राजीव रंजन झा :
उनके ‘नेताजी’ (हमारे नेताजी तो एक ही हैं, आजादी से पहले वाले) भी पार्टी में हैं। चच्चा भी पार्टी में हैं। चच्चा चुनाव भी लड़ेंगे। सबकी सूचियों का भी मिलान हो रहा है, सबका मान रखा जा रहा है। पार्टी भी एक है। चुनाव चिह्न भी सलामत है। बस बीच में डब्लूडब्लूई स्टाइल में जबरदस्त जूतमपैजार की नौटंकी से जनता का दिल खूब बहलाया गया। इस नौटंकी के नतीजे –
1. सपा फिर से चर्चा के केंद्र में आ गयी।
2. पहले सब एक थे, सपा कमजोर दिख रही थी। सब लड़ने लगे, सपा और कमजोर दिखने लगी। अब सब एक हैं, धारणा के स्तर पर सपा फिर से मजबूत हो गयी है! यानी नतीजा – सपा फिर से मजबूत दिखने लगी है! धारणा की बात है!
3. पहले अखिलेश यादव को अपने पूरे कार्यकाल में सपा नेताओं-कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार जैसे आरोपों का जवाब देना था। अब उनकी स्लेट साफ हो गयी है। अब उन्हें किसी बात का जवाब नहीं देना। अब इन सारी बातों का दाग उनके चेहरे से हटा कर पिता मुलायम और चचा शिवपाल के चेहरे पर डाल दिया गया है। वोट अखिलेश यादव के नाम पर दीजिए, क्योंकि उन्होंने तो मुलायम और शिवपाल को हरा दिया है!
4. भ्रष्टाचार और संपत्ति जुटाने के आरोप रामगोपाल यादव पर भी कम नहीं रहे हैं। पर वे सीधे-सच्चे अखिलेश के रखवाले बन कर उभरे हैं, इसलिए उन पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता!
अखिलेश यादव की मर्सिडीज साइकल ने प्रतीक यादव की लैंबोर्गिनी को पछाड़ दिया है, इसलिए सैंफई समाजवाद की जय बोलिए! (यह मत देखिए कि लैंबोर्गिनी आखिरकार खड़ी कहाँ होती है!)
(देश मंथन, 21 जनवरी 2017)