राजीव रंजन झा :
सुबह-सुबह एक मित्र बरस पड़े, खाक अच्छे दिन आये हैं! ठीक है कि आलू-प्याज सस्ते हो गये, लेकिन समोसा कब सस्ता होगा? गाड़ी में डालने का तेल ही नहीं, खाने का तेल भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में सस्ता हो चला है। फिर यहाँ समोसा सस्ता क्यों नहीं हुआ?
मैंने उन्हें समझाना चाहा कि भाई, थोक महँगाई दर शून्य पर भले आ गयी है, लेकिन इसका मतलब यह थोड़े ही है कि कीमतें शून्य हो जायेंगी और सब चीजें मुफ्त मिलने लगेंगी।
महँगाई दर शून्य होने का मतलब बस यह है कि दाम बढ़े नहीं हैं, जितने थे उतने ही हैं। और शून्य महँगाई दर का यह आँकड़ा थोक का है, खुदरा बाजार में थोड़े-बहुत दाम अब भी बढ़ ही रहे हैं, भले ही बहुत हल्की दर से।
महँगाई का एक सामान्य नियम यह है कि जिस चीज के दाम एक बार बढ़ गये, वो बढ़ गये। फिर वे अमूमन लौट कर पुराने स्टेशन पर नहीं आते। यह गाड़ी केवल एक तरफ जाती है। इसका कोई टर्मिनल नहीं है जहाँ से यह पलट कर वापस उस ओर चलने लगे जहाँ से आयी थी। खुदरा कीमतों पर यह नियम पूरी तरह लागू होता है।
भले ही अखबार में पढ़ने को मिले कि मंडी में सब्जियाँ सस्ती हो गयी हैं, लेकिन ठेले वाला आपको उसी पुराने भाव पर सब्जियाँ देता रहेगा। ज्यादातर लोगों को मंडी के भावों का पता ही नहीं होगा।
जिन्हें पता होगा, उनमें ज्यादातर लोग टोकने की हिम्मत नहीं करेंगे और किसी ने टोक दिया तो ठेले वाला उसे एक राजनीतिक किस्म का बयान पकड़ा देगा। शायद अंत में एहसान करके 5 रुपये कम कर दे।
अगर आप टीवी पर विज्ञापनों को खबरों से ज्यादा ध्यान से देखते हैं तो आप हमेशा इस खुशफहमी में रहेंगे कि कीमतें तो हमेशा घटती हैं। कौन-सी चीज ऐसी है जिस पर कुछ-न-कुछ छूट नहीं मिलती। टूथपेस्ट के दाम हमेशा घट ही जाते हैं!
च्यवनप्राश भी टीवी के विज्ञापन में हमेशा पहले से सस्ता ही होता जाता है। गाड़ियों की हमेशा बंपर सेल ही चलती है। कपड़े हमेशा मेगा-सेल में मिलते हैं। लेकिन बाजार जाते ही पता नहीं कैसे आपकी जेब पहले से ज्यादा हल्की हो जाती है!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब अपनी पीठ ठोक सकते हैं, आपसे कह सकते हैं कि मैंने अपना वादा पूरा कर दिया और महँगाई घटा दी। आखिर अब थोक महँगाई दर नवंबर 2014 के महीने में शून्य पर आ गयी।
साल भर पहले नवंबर 2013 में यह 7.52% और महीने भर पहले अक्टूबर 2014 में 1.77% पर थी। अब और क्या चाहिए! खुदरा महँगाई दर भी कुछ खास नहीं रही। यह नवंबर 2014 में 4.38% के न्यूनतम स्तर पर आ गयी है।
थोक महँगाई के आँकड़े बता रहे हैं कि प्याज 56.28% सस्ता हो गया है। सब्जियाँ औसतन 28.57% सस्ती हो गयी हैं। अगली बार सब्जी लेने जायें तो कैलकुलेटर साथ ले जायें और अखबार की कतरन भी। ठेले वाले को दिखा कर बतायें कि भई दाम 28.57% कम करो।
लेकिन हो सकता है कि वह भी अखबार की ताजा कतरन दिखा कर आपको बता दे कि नहीं जी, आलू की महँगाई तो नवंबर में 34.10% बढ़ी है। कितना मजेदार दृश्य होगा कि एक खरीदार और एक ठेले वाला सब्जियों की कीमतों पर मोलभाव कर रहे हैं और उनकी मदद के लिए एक गणितज्ञ, एक सांख्यिकीविद और एक अर्थशास्त्री साथ में खड़े हैं!
