रेखा और सचिन के बहाने

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डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :

सिने तारिका रेखा और क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर का क्या दोष है? उन पर हमारे नेता लोग फिजूल ही बरस रहे हैं। उन्हें वे धमका रहे हैं कि आप लोग राज्य सभा के सदस्य हैं, लेकिन उसके सत्रों में आपकी न्यूनतम उपस्थिति भी नहीं होती।

उन्हें डराया जा रहा है कि वे सदन में नियमित रूप से नहीं आये तो उनकी सदस्यता समाप्त कर दी जायेगी। बेचारे सचिन को अपने भाई की बीमारी की आड़ लेनी पड़ी है। रेखा भी कोई न कोई सफाई जरुर पेश करेंगी।

समझ में नहीं आता कि हमारे नेतागण रेखा और सचिन पर भी इतने मेहरबान क्यों हो रहे हैं? उन्होंने कभी मालूम किया कि इनसे भी अधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय राज्य सभा सदस्यों का रेकार्ड कैसा रहा है? वे अपनी छह साल की अवधि में कुल कितने दिन उपस्थित रहे? क्या हमने कभी सोचा कि कलाकारों के नाम पर नामजद होने वाले सदस्य सदन में क्यों नहीं आते? एक बड़ा कारण तो यह है कि इन कलाकारों की राजनीति में कोई खास रुचि नहीं होती। यदि उनकी थोड़ी-बहुत रुचि होती भी है तो उन्हें यह समझ में नहीं आता कि नेताओं की रोजमर्रा की नोंक-झोंक में वे क्या बोलें?

राज्य सभा में कला, विज्ञान और समाज-सेवा के बारे में कितनी चर्चा होती है? यदि इन विषयों पर चर्चा हो भी तो ये कलाकार उसमें भी कितना योगदान कर सकते हैं? एक श्रेष्ठ अभिनेता होना बड़ी बात है लेकिन यह जरुरी नहीं है कि वह अभिनेता भारत के फिल्म-व्यवसाय या कला-कर्म के बारे में कोई मौलिक चिंतन भी करता हो। यह बात किसी क्रिकेट खिलाड़ी या पहलवान पर भी लागू होती है। इसीलिए हमारी संविधान सभा द्वारा राज्यसभा में नामजदगी का जो यह प्रावधान किया गया है, उसके बारे में अब पुनर्विचार का समय आ गया है। गैर-राजनीतिज्ञों को नामजद करना उपयोगी है लेकिन उनके चुनाव के स्पष्ट मानदंड स्थापित किए जाने चाहिए। जब तक कोई कलाकार या वैज्ञानिक या समाजसेवी अपने वैचारिकता के लिए नहीं जाना जाता हो, उसे कदापि नामजद नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों को तो बिल्कुल नामजद नहीं किया जाना चाहिए, जो अपनी पैरवी करते हैं या दूसरों से करवाते हैं।

नामजद होने वाले ही नहीं, राज्य सभा में बैठनेवाले ज्यादातर सदस्य अपने नेता की दया और कृपा पर निर्भर होते हैं। इससे ‘उच्च सदन’ नाम की गरिमा की रक्षा नहीं हो पाती। यदि हम राज्य सभा को संसद का ‘उच्च सदन’ वाकई बनाना चाहते हैं तो हमें उसके सदस्यों की चुनाव-पद्धति को बदलना होगा। क्या राज्यों की जनता उन्हें सीधे चुनाव में चुने तो बेहतर नहीं होगा? राज्य सभा के उम्मीदवारों की अर्हताओं के बारे में भी हमें गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। यह मामला सिर्फ इन उदासीन कलाकारों की गैर-हाजिरी का ही नहीं है, बल्कि राज्य सभा के संपूर्ण चरित्र, ढाँचे, शक्ति और कार्य-प्रणाली का है। रेखा और सचिन के बहाने यदि हमारी राज्यसभा का रुपांतर हो जाये तो क्या कहने?

(देश मंथन, 11 अगस्त 2014)

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