प्रियभांशु रंजन, पत्रकार :
खबर आयी है कि दिल्ली पुलिस ने आम आदमी पार्टी के एक रेडियो विज्ञापन पर पाबंदी लगा दी है। दिल्ली पुलिस की दलील है कि ‘आप’ के विज्ञापन से उसकी “छवि को नुकसान पहुँचा” है।
लिहाजा, उसने सभी एफएम रेडियो चैनलों से ‘आप’ के विज्ञापन पर पाबंदी लगाने को कहा है। अब सवाल पैदा होता है कि किसी विज्ञापन या किसी खबर से यदि पुलिस की “छवि धूमिल हुई” तो उस पर पाबंदी लगाने का हक उसे किसने दिया?
कानूनी भाषा में यदि मान भी लें कि दिल्ली पुलिस पीडि़त पक्ष (Aggrieved Party) है, तो क्या पीडि़त पक्ष को खुद ही कोई फैसला सुनाने का हक है? यदि पुलिस को किसी विज्ञापन से इतनी ही तकलीफ थी, तो उसे अदालत में चुनौती देना चाहिए था। अदालत से दरख्वास्त करनी चाहिए थी कि वह ‘आप’ के रेडियो जिंगल पर पाबंदी लगाये।
अगर किसी अखबार या समाचार चैनल की खबर से दिल्ली पुलिस की छवि धूमिल होगी, तो क्या वह उन पर भी पाबंदी लगा देगी? क्या अखबार, चैनल या रेडियो स्टेशन सिर्फ ऐसी ही खबरें या विज्ञापन दिखा सकते हैं, जिनमें पुलिस की तारीफ के पुल बांधे गये हों?
इस मामले में यह भी पता चला कि अब दिल्ली पुलिस यह पता लगाने में जुटी है कि ‘आप’ ने अपने विज्ञापन में जिस लड़की की तकलीफ दिखायी है, क्या वाकई उस लडकी के साथ ऐसी कोई घटना हुई थी जैसा विज्ञापन में बताया जा रहा था।
जरा सोचिए, क्या किसी विज्ञापन में जो पात्र दिखाये जाते हैं वे सच होते हैं? यदि किसी टूथपेस्ट के विज्ञापन में किसी के दांत में कोई खराबी दिखायी जायेगी तो क्या अब यह पता लगाया जायेगा कि उस शख्स के दांत में वाकई कोई खराबी थी या नहीं?
‘आप’ को दिल्ली पुलिस के इस फैसले को अदालत में चुनौती देनी चाहिए। सभी रेडियो स्टेशनों को पुलिस के आदेशों को मानने से इन्कार कर उक्त विज्ञापन चलाने चाहिए, क्योंकि दिल्ली पुलिस का आदेश भारतीय संविधान के तहत देश के नागरिकों को दी गयी ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के खिलाफ है।
और हाँ, दिल्ली पुलिस को लोगों की तकलीफें दूर करने पर ध्यान देना चाहिए। वैसे भी उसकी छवि कोई ‘दूध की धुली’ नहीं है!