राजीव रंजन झा :
बजट चाहे देश का हो या एक आम आदमी के घर का, वह हमेशा संतुलन बनाने का खेल होता है। असीम जरूरतों का संतुलन उपलब्ध संसाधनों के साथ।
इस बार भी वित्त मंत्री अरुण जेटली के सामने यही चुनौती है। लेकिन इस बार एक बात अलग है। उन्हें असीम उम्मीदों के साथ भी संतुलन बनाना है और उनकी समस्या यह है कि हर व्यक्ति की उम्मीदें भी अलग-अलग हैं। अगर चुनावी नारे के रूप में देखा जाये तो बजट को इस कसौटी पर कसा जायेगा कि क्या यह लोगों के लिए “अच्छे दिन” लाने की दिशा में एक बड़ा कदम है? “अच्छे दिन” के नारे ने भाजपा को जबरदस्त चुनावी लाभ दिया था। अब यही नारा उनके लिए चुभता व्यंग्य बन गया है। विपक्षियों और आलोचकों ने उनके इसी नारे को अपना हथियार बना लिया है।
लेकिन राजनीतिक तोता-रटंत समर्थन-विरोध से अलग हट कर अगर आज की वास्तविक चुनौतियों और अवसरों को देखें तो आगामी बजट को दो कसौटियों पर देखना चाहिए। पहला यह कि क्या इस बजट से विकास के इंजन को तेज करने में मदद मिलेगी? दूसरा यह कि उस विकास में गाँव-शहर सब जगह के आम लोग अपनी कितनी भागीदारी महसूस कर सकेंगे? बजट एक विशाल दस्तावेज होता है, जिसमें हजारों प्रावधान होते हैं। उन सभी प्रावधानों का अलग-अलग विश्लेषण होता है कि किसको फायदा होगा और किसको नुकसान। मगर पूरे बजट से एक बड़ा संदेश जाता है। वह बड़ा संदेश ही इन दो कसौटियों पर बजट को कसने में मदद करेगा।
एक आम व्यक्ति बजट भाषण को सुनते हुए बस इतना जानना चाहेगा कि क्या आने वाले समय में उसकी जिंदगी कुछ बेहतर हो पायेगी? क्या उसे सरकार से वे सुविधाएँ मिल सकेंगी, जिनका वह हकदार है? क्या उसकी आमदनी बढ़ पायेगी? क्या उसकी बचत पहले से ज्यादा हो सकेगी?
दिल्ली विधानसभा के चुनावी नतीजों के बाद यह स्वाभाविक होगा कि मोदी सरकार अपने इस बजट में आम आदमी की आशा-निराशा का कुछ ज्यादा ख्याल रखे। वैसे तो लोक-लुभावन बजट लोकसभा चुनाव से ठीक पहले लाया जाता है, जबकि नयी सरकार के शुरुआती दो-तीन बजट जरा सख्त किस्म के होते हैं। लेकिन इस समय जन-भावनाओं को सहलाने के लिए काफी संभव है कि अरुण जेटली बजट में आयकर में छूट की सीमाओं को बढ़ाने की घोषणा कर दें।
कर-मुक्त आय की सीमा को सालाना ढाई लाख रुपये से बढ़ा कर तीन लाख रुपये कर देने में उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा आवास-ऋण पर छूट की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव भी आ सकता है। पिछले कुछ वर्षों में मकानों की कीमतें जिस तरह बेतहाशा बढ़ी हैं, उन्हें देखते हुए सालाना दो लाख रुपये तक ब्याज पर छूट नाकाफी हो चली है। आवास ऋण पर कर छूट बढ़ाने से मुश्किल में फँसे रियल एस्टेट क्षेत्र को भी कुछ राहत मिलेगी।
लेकिन यह तो मध्यम वर्ग को मिलने वाली राहत है। आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति तक की जिंदगी में कुछ बदलाव तभी आ सकते हैं, जब पूरी अर्थव्यवस्था का इंजन तेज हो। बौद्धिक बहसों के लिए यह सवाल उछाल लेना अपनी जगह है कि जीडीपी के आँकड़े बदल जाने से किसी गरीब की जिंदगी पर भला क्या असर पड़ता है? लेकिन अर्थव्यवस्था का इंजन तेज होने पर ही नये रोजगार पैदा हो सकते हैं, लोगों के वेतन में अच्छी वृद्धि हो सकती है और व्यवसायियों का धंधा ठीक चल सकता है।
इसलिए अरुण जेटली के इस बजट को सबसे ज्यादा इसी कसौटी पर आँका जायेगा कि इससे विकास की रफ्तार को बढ़ाने में मदद मिलने वाली है या नहीं? इसके लिए उनके सामने दो ही रास्ते हैं। एक तरफ उन्हें उत्पादक सरकारी खर्च को बढ़ाना होगा, तो दूसरी ओर निजी निवेश को आकर्षित करने वाले बड़े उपाय करने होंगे। निजी निवेश में उनका ध्यान घरेलू पूँजी पर भी होगा और विदेशी पूँजी पर भी।
सरकारी खर्च को बढ़ाने की उनकी अपनी सीमाएँ हैं। हालाँकि सरकारी घाटे (फिस्कल डेफिसिट) को लेकर अब बेहद चिंता वाली स्थिति तो नहीं है, लेकिन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की वसूली के ताजा आँकड़ों से लगता है कि घाटे को लक्ष्य के अंदर बनाये रखना भी उनके लिए मुश्किल है।
पिछले बजट में उन्होंने लक्ष्य रखा था कि 2014-15 में सरकारी घाटा जीडीपी का 4.1% होगा। मगर अप्रैल 2014 से जनवरी 2015 के 10 महीनों में सीबीईसी ने अप्रत्यक्ष करों यानी उत्पाद शुल्क (एक्साइज ड्यूटी) और सीमा शुल्क (कस्टम ड्यूटी) से करीब 4,270 अरब रुपये का कर-संग्रह किया है, जो बजट में दिये गये अनुमानों से करीब 2,000 अरब रुपये कम है। केवल दो महीने में इस कमी को पूरा करना मुश्किल लगता है।
