भूमि अधिग्रहण बिल पर तथ्यहीन विरोध

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राजीव रंजन झा :

राहुल गाँधी को भारतीय राजनीति में पुनर्स्थापित करने के प्रयास के तहत कांग्रेस ने बीते रविवार को दिल्ली में किसानों की रैली की और उसमें राहुल खूब गरजे-बरसे।

वे कितने असरदार रहे, यह समझना आसान नहीं है। कारण यह कि भाजपा-मोदी समर्थक उन्हें पहले की तरह खारिज कर रहे हैं और भाजपा-मोदी विरोधी उनके अन्दर नया तेवर और नयी उम्मीद देखने लगे हैं। रैली में और फिर संसद के बजट सत्र का दूसरा हिस्सा आरंभ होने पर सदन के अन्दर उनके भाषण में लोग नयी आक्रामकता देख रहे हैं। हालाँकि मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि जब उन्होंने आस्तीनें चढ़ा कर भाषण दिया था, या जब मंच से कागज फाड़ा था (हालाँकि असल में वह उनकी ही पार्टी के नेताओं के नामों की सूची थी!), उस समय की आक्रामकता और इस नयी-नयी आक्रामकता में अंतर क्या है, लेकिन मार्केटिंग का सूत्र है कि जब कोई उत्पाद रीलांच किया जाता है तो कुछ नयी खूबियाँ बतानी पड़ती हैं। वे नयी खूबियाँ बतायी जा रही हैं। कंपनियाँ अक्सर रीलांच से पहले बाजार में उस उत्पाद को एकदम ठंडा भी कर देती हैं, ताकि उससे जुड़ी पुरानी नकारात्मक यादें जनता के मन से हट जायें। शायद उसी कोशिश के तहत राहुल दो महीने परिदृश्य से बाहर भी रहे। एक अच्छी रीलांच स्क्रिप्ट लिखने की कोशिश तो की गयी है, लेकिन कोशिश कितनी कारगर होगी यह तो समय ही बतायेगा। 

राहुल के रीलांच के लिए कांग्रेस ने भूमि अधिग्रहण का मुद्दा चुना है। भारत में जमीन का मसला हमेशा बड़ा भावनात्मक रहा है। किसान की जमीन छीनी जा रही है – यह कहना ही लोगों को भावनाओं को उद्वेलित कर देने के लिए काफी होता है। शायद यही कारण है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक के मुद्दे पर शिव सेना जैसा सहयोगी दल भी भाजपा से अलग सुर में बोल रहा है। हालाँकि इसका असली कारण संभवतः यही है कि अपने गढ़ महाराष्ट्र में भाजपा का कनिष्ठ सहयोगी बन जाने की टीस को शिव सेना भुला नहीं पा रही है। महाराष्ट्र सरकार के गठन में भाजपा ने जिस तरह शिव सेना को नीचे झुकने पर मजबूर किया, उसे याद रखते हुए शिव सेना चाहेगी कि भूमि अधिग्रहण के महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद में उसका समर्थन पाने के लिए भाजपा उसके सामने गिड़गिड़ाये और ‘उचित कीमत’ चुकाये। 

लेकिन जमीन का मसला भावनात्मक होने के कारण ही खुद भाजपा के अपने नेता और सांसद उतने सहज-आश्वस्त नहीं लग रहे। भाजपा की वैचारिक जमीन तैयार करने वाला संघ और उसके विभिन्न आनुषांगिक संगठन भी इस मुद्दे पर काफी हद तक आलोचनात्मक ही नजर आये हैं, हालाँकि ऐसा लगता है कि हाल में मोदी सरकार ने इस बारे में संघ का विश्वास जीतने में थोड़ी सफलता पायी है, लेकिन खुद भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं की हिचक तोड़ने में पार्टी उतनी सफल नहीं रही है। इसी बात को महसूस करके खुद प्रधानमंत्री मोदी को इसी रविवार को संसद का सत्र फिर शुरू होने से एक दिन पहले भाजपा सांसदों को अपनी पाठशाला में बिठा लिया। मोदी को अपने सांसदों को समझाना पड़ा कि भूमि अधिग्रहण के मसले पर वे लोगों से आँखें झुका कर नहीं, आँखें मिला कर बात करें। 

तो क्या भूमि अधिग्रहण पर छिड़ी राजनीतिक लड़ाई केवल धारणा के मैदान पर लड़ी जा रही है? दिखता तो यही है कि विपक्ष की सारी आलोचना तथ्यों की कसौटी पर केवल ताश का महल है। सबसे बड़ी गलत धारणा यह बना दी गयी है कि किसानों से छीन कर उद्योगपतियों को जमीन दी जायेगी। राहुल गांधी ने 19 अप्रैल की किसान रैली में आरोप लगाया कि चुनाव के दौरान मोदी ने उद्योगपतियों से हजारों करोड़ रुपये का कर्ज लिया (और ऋण समझौते का दस्तावेज सँभाल कर रखने के लिए राहुल गांधी को दे दिया!) और इसका बदला चुकाने के लिए वे किसानों की जमीन छीन कर उद्योगपतियों को देंगे। राजनीतिक जुमलेबाजी को परे रख कर देखें तो स्वयं प्रधानमंत्री मोदी बार-बार स्पष्ट कर चुके हैं कि विधेयक में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। मार्च में ही किसानों को संबोधित मन की बात में प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट कहा था कि “नये अध्यादेश में किसी भी निजी उद्योगपति के लिए जमीन अधिग्रहण करने के समय 2013 में जो कानून बना था, उसके सारे नियम उनको लागू होंगे। कॉर्पोरेट (क्षेत्र) के लिए 2013 का कानून वैसे का वैसा लागू रहने वाले है।”

