दिल्ली के दिल में क्या है?

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क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :

दिल्ली जीते, फिर यहाँ जीते, फिर वहाँ जीते, इधर जीते, उधर जीते, पूरब जीते, पश्चिम जीते, उत्तर जीते, लेकिन अबकी बार दिल्ली का उत्तर क्या होगा?

टेढ़ा सवाल है! अबकी बार, किसकी सरकार, किसका बंटाधार? सवाल एक नहीं, दो हैं! किसकी सरकार? किसका बंटाधार? या फिर जम्मू-कश्मीर की तरह अधर में अटकी सरकार? वैसे जम्मू-कश्मीर में सरकार क्यों अटक गयी? ऐसे तो गुत्थियाँ कई थीं। लेकिन सुनते हैं कि दिल्ली की गुत्थी ने वहाँ सब अटका दिया!

तीन पार्टियाँ, तीन चिंताएँ

दिल्ली की गुत्थी अचानक विकट गुत्थमगुत्था बन गयी है! अभी कुछ दिनों पहले तक लग रहा था कि लड़ाई एकतरफा है! हर जगह मोदी लहर झाड़ू लगा रही है। तो दिल्ली में भी वह आसानी से ‘आप’ की झाड़ू पर झाड़ू फेर देगी! लेकिन अब? दिल्ली की जंग बहुत बड़ी हो गयी है! पानीपत की लड़ाइयों जैसी भीषण, घनघोर, घमासान! और वैसे ही औचक नतीजों की सम्भावनाओं से भरी हुई!

सेनाएँ सज चुकी हैं। सेनापति चुन लिये गये हैं। केजरीवाल, किरण बेदी और अजय माकन। ‘आप’, बीजेपी और काँग्रेस। तीन पार्टियाँ, तीन चिंताएँ, तीन लक्ष्य! ‘आप’ के लिए अस्तित्व की लड़ाई, बीजेपी के लिए इज्जत की लड़ाई और काँग्रेस के लिए बची रह गयी जमीन को बचाये रख पाने की लड़ाई! और मोदी-शाह जोड़ी ने तो किरण बेदी को मैदान में उतार कर वाकई इस लड़ाई को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया है! साफ है कि वे हर कीमत पर दिल्ली का यह चुनाव जीतना चाहते हैं। और इसीलिए फिलहाल जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की कोशिशों को भी ठंडे बस्ते में रख दिया गया, क्योंकि मुफ्ती मुहम्मद सईद से समझौता करने के लिए बीजेपी को अनुच्छेद 370 और आफ्स्पा जैसे कुछ मुद्दों पर नरम होना पड़ता और यह बात दिल्ली के चुनावों में उसके गले पड़ सकती थी। इसलिए अब जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की कोशिशें 7 फरवरी के बाद ही दुबारा शुरू होंगी!

मोदी को कितने नंबर?

आखिर दिल्ली क्यों बीजेपी और खास कर मोदी-शाह जोड़ी के लिए नाक का सवाल है? दिल्ली भले ही एक छोटा-सा राज्य हो, भले ही उसे पूर्ण राज्य का दर्जा न मिला हो, लेकिन केंद्र में मोदी सरकार आने के साढ़े आठ महीने के भीतर ही अगर दिल्ली में बीजेपी हार जाती है तो उसकी बड़ी खिल्ली उड़ेगी! दिल्ली देश की राजधानी है। उसका अलग चरित्र है। यहाँ का पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग और युवा वर्ग विकास के बैरोमीटर से ही सब कुछ नापता है। मोदी के विकास के नारे पर ही यहाँ लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 70 में से 60 विधानसभा क्षेत्रों में जबर्दस्त बढ़त दर्ज की थी। विकास के मुद्दे पर ही यहाँ शीला दीक्षित पंद्रह साल तक राज कर सकीं। अब यह चुनाव बतायेगा कि विकास की परीक्षा में मोदी सरकार को दिल्ली ने कितने नंबर दिये!

इसलिए सिर्फ साढ़े आठ-नौ महीने बाद ही बीजेपी अपने पिछले 60 के आँकड़े से अगर बहुत दूर रह कर चुनाव जीत भी जाये तो भी उसकी किरकिरी तो होगी। लेकिन अगर कहीं बीजेपी कैसे भी बहुमत के आँकड़े से पीछे रह गयी तो फिर तो बंटाधार हो जायेगा! और विपक्ष, खासकर काँग्रेस को सरकार पर हमला करने और अपने आपको फिर से खड़ा करने के लिए आक्सीजन मिल जायेगी! उधर, आगे बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से बड़े महत्त्वपूर्ण राज्य हैं, जहाँ बीजेपी अपना सिक्का चलाने के सपने देख रही है। दिल्ली में नतीजे अगर चमकीले न हुए, तो इन राज्यों में बीजेपी को अपनी शक्ल निखारने में दिक्कत हो सकती है।

किरण बेदी, क्या दाँव उलटा पड़ेगा?

