राजीव रंजन झा :
ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका – इन पाँचों देशों के अंग्रेजी प्रथमाक्षरों को मिला कर बना एक शब्द ब्रिक्स इन दिनों सुर्खियों में है। भारत में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होगी, जिन्होंने हाल में ही यह शब्द पहली बार सुना होगा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्राजील यात्रा की खबरें सामने आयीं।
वे ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए ब्राजील गये।
भारत की राजनीति में इस सम्मेलन को इसलिए ज्यादा महत्व मिला कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर उनकी पहली विदेश यात्रा थी और इसमें वे एक साथ कई राष्ट्राध्यक्षों से मिले। लिहाजा इस यात्रा के दौरान कूटनीतिक सफलता-असफलता की कसौटी पर उन्हें कसने का प्रयास किया गया। लेकिन इस सम्मेलन की अंतरराष्ट्रीय अहमियम भारत की आंतरिक राजनीति में इसे मिली चर्चा से काफी ज्यादा है।
दरअसल ब्रिक्स देशों का यूँ इकट्ठा होना अमेरिका की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर हावी गुट को कतई नहीं सुहा रहा है। यहाँ तक इस कार्यक्रम से जुड़ी खबरों और विश्लेषणों में पश्चिमी देशों के मीडिया की भाषा में भी यह बात झलक जाती है। लंदन के फाइनेंशियल टाइम्स के एक लेख में इस सम्मेलन को “तथाकथित ब्रिक्स राष्ट्र” कह कर संबोधित किया गया। अपने अस्तित्व में आने के इतने समय बाद भी यह समूह पश्चिमी मीडिया के लिए तथाकथित ही है! फाइनेंशियल टाइम्स का यह लेख ब्रिक्स को एक बिखरा समूह बताता है, जो केवल मौजूदा व्यवस्था से हताशा के कारण एकजुट हुआ है, न कि अपने मजबूत साझा हितों के कारण।
अब तक ब्रिक्स देशों का गुट अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अपनी जमीन तलाशने में ही लगा था, लेकिन इस महीने 14-16 जुलाई को हुए छठे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान पहली बार इसने अपना एक ऐसा ढाँचा खड़ा किया है, जिससे मौजूदा अंतरराष्ट्रीय संगठनों को चुनौती महसूस होने लगी है। इसने 100 अरब डॉलर का न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) बनाने का समझौता किया है। इसके अलावा ये पाँच देश अतिरिक्त 100 डॉलर का एक आरक्षित मुद्रा भंडार या रिजर्व करंसी पूल तैयार कर रहे हैं।
ब्रिक्स के ये कदम सीधे तौर पर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के लिए चुनौती हैं। इस सम्मेलन के बाद जारी प्रेस वक्तव्य में इस समूह ने कहा भी कि “हम आईएमएफ के 2010 के सुधारों पर अमल नहीं होने को लेकर निराश और गंभीर रूप से चिंतित हैं, जिसके कारण आईएमएफ की वैधता, विश्वसनीयता और प्रभावशीलता पर नकारात्मक असर पड़ रहा है।” इस जिक्र से स्पष्ट था कि वाशिंगटन स्थित संस्थाओं – विश्व बैंक और आईएमएफ के विकल्प के तौर पर ही ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक को खड़ा किया जा रहा है।
विश्व बैंक के विपरीत ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक में हिस्सेदार देशों की बराबर शक्ति होगी और इसमें अमेरिका की प्रभुता नहीं होगी। आईएमएफ का नेतृत्व हमेशा यूरोपीय देशों के हाथों में रहा है और विश्व बैंक का अध्यक्ष हमेशा अमेरिका ही चुनता रहा है। मगर ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक में हर देश को समान रूप से पाँच-पाँच वर्ष की अवधि मिलेगी, जिस दौरान इस बैंक की अध्यक्षता उसके पास रहेगी। बैंक का पहला अध्यक्ष बनाने का अधिकार भारत को मिला है।
आईएमएफ की मौजूदा व्यवस्था में ब्रिक्स देशों के पास केवल 10.3 प्रतिशत मताधिकार है। विश्व अर्थव्यवस्था में उनकी मौजूदा हैसियत की तुलना में यह काफी कम है। गौरतलब है कि क्रय क्षमता के आधार पर विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अमेरिका की हिस्सेदारी 19.2 प्रतिशत है, जबकि आईएमएफ में उसका मताधिकार 16.8 प्रतिशत है। इसकी तुलना में चीन की विश्व जीडीपी में हिस्सेदारी 16.1 प्रतिशत होने के बावजूद आईएमएफ में उसका मताधिकार केवल 3.8 प्रतिशत है। भारत विश्व जीडीपी में अपनी 6.0 प्रतिशत हिस्सेदारी के मुकाबले आईएमएफ में केवल 2.3 प्रतिशत हिस्सेदारी रखता है। अगर केवल भारत और चीन को साथ रख कर देखें तो ये विश्व जीडीपी में 22.1 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने के बावजूद आईएमएफ में केवल 6.1 प्रतिशत मताधिकार रखते हैं।
ब्रिक्स देशों के इस उभार से पश्चिमी मीडिया को चिंता होने लगी है। फाइनेंशियल टाइम्स के लेख में कहा गया है कि ब्रिक्स देशों को मौजूदा व्यवस्था में शामिल नहीं करने पर विश्व आर्थिक प्रशासन कई शक्ति-केंद्रों में बँट जायेगा जो अपने प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे और विश्व की आर्थिक एवं वित्तीय स्थिरता के लिए साथ-साथ काम नहीं कर सकेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो ब्रिक्स का उभरना उन्हें विश्व की आर्थिक स्थिरता के लिए खतरा नजर आ रहा है। या फिर यह क्यों न कहें कि पहली बार अमेरिका और उसके मित्र देशों के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था को एक गंभीर चुनौती मिल गयी है?
