राजीव रंजन झा :
आम तौर पर जब दो राष्ट्राध्यक्ष मिलते हैं तो उनकी बातों और बयानों के अल्पविराम और पूर्णविराम तक की गहन कूटनीतिक समीक्षा होती है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक तात्कालिक सफलता यह है कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे को इन बारीकियों से निकाल कर दोनों देशों के आपसी संबंधों में आती गर्माहट पर केंद्रित कर दिया। हालाँकि यह सफलता तात्कालिक ही है, क्योंकि अंततः सफलता इसी पैमाने पर आँकी जायेगी कि यह गर्माहट दोनों देशों के आपसी कूटनीतिक और व्यापारिक रिश्तों को कितना आगे बढ़ा पाती है।
अब तक की खबरों के मुताबिक ओबामा ने भारत में कुल जमा चार अरब डॉलर के निवेश के वादे किये हैं। इनमें से दो अरब डॉलर का निवेश अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में, एक अरब डॉलर का निवेश मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत और एक अरब डॉलर का निवेश लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिए होगा। ये आँकड़े किसी तरह से प्रभावशाली नहीं कहे जा सकते।
मगर ओबामा के इस भारत दौरे का केंद्रीय विषय भारत अमेरिका का परमाणु समझौता था, जहाँ निश्चित रूप से सालों पुरानी अड़चनें खत्म हुई हैं। साल 2006 में ही दोनों देशों के बीच यह समझौता हुआ तो था, मगर उसका कोई नतीजा नहीं निकला। दो खास अड़चनें मुख्य थीं – दायित्व का प्रावधान और अमेरिकी निगरानी की शर्त। इन दोनों मुद्दों पर बात सुलझी है। इसीलिए यह कहा गया है कि अमेरिका भारत की परमाणु ऊर्जा क्षमता को मौजूदा लगभग 5800 मेगावाट से बढ़ा कर साल 2022 तक 20,000 मेगावाट करने में मदद करेगा।
अमेरिका ने भारतीय परमाणु संयंत्रों की निगरानी की जिद छोड़ दी है। वहीं दायित्व प्रावधान के मसले को सुलझाने के लिए भारत अमेरिका परमाणु बीमा पूल बनाने की योजना है। एक तरह से किसी दुर्घटना की स्थिति में वित्तीय मुआवजे का दायित्व बीमा कंपनियों पर डाला जा रहा है। हालाँकि यह एक ऐसा मसला है जिस पर आने वाले दिनों में सवाल उठ सकते हैं। अभी इस समझौते की अड़चनों को दूर करने के लिए दोनों पक्षों की ओर से दी गयी ढील और रियायतों के पूरे विवरण सामने नहीं आये हैं। इन विवरणों के सामने आने पर विवाद पैदा होने की गुंजाइश लगती है।
कुछ खबरें इस तरह की आ रही हैं कि दुर्घटना की स्थिति में वित्तीय दायित्व नाभिकीय संयंत्रों की आपूर्ति करने वालों पर नहीं, केवल संचालन करने वाली कंपनी पर होगा। कहीं ऐसा न हो कि ऐसी किसी ढील को अदालतों में इस आधार पर चुनौती दे दी जाये कि यह संसद की ओर से पारित कानून के अनुरूप नहीं है। पाँच साल पहले संसद में पारित भारतीय कानून ऐसी किसी दुर्घटना की स्थिति में उपकरण आपूर्ति करने वालों को ही अंततः जिम्मेदार बनाता है।
वहीं अगर बीमा पूल बनाये जाने की खबर को देखें, तो यह बीमा पूल 1,500 करोड़ रुपये का होगा, जिसमें 750 करोड़ रुपये का योगदान सरकारी बीमा कंपनियाँ करेंगी और 750 करोड़ रुपये का योगदान खुद भारत सरकार करेगी। अगर भोपाल गैस त्रासदी के संदर्भ में देखें तो क्या इस बीमा पूल का मतलब यह होगा कि यूनियन कार्बाइड जैसी कोई अमेरिकी कंपनी भारत में बेफिक्र हो कर अपने संयंत्र लगाये, कोई दुर्घटना होगी तो मुआवजा भारत सरकार दे देगी? आखिर जीआईसी और अन्य चार सरकारी बीमा कंपनियों का भी पूरा स्वामित्व तो भारत सरकार का ही है। इसलिए परोक्ष रूप में बीमा की यह जिम्मेदारी भारत सरकार ही उठा रही है।