दिल्ली की लड़ाई में मोदी-शाह जोड़ी के लिए कई परेशानियाँ हैं। एक तो यह कि दूसरे राज्यों की तरह यहाँ मुकाबला न काँग्रेस से है, न यूपीए की किसी पार्टी से। यहाँ राष्ट्रपति शासन के रूप में केंद्र सरकार ही खुद राज कर रही थी और मुकाबले में केजरीवाल हैं, जिनके खिलाफ बीजेपी के पास ’49 दिन के भगोड़े’ और ‘अराजकतावादी केजरीवाल’ जैसी बातों को छोड़ कर कोई मुद्दा ही नहीं है। केजरीवाल का मुक़ाबला कैसे हो? बीजेपी जरूर नर्वस है। इसीलिए केजरीवाल के खिलाफ ‘ट्रम्प कार्ड’ के तौर पर मोदी-शाह जोड़ी ने किरण बेदी पर दाँव लगाया है। बीजेपी में या फिर बाकी राजनीतिक दलों में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो (याद तो नहीं पड़ता) कि पर्चे दाखिल होने का काम शुरू हो जाने के बाद कहीं से ‘संभावित मुख्यमंत्री’ को ‘आयात’ किया जाये! और फिर अब तक तो पार्टी बहुत इतराते हुए सभी राज्यों में सिर्फ मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ती रही, तो इस बार उसे बाहर से एक चेहरा लाने की जरूरत क्यों पड़ गयी? क्या मोदी लहर ढलान पर है? और अगर ऐसा है भी, तो किरण बेदी क्या पार्टी को कोई ऐसा करिश्मा दे पायेंगी, जिसकी उनसे उम्मीद की जा रही है? वे बहुत कड़क पुलिस अफसर रही हैं, राजनीति में बहुत लचीलापन चाहिए। बीजेपी में शामिल होने के बाद वे दो बार पार्टी कार्यकर्ताओं से सम्बोधित हुईं। देख कर साफ लगा कि अभी तो उन्हें बहुत सीखना है! दिल्ली बीजेपी पहले से ही गुटों में गुटगुटायी हुई है। बाहर से आयी किरण बेदी पार्टी के अंदर कितने कुलाबे जोड़ पायेंगी? और फिर सबसे आखिर में सबसे बड़ा सवाल कि क्या केजरीवाल की अपील को वे काट पायेंगी, जिसके लिए उन्हें लाया गया है? कम से कम मुझे तो अभी तक उनके पास ऐसी कोई जादुई छड़ी नहीं दिखी!

दूसरी बात यह कि बीजेपी ने तो हालाँकि किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया है, लेकिन वे ख़ुद अपने आपको उसी रूप में पेश कर रही हैं। बीजेपी सरकारों में अब तक मुख्यमंत्री संघ कैडर से होता रहा है। किरण बेदी बाहर से आयी हैं और खबर है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किये जाने पर सवाल उठा दिया है। उन्होंने यह भी जानना चाहा है कि यह किसका फैसला है? तो क्या मोदी-शाह जोड़ी ने सरकार और पार्टी के काम में संघ के दखल को कम करने की कवायद शुरू कर दी है? बहरहाल, 19 जनवरी को बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक में पता चल जायेगा कि आगे का रास्ता क्या है? क्या बीजेपी संघ की मंशा के खिलाफ जा सकती है? क्या संघ किरण बेदी के नाम पर मुहर लगाने को तैयार होगा?

केजरीवाल और ‘आप’ का बुलबुला!

और अरविंद केजरीवाल जानते हैं कि इस चुनाव में अगर वे पिट गये तो बंटाधार हो जायेगा और ‘आप’ नाम के बुलबुले की कहानी शायद खत्म ही हो जाये। इसलिए लोकसभा चुनाव हारने के बाद से केजरीवाल ने दिल्ली छोड़ कर किसी और तरफ झाँका भी नहीं। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने दिल्ली में सरकार बना कर और चला कर दिखा दी, तो ‘आप’ देश में एक नये राजनीतिक विकल्प के तौर पर उभर सकती है। ‘भगोड़ा’ और ‘अराजक’ छवि की तरफ वे फिर कभी नहीं लौटना चाहते। इसीलिए उनकी आम आदमी पार्टी ने अब अपनी शैली पूरी तरह बदल ली है। वह अब धरने और आंदोलनों के बोल नहीं बोलती। भाषा भी संयत हो गयी है। उसने राजनीतिक दलों के सारे तौर-तरीके भी सीख लिये हैं। पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती अपनी ‘इमेज’ और अपना ‘परसेप्शन’ बदलने की है कि उसे एक ‘जिम्मेदार राजनीतिक दल’ माना जाये। इसके लिए उन्होंने काफी कड़ी मेहनत भी की है और यह सच है कि पिछले दो महीनों में पार्टी को इसमें बड़ी सफलता भी मिली है। उसके बारे में लोगों की राय भी सुधरी है, लेकिन कहाँ तक, यह 7 फरवरी को ही पता चलेगा। बहरहाल, अगर ‘आप’ अपनी 28 सीटों का पुराना आँकड़ा भी छू ले तो भी यह उसकी उपलब्धि ही होगी!

काँग्रेस : आठ के ऊपर या नीचे?

और लोकसभा चुनावों में हार के बाद काँग्रेस में पहली बार ‘कुछ कर दिखाने’ की अकुलाहट दिख रही है। पिछली विधानसभा में काँग्रेस को आठ सीटें मिली थीं। उसकी लड़ाई फिलहाल तो यही है कि उसका आँकड़ा इससे नीचे कतई न जाये। वह पूरा जोर लगा रही है कि अपनी सीटों की संख्या वह कम से कम दहाई के पार तो ले जाये। इसलिए बड़े-बड़े दिग्गजों को मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है। अब देखते हैं कि दिल्ली के दिल में क्या है? और पानीपत जैसी इस लड़ाई में कौन जीतता है या कोई भी नहीं जीतता है? (Raagdesh.com)

(देश मंथन, 15 जनवरी 2015)

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