुरी है। अभी तक बीजेपी को धर्म के आधार पर वोट बैंक बांटने वाला माना गया। जो यह मिथ इस तिकड़ी के आसरे तोड़ा जा सकता है। बीजेपी को मुस्लिम वोट बैंक के सामानांतर दलित वोट बैंक चाहिये। क्योंकि देश के कुल वोटों का 17 फीसदी दलित समाज से जुड़ा है। दलित वोटरों के 50 फीसदी वोट क्षेत्रीय दलों के खाते में चले जाते हैं। और बीजेपी के खाते में दलित वोटरों के 12 फीसदी वोट आते हैं। जो बीजेपी को मिलने वाले कुल वोट का महज 2 फीसदी हैं। तो बीजेपी का दलित नेताओ की तिकड़ी से पहला टारगेट तो यही है कि 2 फिसदी से बढ़कर दलित समाज का वोट प्रतिशत 7-8 फीसदी तक बढ़ जाये। अगर ऐसा होता है तो मतलब साफ है कि संघ के हिन्दुत्व राष्ट्रीयता के सामानांतर दलितों की मौजूदगी बीजेपी को नयी मान्यता दे सकती है। और इसके लिये इस तिकडी का चुनाव प्रचार में इस्तेमाल बिहार, यूपी और महाराष्ट्र के अलावा झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भी होगा। इन दौरों में बीजेपी पासवान को दलितों के बड़े नेता के तौर पर। तो उदितराज को पूर्व नौकरशाह और आठवले को दर्जन भर दल में बंटी आरपीआई का सबसे बडे नेता के तौर पर बताया जायेगा। दरअसल इस तिकडी के आसरे नरेन्द्र मोदी की निजी सियासत को भी लाभ होगा। क्योंकि मोदी गुजरात दंगों के दायरे से बाहर खडे है यह पासवान ने बताया। मोदी हिदुत्व प्रयोगशाला के कठघरे से बाहर है यह उदितराज का मैसेज है। और आठवले आंबेडकर की उस लकीर को मिटायेंगे, जिसके आसरे दलित का सवाल हिदुत्व राष्ट्रीयता से इतर माना गया।
जाहिर है यह सारी परिस्थितियां मोदी की अगुवाई में बीजेपी के साथ ना खड़े होने पाने वाले दलो के लिये खड़े होने का रास्ता बनायेगी। लेकिन बाकी दलों के सामने मुश्किल क्या है और वह कौन सी परिस्थितियां हो सकती है, जब नरेन्द्र मोदी की बिसात भी अटल बिहारी वाजपेयी के दौर वाले गठबंधन के समूह की तरह दिखे। तो सात क्षत्रप और सात राज्य तो सीधे ऐसे हैं, जहां कांग्रेस और बीजेपी आनमे सामने नहीं है। या कहें बीजेपी की हैसियत जिन सात राज्यों में है ही नहीं तो बीजेपी हर हाल में इन सात राज्यों को टटोलेगी ।
तो यूपी, बिहार,सीमांध्र, तेलगाना,तमिलनाडु, बंगाल, उड़ीसा की कुल 263 सीटें हैं, जहां बीजेपी और कांग्रेस आमने सामने नहीं है। यानी इन राज्यों के क्षत्रपों के सामने कांग्रेस और बीजेपी दोनो कमजोर हैं। तो चुनावी मैदान में टकराने के सामानांतर चुनावी रणनीति का गणित साधना भी दोनो के लिये जरुरी है। और पहली बाजी मोदी ने मारी है। यूपी की 80 सीटों पर दलित चेहरे के जरीये सेंध लगाने का पहला प्रयास अगर उदितराज के जरीये हुआ तो भविष्य के संकेत मायावती के लिये भी बीजेपी ने खुले रखे हैं। क्योंकि मायावती की टक्कर यूपी में मुलायम से है और मौलाना मुलायम जिस छवि के आसरे सियासत कर रहे हैं, उसमें मायावती चुनाव के बाद कौन सी चाल चलेगी इसका इंतजार तो करना ही पड़ेगा। वहीं, बिहार में मोदी को पासवान का साथ मिल चुका है। सीमांध्र में जगन रेड्डी जिस तरह कांग्रेस से खार खाये बैठे हैं और आंध्र बंटवारे के बाद अपनी सीमटी राजनीति का ठीकरा कांग्रेस की पहल को अलोकतांत्रिक बता कर फोड़ रहे हैं, उसने भविष्य में जगन रेड्डी के मोदी के साथ जाने के संकेत मिल रहे हैं। बीते दिनों राजनाथ से खुली मुलाकात ने भी इस यारी की