लेकिन आलू का पारितंत्र केवल यहीं तक सीमित नहीं है। यह पारितंत्र जहाँ से शुरू होता है, उसकी तो हमने अब तक बात ही नहीं की। बेचारा किसान। आपको अपने समोसे की पड़ी है, उधर वह किसान रो रहा है कि उसे अपनी फसल की लागत भी ठीक से वापस मिलेगी या नहीं। समय और मेहनत की कीमत तो जाने दीजिए, कम-से-कम खाद-बीज-कीटनाशक पर लगे पैसे तो वापस आ जायें।
चंडीगढ़ से बिजनेस स्टैंडर्ड की एक खबर बता रही है कि नयी फसल आने पर इस दिसंबर में किसानों को आलू 5-7 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से बेचना पड़ रहा है। पिछले दिसंबर में उन्हें 16-20 रुपये तक के भाव मिल गये थे। पिछले साल के ऊँचे दाम देख कर देश भर के किसानों ने इस बार आलू की जम कर खेती कर ली, अब मंडी में देश के हर कोने से आलू आने को तैयार बैठा है।
अब सरकार किसके अच्छे दिनों की चिंता ज्यादा करे? किसान के अच्छे दिन आते हैं तो देश भर के उपभोक्ता रोने लगते हैं। उपभोक्ता की चिंता करें तो किसान कर्ज में डूब जाता है। पूरी श्रृंखला में प्रतिशत के हिसाब से ठेले वाला सबसे ज्यादा हिस्सा ले जाता है, मगर वह पिछले साल भी गरीब था और इस साल भी गरीब है। पूरी श्रृंखला में अगर कोई है, जिसके हमेशा अच्छे दिन रहते हैं, तो वह है बीच का आढ़ती।
सुना था मोदी सरकार मंडियों की व्यवस्था सुधारने जा रही है। लेकिन इससे आगे कुछ सुनने को नहीं मिला। हो सकता है पार्टी की बैठकों में कुछ महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं ने कह दिया हो कि ऐसा करने से तो उनके बुरे दिन आ जायेंगे।
खुदरा महँगाई पर नियंत्रण पाने की यह एक ऐसी पहेली है, जिसका समाधान अब तक किसी सरकार के पास नहीं रहा है। थोक महँगाई तो फिर भी माँग-आपूर्ति के नियमों पर कुछ हद तक चलती है, मगर खुदरा महँगाई की इकतरफा चलने वाली रेल को कैसे किसी टर्मिनल पर रोक कर फिर से उल्टी दिशा में चलाया जाये? लेकिन अगर यह उल्टी दिशा में न भी चले, तो इसकी रफ्तार धीमी हो जाने से भी लोग राहत महसूस करने लगते हैं।
आखिर जो समोसा आपके देखते-देखते बस दो साल में 5 रुपये से 10 रुपये का हो गया, वह अगर अगले साल-डेढ़ साल तक 10 रुपये का ही मिलता रहे तो आप खुश रहेंगे। अर्थशास्त्रियों की भाषा में महँगाई दर धीमी हो जाने का मतलब यह नहीं है कि दाम पहले से घट जायेंगे। बस इतना होगा कि दाम बढ़ने की रफ्तार पहले से कम हो जायेगी।
लेकिन सरकार अगर खुदरा कीमतों को कम न करा सके तो उसे लोगों को राहत देने के लिए इस बात का इंतजाम तो करना होगा कि उनकी आमदनी बढ़ सके। लोगों की आमदनी बढ़ती है विकास दर तेज होने से और विकास के ही नारे पर मोदी सरकार बनी भी है। मगर विकास की रेल ने अब तक रफ्तार नहीं पकड़ी है। पहली तिमाही में 5.7% विकास दर हासिल होने के बाद दूसरी तिमाही में विकास दर फिर से घट कर 5.3% पर आ गयी।
सरकार बातें तो काफी कर रही है। सुनने में उसकी बातें अच्छी भी लग रही है। मगर इन बातों का जमीनी असर अब तक दिखना शुरू नहीं हो पाया है। विकास की रेल सीटी बहुत बजा रही है, पर इसने आगे बढ़ना शुरू नहीं किया है। लोग सोच रहे हैं कि सीटी बजी है तो यह रेल आगे बढ़ेगी भी। खुद भाजपा के थिंक टैंक समझे जाने वाले अरुण शौरी हाल में अपने एक लेख में कह चुके हैं कि प्लेट-चम्मचों की आवाजें तो जरूर आ रही हैं, लेकिन खाना अब तक नहीं आया है।
लोग अब तक धैर्य के साथ इंतजार कर रहे हैं, लेकिन इस धैर्य की एक सीमा होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली की टीम को यह बात बखूबी मालूम होगी।
उम्मीद करते हैं कि लोगों का धैर्य टूटने से पहले रेल चल पड़ेगी, प्लेट में सजा खाना आ जायेगा। धैर्य और उम्मीदें टूटने पर लोगों की निराशा काफी बड़ी होगी, क्योंकि जनता ने काफी बड़े वादों से उपजी बड़ी उम्मीदों के आधार पर इस सरकार को एक बड़ा बहुमत दिया है।
(देश मंथन, 18 दिसंबर 2014)