क़मर वहीद नक़वी :
आम आदमी गजब चीज है! किसी को भनक तक नहीं लगने देता कि वह क्या करने जा रहा है। वरना किसे अंदाज था कि सिर्फ नौ महीनों में ही दिल्ली घर घर मोदी से घर घर मफलर में बदल जायेगी!
और दिल्ली में ‘आम राज्य’ सीजन 2 की शुरुआत हो जायेगी। चुनावी पंडित अब जो भी जोड़-घटाव लगाते रहें, लगायें। लेकिन मोटे तौर पर सच यही है कि दिल्ली में यह चुनाव आम आदमी पार्टी ने नहीं, बल्कि खुद आम आदमी ने लड़ा था! और दिल्ली का यह आम आदमी कौन है? यह सही है कि आम आदमी पार्टी को गरीबों, दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों में गजब का समर्थन मिला, लेकिन शहरी युवाओं, मध्य वर्ग और यहाँ तक कि बीजेपी-अकाली गठजोड़ के बावजूद सिखों के भी आधे से ज्यादा वोट ‘आप’ को मिले। इसलिए पिछली बार के ‘आम राज्य’ सीजन 1 के मुकाबले इस बार दिल्ली में आये ‘आम राज्य’ सीजन 2 में सचमुच दिल्ली का आम आदमी न सिर्फ अपना भविष्य देख रहा है, बल्कि वह धड़कते दिलों से यह भी मना रहा है कि उसका फैसला गलत न साबित हो, वरना उसकी बड़ी जगहँसाई होगी!
अपनी लहर में डूबते राजनेता
यही अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी चुनौती है कि न वे अपनी जगहँसाई करायें और न जनता की जगहँसाई होने दें। उनकी पिछली गलती जनता ने खुले दिल से माफ कर दी। इसका यह मतलब नहीं कि अगली गलती भी माफ कर देगी। अमूमन ऐसे कार्ड एक बार ही चल पाते हैं!
भारतीय राजनीति की दो बड़ी त्रासदियाँ हैं। एक तो यह कि यहाँ राजनेता अकसर अपनी ही लहर में डूब जाते हैं! वरना मोदी को अपना नामधारी सूट पहनने का शौक न चर्राता! और दूसरी यह कि वैकल्पिक राजनीति के अब तक हुए सारे प्रयोग या तो बुलबुलों की तरह फूट कर बिखर गये या उसी परंपरागत राजनीति के कीचड़ में सन गये, जिसकी सफाई के नाम पर वे खड़े हुए थे। केजरीवाल के साथ दोहरा संकट है। वह प्रचंड लहर पर सवार हो कर आये हैं और राजनीति में शुचिता और आम आदमी की सीधी भागीदारी के एक नये वैकल्पिक मॉडल के साथ भी आये हैं। उन्हें अपने चुनावी वादे तो पूरे करने ही हैं, साथ ही यह देखना भी है कि जिस बेदाग राजनीति की बात वे करते हैं, वे उसकी भी बेदाग मिसाल पेश कर सकें! अभी चुनाव के दौरान चंदे और उनके कुछ उम्मीदवारों को लेकर उठे सवाल कहीं-न-कहीं खटका तो पैदा करते ही हैं कि वैकल्पिक राजनीति की चादर ओढ़ कर पार्टी कहीं उसी काजल की कोठरी की तरफ तो नहीं बढ़ रही है, जिसे ढहाने के लिए वह बनी थी!
अब केजरीवाल की असली परीक्षा
दूसरी पार्टियों के लिए हार के बाद आत्मनिरीक्षण का समय होता है।लेकिन केजरीवाल के लिए इस भारी जीत के बाद आत्मनिरीक्षण का समय है! वे अब सरकार और पार्टी को कैसे चलायें? उनके पास प्रचंड बहुमत है। यह समाधान भी है और समस्या भी! वे केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की स्थिति में रहेंगे, क्योंकि इतना बड़ा जनमत उनके साथ है। लेकिन बीजेपी कब चाहेगी कि इतना बड़ा जनमत हमेशा उनके साथ ऐसे ही बना रहे! इसलिए केजरीवाल के राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा यही होगी कि वे अपनी योजनाओं के लिए और अपने गगनचुंबी चुनावी वादों को पूरा करने के लिए केंद्र से कितना और कैसा सहयोग ले पाते हैं, केंद्र से टकराव की स्थितियाँ आने पर उससे कैसे निबटते हैं, सीमित शक्तियों के अपने दायरे में कितना काम कर पाते हैं और अगर काम नहीं कर पाते तो जनता को कैसे समझा पाते हैं कि वे क्यों काम नहीं कर पाये?
