अजय अनुराग:
राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रभक्ति के बाद अब सबसे जटिल व उलझा हुआ शब्द है- ‘आजादी’। आज देश में आजादी की चर्चा ऐसे की जा रही है मानों हम किसी गुलाम देश में हों। लेकिन नहीं, आजादी माँगने वालों का कहना है कि आजादी देश से नहीं, देश में चाहिए।
बात तो ठीक है, लेकिन फिर इसे किसने रोक रखा है? जाहिर-सी बात है मोदी ने। क्योंकि इसकी माँग करने वालों में वे लोग, पार्टियाँ और उनके नेता शामिल हैं जो मोदी और मोदी सरकार को फूटी आँख नहीं देखना चाहते।
यानी, आजादी का मतलब है- ‘खुन्नस’। फिर तो ऐसी आजादी हर किसी को चाहिए। मसलन, बेटे को अपने बाप से, बहु को सास से, पत्नी को पति से या पति को पत्नी से, छात्रों को शिक्षक से, बच्चों को स्कूल से, पड़ोसी को पड़ोसी से और फिर हर किसी को हर किसी से। आज यदि मोदीजी से पूछें तो वे भी कांग्रेस-मुक्त भारत बना कर आजादी ही चाहते हैं। क्या मजाक है आजादी? क्या यही है आजादी?
आजादी का नारा देकर अपनी ‘कुंठित पीड़ा से राहत’ पाने वाले लोगों को समझना होगा कि आजादी के लिए सबसे पहले सभी तरह की संक्रीर्णताओं से बाहर निकालना जरूरी है। गरीबी, भूख, जाति, धर्म, सम्प्रदाय व गैर-बराबरी के झगड़े के लिए हम सब जिम्मेदार है। हमसब को पहले खुद के दोहरे चरित्र और अपनी ‘मानसिक गुलामी’ से आजाद होना होगा वरना नारों का क्या है, ये तो लगते ही रहेंगे।
(देश मंथन, 14 मार्च 2016)