इस विधेयक में जो भी संशोधन किये जा रहे हैं, वे केवल केंद्र राज्य सरकारों की परियोजनाओं के लिए होने वाले अधिग्रहण से ही संबंधित हैं। उस जमीन को निजी उद्योगपतियों को देने की कहीं कोई बात है नहीं, लेकिन किसानों को सबसे ज्यादा इसी बात पर उकसाया जा रहा है। जब यह बात एक सिरे से तथ्यहीन है तो इस बारे में विपक्ष का हल्ला असरदार क्यों हो रहा है? इसका एक बड़ा कारण यह है कि आजकल धारणाएँ चैनलों के स्टूडियो में बनायी-बिगाड़ी जाने लगी हैं, जहाँ भाजपा का एक प्रवक्ता जो बोले, उसके विपरीत सही-गलत कुछ भी बोलते रहने के लिए पाँच-सात और सिर मौजूद रहते हैं। लोकसभा में भाजपा भले ही बहुमत में हो, लेकिन प्राइमटाइम की टीवी वाली बहस में भाजपा अल्पमत में रहती है।

यहाँ तक कि कई लोग औद्योगिक गलियारे (इंडस्ट्रियल कॉरिडोर) को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं, मगर मोदी ने ‘मन की बात’ में स्पष्ट कहा था कि ये गलियारे निजी नहीं, सरकारी ही होंगे और उनका स्वामित्व सरकार का ही होगा। 

एक बड़ा हल्ला इस बात पर मचा है कि इस विधेयक में लोगों से अदालत जाने का अधिकार छीना जा रहा है। इस देश में कोई भी कानून किसी भी व्यक्ति को अदालत जाने से रोक ही नहीं सकता। कभी ऐसा कोई प्रावधान कानून की शक्ल ले भी ले तो न्यायपालिका ही ऐसे प्रावधान को निरस्त कर देगी, लेकिन अगर मुकदमेबाजी कम करने के लिए अदालत जाने से पहले किसी अधिकरण के पास जा कर मामला सुलटाने का एक प्रावधान रखा जाये तो इसमें गलत क्या है? ऐसा प्रावधान बीमा और बैंकिंग क्षेत्र में ओंबुड्समैन के रूप में होता है। जब अदालतें हैं ही तो उपभोक्ता अदालतें क्यों बनायी गयीं?

सबसे हास्यास्पद तो यह है कि किसानों की हाल की आत्महत्याओं के लिए भी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को जिम्मेदार बताया जाने लगा है। अभी तो इस अध्यादेश के आधार कहीं भी कोई भूमि अधिग्रहण हुआ ही नहीं है, तो फिर इसका कोई अच्छा या बुरा असर आज कैसे हो सकता है? 

भूमि अधिग्रहण पर छिड़ी पूरी बहस को कई स्तरों में देखने की जरूरत है। कुछ लोगों की तो विचारधारा है कि किसान से किसी भी हालत में जमीन लेनी ही नहीं चाहिए। किसी काम के लिए नहीं, किसी दाम पर नहीं, लेकिन जब उनसे पूछें कि भई उसी किसान की जमीन की सिंचाई के लिए नहर कहाँ बनेगी, उस किसान के घर तक बिजली पहुँचाने के लिए खंभे कहाँ गड़ेंगे, उस किसान का ट्रैक्टर शहर के बाजार तक जाये इसके लिए सड़क कहाँ बनेगी तो ऐसे सवालों का जवाब उनके पास नहीं। विचारधारा-आधारित ऐसे विरोध का कोई सार्थक जवाब दिया ही नहीं जा सकता। 

दूसरी सोच यह है कि जहाँ बिल्कुल जरूरी हो, वहीं किसानों की जमीन ली जाये और जब ली जाये तो उचित मुआवजा दे कर उनके पुनर्वास का मुकम्मल इंतजाम हो। इस बारे में प्रधानमंत्री ने अपनी ‘मन की बात’ में स्पष्ट किया है कि “हम इस बात पर सहमत हैं कि सबसे पहले सरकारी जमीन का उपयोग हो। उसके बाद बंजर भूमि का उपयोग हो, फिर आखिर में अनिवार्य हो तब जा कर के उपजाऊ जमीन को हाथ लगाया जाये।” लेकिन अगर कानून बना कर यह प्रावधान कर दिया जाये कि उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण किया ही नहीं जा सकता तो क्या कोई बता सकता है कि किसी नहर परियोजना के लिए जरूरी सारी की सारी जमीन उपजाऊ जमीन का जरा भी अधिग्रहण किये बिना कैसे हासिल की जा सकती है? 

(देश मंथन, 01 मई 2015)

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