जनलोकपाल और दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा, कम-से-कम ये दो मुद्दे ऐसे हैं, जहाँ दिल्ली और केंद्र सरकार में सहमति की सम्भावनाएँ नहीं दिखतीं। केजरीवाल को तय करना होगा कि इन मुद्दों पर उन्हें क्या करना है? अटकना है, टकराना है, लड़ना है या इन पर कोई नयी समझ बनानी है? दूसरी बात यह कि दिल्ली में अमीर से लेकर गरीब तक हर तबके की उम्मीदों और आकांक्षाओं के बीच वे संतुलन कैसे बनायें? दिल्ली के इन चुनावों ने पहली बार देखा कि बिना किसी साम्यवादी या समाजवादी नारे के, कैसे समूचा का समूचा गरीब तबका इस उम्मीद में केजरीवाल के साथ खड़ा हो गया कि रोटी-पानी और सिर पर छत की उसकी बुनियादी समस्याओं में कुछ-न-कुछ सुधार जरूर होगा । बिना सेकुलरिज्म की बाँग लगाये ही कैसे 78 फीसदी मुसलमानों ने ‘आप’ को इस उम्मीद में समर्थन दिया कि वे हिंदुत्व की चिंघाड़ से अपने को सुरक्षित महसूस कर सकेंगे। और इस सब के बावजूद मध्य वर्ग के आधे मतदाताओं ने भी केजरीवाल से उम्मीद लगायी कि वे दिल्ली को विश्व-स्तरीय शहर बना देंगे, महिलाएँ बेखौफ घरों से बाहर निकल सकेंगी और ‘आप’ साफ-सुथरी ईमानदार राजनीति की नयी मिसाल पेश करेगी।
‘आप’ की सरकार, न मोदी शैली, न ममता शैली
इन अलग-अलग आकांक्षाओं को पूरा कर पाना अपने-आप में बड़ी चुनौती है। ‘आप’ की सरकार न सिर्फ गरीबों की सरकार हो सकती है, न दलितों-पिछड़ों की, न मुसलमानों की, न मध्य वर्ग की और न अमीरों की। वह मोदी शैली की सरकार नहीं हो सकती, जिसे कॉरपोरेट घराने के दोस्त के रूप में देखा जाये और न ही वह ममता बनर्जी की शैली वाली सरकार हो सकती है। इसलिए जब मनीष सिसोदिया निजी स्कूलों से डोनेशन खत्म करने की बात करते हैं तो कान खड़े होते हैं। डोनेशन बड़ी समस्या है, इसे रुकना चाहिए। लेकिन कैसे? आप कितनी नकेल कस सकते हैं? आपने नकेल कसी और ये स्कूल पड़ोस के उत्तर प्रदेश या हरियाणा में चले गये तो? ऐसे ही दिल्ली के निजी अस्पतालों में बड़ी लूट है। नियमों के बावजूद गरीबों को वहाँ जगह नहीं मिलती। लेकिन दिल्ली की कोई सरकार उन्हें सुधार नहीं पायी! ऐसी ही तमाम छोटी-बड़ी समस्याएँ हैं, जिन पर केजरीवाल और उनकी पार्टी को व्यावहारिक रवैया अपनाना पड़ेगा। पूरे चुनाव-प्रचार में किसी ने पर्यावरण की चर्चा ही नहीं की, जो दिल्ली वालों के जीवन के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है।
लेकिन ये चुनौतियाँ एक बहुत बड़ा अवसर भी पेश करती हैं। और अगर केजरीवाल इस अवसर का सही इस्तेमाल कर पाये तो वे सचमुच देश की बड़ी सेवा करेंगे और गवर्नेंस की नयी किताब लिखेंगे। केजरीवाल चुनाव कतई न जीतते, अगर बाकी दलों की तरह यह चुनाव उन्होंने पोस्टरों, बैनरों, होर्डिंगों, विज्ञापनों और रैलियों के परंपरागत तरीकों से लड़ा होता। वे चुनाव इसलिए जीते कि पिछले नौ महीनों में वे, उनके विधायक और वालंटियर दिल्ली के हर गली-कूचे में बार-बार गये, अपनी बात कही, लोगों की बात सुनी, सीधा संवाद किया, चुनावी घोषणा-पत्र बनाने के लिए दिल्ली डायलॉग किया, आम आदमी की सीधी भागीदारी बनी, लोगों को लगा कि ये लोग बिल्कुल उनके जैसे ही हैं, बिलकुल उनकी जैसी ही बातें करते हैं। और इसीलिए दिल्ली में घर घर मफलर ने जगह बना ली!
दिल्ली डायलॉग में हो सरकार की समीक्षा!
तो क्या यही मॉडल सरकार चलाने में नहीं अपनाया जा सकता? क्या दिल्ली सरकार, उसके मंत्री, उसके विधायक इस दिल्ली डायलॉग को सरकार के काम की सीधी समीक्षा में नहीं बदल सकते? हर कुछ महीनों बाद सरकार दिल्ली की जनता के पास जाये। बताये कि क्या-क्या काम कर दिया, क्या नहीं कर पाये, कहाँ क्या दिक्कतें आ रही हैं, उनका क्या समाधान हो सकता है, लोगों के क्या सुझाव हैं, वगैरह-वगैरह। अगर ऐसा हो गया तो सचमुच हम एक पारदर्शी सरकार देखेंगे, जिसके विफल होने का कोई कारण ही नहीं, क्योंकि जनता सरकार के हर फैसले में साथ होगी!
और पार्टी के लिए आगे क्या? जहाँ गुड़ होता है, वहाँ चींटे आते ही हैं। पार्टी के मौजूदा कुछ विधायकों को लेकर सवाल उठे हैं। यह केजरीवाल को सोचना है कि उन्हें अलग दिखना है या बाकी पार्टियों जैसा बन जाना है। और अगर अलग दिखना है तो पार्टी को साफ-सुथरा रखना ही पड़ेगा। (raagdesh.com)
(देश मंथन, 14 फरवरी 2015)