पुष्टी की थी। जबकि तेलंगाना में खिलाड़ी के तौर पर चन्द्रबाबू को जगन की तरह घाटा तो नहीं हुआ है लेकिन चन्द्रबाबू सिमटे जरुर हैं। मगर चन्द्र बाबू खुले संकेत दे चुके हैं कि गठबंधन के लिये उनके कदम बीजेपी की तरफ ही बढेंगें। तो मोदी को लाभ यहां भी मिलेगा। तमिलनाडु में जयललिता की टक्कर करुणानिधी से ही होनी है। और कांग्रेस या बीजेपी उनके लिये कोई चुनौती नहीं है। तो तीसरा मोर्चा जेसे ही फेल होता है या फिर मोदी को जरुरत अगर जयललिता की पड़ेगी तो जयललिता से मोदी की निकटता रंग दिखा सकती है यानी तमिलनाडु की 39 सीटो में से सबसे ज्यादा जीत के बावजूद जयललिता मोदी के साथ खड़े होने में कतरायेंगी नहीं। बंगाल में तृणमूल काग्रेस और वामंपथी आमने सामने हैं। कांग्रेस और बीजेपी हाशिये पर हैं।
मुस्लिम वोट बैंक खासा बड़ा है तो चुनाव से पहले ममता किसी का साथ जा नहीं सकती लेकिन चुनाव के बाद अगर ममता की राजनीतिक हैसियत बड़ी होती है तो बंगाल के लिये विशेष पैकेज से लेकर तमाम लाभ के लिये मोदी के साथ जाने में ममता को कोई परेशानी होगी नहीं। वही उड़ीसा में नवीन पटनायक के सामने कांग्रेस खड़ी है और चुनाव के बाद अगर राज्य के विकास के लिये केंद्र से मदद का सवाल उठता है और उसकी एवज में नवीन पटनायक को मोदी के साथ जाना पड़े तो तो इस गठबंधन से भी कोई इंकार नहीं कर सकेगा। जबकि गठबंधन के इस सियासत में राहुल गांधी की हथेली खाली है। यूपी में किसी के साथ जा नहीं सकते। बिहार में लालू यादव के अलावे नीतीश कुमार हैं जरुर लेकिन गठबंधन का साथ मोदी के असर को कितना बेअसर कर पायेगा। यह दूर की गोटी है। ध्यान दें तो जगन रेड्डी,चन्द्रबाबू नायडू, जयललिता-करुणानिधी, ममता, प्रकाश करात,नवीन पटनायक,मुलायम ,मायावती में से कोई चेहरा ऐसा नहीं है जो राहुल गांधी के साथ गठबंधन करे। कांग्रेस के लिये एकमात्र चेहरा चन्द्रशेखर राव या टीआरएस का है। जो तेलंगाना में कांग्रेस के साथ खड़ा हो सकता है । तो सवाल यही है कि 263 सीट जहां कांग्रेस और बीजेपी को सीधे नही टकराना है, वहां मोदी गठबंधन का राग छेड़ चुके हैं। जो उनके 272 के मिशन के फेल होने के बावजूद मोदी का नाम लेकर पीएम के पद तक पहुंचा सकता है। तो पासवान के जिस तेजी से सियासी चाल चली और उससे कही ज्यादा तेजी बीजेपी ने दिकायी वैसे ही यह तय हो गया कि अब सवाल 2014 की बिसात पर प्यादे और वजीर बनकर खड़े पासवान और मोदी कही आगे देख रहे हैं। और दोनों की जरुरत सिर्फ सीट के बंटवारे तक ही नहीं रुकेगी। क्योंकि माना यह भी जा रहा है कि पासवान की दोस्ती तीसरे मोर्चे के तहत आने वाले लगभग सभी दलों से है। ऐसे में चुनाव के बाद अगर बीजेपी को सरकार बनाने के लिए 30-40 सीटों की जरुरत होगी तो पासवान अच्छे मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए पार्टियों को एनडीए के पाले में ला सकते हैं। यानी वाजपेयी सरकार के दौर में जो भूमिका एनडीए के पूर्व साथी जेडीयूए के शरद यादव ने निभायी थी उसी भूमिका में मोदी के काल में पासवान निभायेंगे। याद कीजिये तो शरद यादव एनडीए के संयोजक थे। अब यही भूमिका पासवान निभा सकते हैं। यानी दृश्य बदल रहा है। प्यादे बदल रहे है। वजीर के चेहरे भी बदल रहे है। लेकिन चाल वहीं पुरानी है। और भ्रष्टाचार या ईमानदारी की राजनीति इस सियासी गठबंधन में ताक पर है।