लोक लुभावन योजनाएँ हों या कठोर निर्णय?

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बृजेश श्रीवास्तव :

कल दो बड़ी खबरें आयीं, एक नयी दिल्ली से और दूसरी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से। नयी दिल्ली की खबर रेल मंत्री जी द्वारा रेल यात्री किराये और माल भाड़े में बढ़ोतरी की थी।

लखनऊ से आयी खबर में उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने अपने बजट में तीन महत्वाकांक्षी योजनाओं पर कोई चर्चा ही नहीं की गयी और इन्हें बजट से बाहर रखा गया। इस तरह कन्या विद्या धन योजना, लैपटॉप योजना और बेरोजगारी भत्ता जैसे प्रमुख योजनाओं को बंद कर दिया गया है। इसके अलावा हमारी बेटी उसका कल और सरकारी कंबल वितरण योजनाओं को भी बजट से बाहर रखा गया।

पहली नजर में रेल किराया में बढ़ोतरी आम जनता की जेब पर बोझ बढ़ाने वाली दिखती है। मोदी सरकार ने रेल बजट से पहले ही यात्री किराये में 14.2% और माल भाड़े में 6.5% की बढ़ोतरी कर दी है, जिसके खिलाफ देश भर में राजनीति तेज हो गयी है। विपक्षी दलों के नेता-कार्यकर्ता जगह-जगह सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन कर रहे हैं। हालाँकि इस कदम से रेलवे की आमदनी में वृद्धि होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कह चुके हैं कि देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए कड़े फैसले लेने पड़ेंगे।

अब दूसरी खबर के बारे में विचार करें, तो उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने लोकलुभावन योजनाओं को बंद करने का निर्णय लोक सभा चुनावों के परिणामों के आने के बाद लिया है। पहली नजर में उत्तर प्रदेश की सपा सरकार के इस निर्णय से ऐसा लगता है कि सपा ने सत्ता प्राप्ति के लिए ही इन योजनाओं को चला रखा था। हालाँकि इस निर्णय से राज्य के खजाने पर भार कम होता दिख रहा है।

सत्ता में आते ही सपा ने प्रदेश का खजाना लोकलुभावन योजनाओं के लिए खोल दिया था। वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार ने खजाने को भरने की व्यवस्था बनानी शुरू कर दी है। इन दोनों खबरों में एकरूपता यह है कि इनसे अर्थव्यवस्था को सुधारने पर बल मिलता दिख रहा है। अब जनता को तय करना है कि पहले ही कठोर निर्णय ले लेना ठीक है या शुरुआत में लोकलुभावन घोषणाएँ करके बाद में कदम पीछे खींचना?

(देश मंथन, 21 जून 2014)

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