कॉर्पोरेट टैक्स और आय कर की वसूली भी विश्लेषकों ने लक्ष्य से 4-5% कम रह जाने का अनुमान जताया है। इसलिए सरकार कुल कर राजस्व में साल 2014-15 में 17.7% वृद्धि के लक्ष्य से काफी पीछे रह जा सकती है। पिछले साल अंतरिम बजट और आम बजट के समय भी यही बात उठी थी कि ये लक्ष्य काफी आक्रामक हैं और इनका पूरा होना मुश्किल है।
केंद्र सरकार कहती आयी है कि वह सरकारी घाटे (फिस्कल डेफिसिट) को 2015-16 में 3.6% पर और 2016-17 में 3% पर लायेगी। इसलिए यहीं पर अरुण जेटली के लिए असली चुनौती है। सरकारी घाटे पर नियंत्रण के लिए जरूरी है कि वे सरकार के योजनागत और गैर-योजनागत दोनों तरह के खर्चों में कमी करें, जबकि विकास दर की गति को तेज करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने की जरूरत महसूस होती है। हाल में शेयर बाजार में आयी तेजी के बीच विनिवेश प्रक्रिया में तेजी आयी है। इससे जरूर सरकार को कुछ राहत मिली है। इन बंदिशों के बीच वित्त मंत्री को पूँजीगत खर्च बढ़ाने और अर्थव्यवस्था में निवेश-चक्र को दोबारा तेज करने के उपाय करने होंगे। मगर कैसे, यह एक बड़ी पहेली है और देखना है कि वे इस पहेली का कैसा जवाब तलाशते हैं।
बजट घाटे पर नियंत्रण के लिए सब्सिडी में कटौती भी वित्त मंत्री के लिए जरूरी है। मगर दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर बचे बवाल के बाद मौजूदा राजनीतिक माहौल में वित्त मंत्री सब्सिडी के मोर्चे पर किस हद तक राजनीतिक जोखिम लेना चाहेंगे, यह देखने वाली बात होगी।
हालाँकि गौरतलब है कि एलपीजी के लिए सीधे लाभ हस्तांतरण (डीबीटीएल) की योजना लागू करने से सरकार तमाम तरह की सब्सिडी पर काफी बचत कर सकती है। एक आकलन है कि केवल तेल सब्सिडी के मद में ही सरकार को 50,000 से 60000 करोड़ रुपये तक की बचत होने जा रही है। पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने से होने वाली अतिरिक्त आय का लाभ इससे अलग है। अब यूरिया सब्सिडी के लिए भी डीबीटीएल जैसी पहल की जा सकती है और उसके साथ ही यूरिया की कीमत को नियंत्रण-मुक्त करने की दिशा में कदम उठाया जा सकता है।
मोदी सरकार ने कामकाज सँभालने के बाद सबसे ज्यादा फुर्ती इस बात पर दिखायी थी कि अटकी हुई परियोजनाओं को तुरंत आगे बढ़ाया जाये। कोशिश यह थी कि परियोजनाएँ सरकारी मंजूरी के इंतजार में न लटकी रहें। खास कर यूपीए शासन में कुख्यात हो गये पर्यावरण मंत्रालय में फाइलों को निपटाने की गति सबसे तेज की गयी। मगर इन सबके बावजूद ऐसा नहीं लग रहा कि निजी निवेश की रफ्तार आगे बढ़ी है। इसलिए कहा जा सकता है कि अब भारत का घरेलू निजी क्षेत्र खुद अपनी हिचक में अटका हुआ है। अब घरेलू उद्योग जगत के सामने यह बहाना नहीं बचा है कि सरकारी अड़ंगे की वजह से वह निवेश नहीं कर पा रहा है।
ऐसे में वित्त मंत्री घरेलू उद्योगपतियों के सामने प्रतिस्पर्धा खड़ी करने के लिए विदेशी पूँजी को आकर्षित करने पर जोर दे सकते हैं। इसलिए अगर आगामी बजट में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को प्रोत्साहन देने वाले उपायों पर खास जोर हो तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। कुल मिला कर निजी क्षेत्र को मेक इन इंडिया के अभियान से जुड़ कर विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) में बड़े निवेश के लिए आमंत्रण मिल सकता है, जिसके लिए न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) के प्रावधानों में कुछ रियायतें दी जा सकती हैं।
साथ ही गार यानी जनरल एंटी एवॉयडेंस रूल्स के प्रावधानों को और अधिक समय के लिए टालने की घोषणा हो सकती है। विदेशी निवेशकों के मन में पिछली तारीख से कानूनों में बदलाव हो सकने को लेकर जो भय समा गया था, उसे दूर करने के लिए कोई विधायी प्रावधान भी लाया जा सकता है। कुल मिला कर इसमें देशी और विदेशी दोनों तरह की पूँजी के लिए दरवाजे खोले जायेंगे। साथ ही नव-उद्यमियों को प्रोत्साहन देने की कोई बड़ी योजना शुरू हो सकती है। शहरी बुनियादी ढाँचे के विस्तार के लिए स्मार्ट सिटी की योजना पर आगे का रोडमैप सामने आ सकता है।
(देश मंथन, 25 फरवरी 2015)