ऐसी स्थिति में कोई अमेरिकी कंपनी क्यों भारत में लगाये जाने वाले परमाणु संयंत्र की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सावधानियाँ बरतेगी? दुर्घटना हो भी गयी तो उस पर कोई वित्तीय असर होगा ही नहीं। जो भी मुआवजा देना होगा, वह बीमा पूल से जायेगा जिसमें उस कंपनी का कोई योगदान नहीं होगा। हालाँकि इस पर सरकारी पक्ष से जुड़े लोगों का कहना है कि जो परमाणु संयंत्र लगाये जाने वाले हैं, उनकी तुलना भोपाल में यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से नहीं की जा सकती क्योंकि इन संयंत्रों को लगाने में सरकारी कंपनी न्यूक्लियर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया की सहभागिता होगी। साथ ही जब उपकरणों की आपूर्ति के समझौते होंगे तो उन समझौतों के प्रावधानों में भी आपूर्तिकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ तय होंगी।
दूसरी बात यह है कि बीमा पूल के लिए 1500 करोड़ रुपये की रकम बेहद छोटी और नाकाफी लगती है। गौरतलब है कि अभी तीन साल पहले ही जापान में हुई नाभिकीय दुर्घटना में 20 अरब डॉलर का सीधे तौर पर और लगभग डेढ़ सौ अरब डॉलर का परोक्ष तौर पर नुकसान हुआ था। इसकी तुलना में महज एक चौथाई अरब डॉलर का बीमा पूल बनाने से भला कितनी वित्तीय सुरक्षा मिल जायेगी? हालाँकि यह कहा जा रहा है कि 1500 करोड़ रुपये की रकम तो केवल एक आधार पूँजी होगी और बीमा सुरक्षा इससे कहीं ज्यादा होगी। आखिरकार एक संयंत्र ही अगर साठ-सत्तर हजार करोड़ रुपये का होगा तो जाहिर है कि उस संयंत्र का बीमा भी उसी अनुपात में होगा।
हालाँकि अभी इन सवालों के विस्तार में गये इस समय भारत और अमेरिका, दोनों पक्षों की ओर से बस इतना कहा जा रहा है कि परमाणु समझौते की अड़चनें दूर हो गयी हैं और बात सुलझ गयी है। इस मामले में विस्तृत विवरणों के सामने आने पर ही कहानी साफ होगी।
हालाँकि सवाल यह भी है कि परमाणु ऊर्जा पर भारत सरकार कहीं जरूरत से ज्यादा जोर तो नहीं दे रही? कारण यह है कि पूरे विश्व में ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए परमाणु बिजली पर निर्भरता कम की जा रही है। हालाँकि चीन अपनी परमाणु बिजली उत्पादन क्षमता को साल 2020 तक तिगुना करने की योजना पर काम कर रहा है, मगर दूसरी ओर जर्मनी ने परमाणु बिजली संयंत्रों को क्रमशः बंद करने की योजना बनायी है।
नाभिकीय संयंत्रों से जुड़े खतरों की तुलना में सौर ऊर्जा परियोजनाएँ कहीं बेहतर विकल्प नजर आती हैं। ओबामा के इस दौरे में सौर ऊर्जा के लिए पूँजी को लेकर भी भारत और अमेरिका के बीच समझौता हुआ है। एक लाख मेगावाट की सौर ऊर्जा परियोजनाओं के लिए लगभग छह लाख करोड़ रुपये की पूँजी जुटाने में अमेरिका की ओर से मदद मिलने की उम्मीद है। अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत ने पहले से ही 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दे रखी है।
सौर ऊर्जा परियोजनाओं को स्थापित करने में लगने वाला समय भी परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की तुलना में काफी कम होता है। लिहाजा अगर भारत को जल्दी परिणाम चाहिए तो उसे सौर ऊर्जा पर ही ज्यादा ध्यान देने की रणनीति अपनानी चाहिए। हालाँकि ऊर्जा क्षेत्र के जानकार कहते हैं कि भारत परमाणु ऊर्जा को भी नजरअंदाज करके नहीं चल सकता, क्योंकि भारत में पहले से ऊर्जा की काफी कमी है और आने वाले वर्षों में ऊर्जा संबंधी जरूरतें लगातार बढ़ती ही जायेंगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस दौरे में यह जिक्र किया कि बड़े समझौते एक दिन में नहीं होते। लिहाजा भारत और अमेरिका के बीच अब तक जो सहमतियाँ बनी हैं, उन पर आगे भी बातें चलती रहेंगी। मगर पहले प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा और अब बराक ओबामा की भारत यात्रा ने वह माहौल तैयार कर दिया है, जिसमें दोनों देश एक दूसरे को स्वाभाविक साझेदार मान कर आगे बढ़ना चाहते हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में कुछ भी इकतरफा नहीं होता। इस हाथ दे उस हाथ ले की रणनीति हमेशा चलती है और दोनों ही देश चाहेंगे कि वे कम दे कर ज्यादा हासिल कर सकें। इसलिए आने वाले दिनों में भी भारत और अमेरिका के बीच जहाँ कुछ सहयोग बढ़ता दिखेगा, वहीं आपसी खींचतान भी होगी और घरेलू राजनीति की खींचतान का असर भी होगा।
(देश मंथन, 29 जनवरी 2015)