यह दिलचस्प है कि किसी समय एक बड़े अमेरिकी ब्रोकिंग फर्म की तरफ से निवेश के लिए उछाला गया शब्द ब्रिक्स अब अंतरराष्ट्रीय राजनय में एक महत्वपूर्ण जगह पा चुका है। गोल्डमैन सैक्स के अर्थशास्त्री जिम ओ नील ने अपनी साल 2001 में एक रिपोर्ट में भविष्यवाणी की थी कि चार देशों – ब्राजील, रूस, भारत और चीन की विश्व अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी आगामी दशकों में लगातार बढ़ती जायेगी और ये विश्व की कुछ सबसे प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ देंगे।
इस रिपोर्ट के सामने आने के पाँच साल बाद ही सितंबर 2006 में इस रिपोर्ट में शामिल देशों के विदेश मंत्रियों ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की महासभा के दौरान ही अलग से अपनी एक बैठक की, जो इस गुट का पहला औपचारिक कार्यक्रम कहा जा सकता है। इसके बाद साल 2009 में पहला ब्रिक्स सम्मेलन आयोजित हुआ। साल 2010 में चार देशों के इस गुट में दक्षिण अफ्रीका को पाँचवें देश के रूप में शामिल किया गया। अभी ब्राजील में इस गुट का छठा सम्मेलन हुआ है।
जिम ओ नील की रिपोर्ट में एक मुख्य बात कही गयी थी कि ब्रिक्स देशों की संभावनाओं के मद्देनजर जी7 देशों के समूह में इन्हें शामिल कर लेना चाहिए। आगे चल कर जी7 का विस्तार हुआ भी, लेकिन साथ-साथ यह भी हुआ कि इन चार देशों ने ही आपस में एक गुट बनाने का प्रयास किया। इस समय ब्रिक्स के पाँचों देश जी7 के विस्तारित रूप जी20 के सदस्य हैं। मगर इन सबके बावजूद इन देशों को यह बात सालती रही है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में उन्हें पर्याप्त जगह और शक्ति नहीं मिली है।
हालाँकि अभी यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि ब्रिक्स ने विश्व व्यवस्था में कोई बड़ा बदलाव ला दिया है। अभी केवल संभावनाओं के दरवाजे खुले हैं। ब्रिक्स देशों के बीच आपसी आर्थिक प्रतिस्पर्धा और अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक हितों की टकराहट को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारत के लिए चीन कभी विश्वसनीय सहयोगी नहीं रहा है। विश्व अर्थव्यवस्था में चीन भले ही भारत से काफी आगे निकल गया हो, लेकिन दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा भी है, सीमा विवाद भी और पाकिस्तान के साथ चीन की नजदीकी के कारण पैदा खटास भी। वहीं रूस और चीन के आपसी संबंध भी ज्यादा सहज नहीं रहे हैं।
बेहतर होगा कि ब्रिक्स को अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक में उलझाने के बदले केवल एक आर्थिक मंच के रूप में इस्तेमाल किया जाये। अगर इसके सदस्य देश अपनी इस साझेदारी का इस्तेमाल विश्व मंच पर एकजुट हो कर अपने प्रभाव को बढ़ाने में कर सके तो उसके बेहतर परिणाम निकल सकेंगे। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और अर्थनीति के बीच चोली-दामन का साथ रहा है और दोनों का आपस में उलझना बड़ा स्वाभाविक है। इसलिए ब्रिक्स की आगे की गतिविधियों को उत्सुकता के साथ देखना चाहिए, लेकिन अभी से बड़ी लंबी-चौड़ी उम्मीदें बाँध लेना भी ठीक नहीं होगा।
(देश मंथन, 22 जुलाई 2014