राजीव रंजन झा :
केजरीवाल हमेशा अपने लिए नयी मंजिलें तय करते आये हैं। उनकी हर मंजिल की एक मियाद होती है। जब तक उसकी अहमियत होती है, तभी तक वहाँ टिकते हैं। नौकरी तब तक की, जब तक थोड़ा रुतबा हासिल करने के लिए जरूरी थी। एनजीओ तब तक चलाया, जब तक उससे एक सामाजिक छवि बन जाये। आंदोलन तब तक चलाया, जब तक राजनीतिक दल बनाने लायक समर्थक जुट जायें।
जब रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के दौरान संघ ने लंगर चलाया तो केजरीवाल को कोई दिक्कत नहीं थी। जब उन्हें लगा कि संघ उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं करेगा तो समर्पित कैडर की तलाश में वे वामपंथियों-नक्सलियों की ओर मुड़ गये। यह उनका सबसे बड़ा यू-टर्न था, जिसकी कोई चर्चा नहीं करता!
दिसंबर 2013 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रयोग के तौर पर उतरे, संयोग से बड़ी सफलता मिल गयी, तो तात्कालिक रूप से सरकार बना ली। मगर सरकार के ‘त्याग’ से लोकसभा चुनाव में सहानुभूति मिलने की उम्मीद में इस्तीफा दे दिया। लोकसभा चुनाव में सीधे मोदी से भिड़ने पर पूरे देश में मोदी के मुकाबले का दम रखने वाला अकेला व्यक्ति होने की छवि बनाने बनारस चले गये, मगर हारने के बाद वहाँ से ऐसे पलटे कि दोबारा बनारस नहीं गये।
इस समय भी केजरीवाल के लिए दिल्ली विधान सभा वह मंजिल नहीं है, जहाँ वे अगले पाँच साल तक अटके रहना चाहेंगे। उनकी महत्वाकांक्षाएँ इतने छोटे राज्य के मुख्यमंत्री तक सीमित नहीं हैं। मंजिल तो आगे की होगी। अगर कहीं “भगवान ने चाहा” और फिर से मुख्यमंत्री बन गये तो इस मंच का इस्तेमाल केवल इसलिए होगा कि मोदी से टकराने वाले इकलौते नेता के रूप में खुद को दिखा सकें। इसीलिए पाँच साल केजरीवाल एक शानदार चुटकुला है। वे कब कहाँ टिके हैं पाँच साल?
किरण बेदी ने बताया है कि अगर वे मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं तों एमएलए की तरह काम करती रहेंगी और अपने एनजीओ को फिर से सक्रिय करेंगी। अगर केजरीवाल इस बार दिल्ली के मुख्यमंत्री नहीं बन पाये तो इसके बाद वे क्या करेंगे? आपका अंदाजा क्या है?
(देश मंथन, 03 फरवरी 2015)