रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :
बनारस इस चुनाव का मनोरंजन केंद्र बन गया है। बनारस से ऐसा क्या नतीजा आने वाला है जिसे लेकर कृत्रिम उत्सुकता पैदा की जा रही है।
यहाँ का चुनाव इस कदर सांकेतिक हो गया है कि मोदी विरोध नकली लगने लगा है। ऐसा लगता है कि कोई रस्म अदा करनी है जिसके लिए बनारस जाना है। मोदी को हराने बनारस जाना है। मोदी विरोधी कार्यकर्ता उस कर्मकांड को पूरा करने का भ्रम पाल चुके हैं जिसे बनारस में कोई गंभीरता से नहीं लेता।
क्या मोदी सिर्फ बनारस में लड़ रहे हैं? क्या इसी एक सीट से सरकार का फैसला होने जा रहा है। करीब चार सौ सीटों पर बीजेपी लड़ रही है। क्या वहाँ मोदी नहीं हैं। मोदी ने खुद से लड़ने के लिए साल भर का मौका दिया। वो सितम्बर से अभियान पर हैं। सैंकड़ों रैलियाँ कर चुके हैं। विरोधियों के पास इतना लंबा वक्त था। मोदी ने प्रोपैगैंडा किया तो वे क्या कर रहे थे। उन्हें किसने रोका था जनता के बीच जाकर बताने के लिए। क्या वे गये। मोदी जीत के लिए नये नये गठबंधन बना रहे हैं और विरोधी आपस में लड़ने के लिए बेताब हैं। मोदी का लक्ष्य साफ है मगर विरोधी को पता नहीं कि पहले मोदी से लड़े या सपा से सीपीएम से या बसपा से या किसी से। विरोधी आपस में लड़ते हुए मोदी से लड़ने का स्वाँग रचा रहे हैं। क्या लेफ्ट के लिए सोशल मीडिया नहीं बना है। मोदी का विरोध करने वाले सोये रहे। युवाओं को शुरू से ही नकारा बताने लगे। उनसे संवाद का प्रयास नहीं किया। अपने इसी आलस्य पर पर्दा डालने के लिए सब बनारस जा रहे हैं। कान खुजाते हुए ताल नहीं ठोकी जाती। सब लस्सी पीकर और पान खाकर चले आयेंगे।
जाहिर है मोदी विरोधियों के पास ठोस एजेंडा है नहीं। कम से कम मोदी कर तो रहे हैं कि मुझे मौका दो मैं ये कर दूँगा या वो कर दूँगा। विपक्ष से कौन कह रहा है कि मुझे मौका दो मैं मोदी से भी बेहतर कर दूँगा। विरोधियों को सुनकर जनता किसे चुनें। आप ग़ौर से देखिये मोदी से कोई लड़ ही नहीं रहा। कोई सरकार बनाने का दावा भी नहीं कर रहा है। उनके खेमे में कोई स्पष्टता या रणनीति नहीं है। विरोधी खुद को नहीं जनता को धोखा दे रहे हैं।
मान लीजिये मोदी बनारस से हार गये और उनकी पार्टी को बहुमत या करीब करीब मिल गया। आप नतीजों के दिन कवरेज और अगले दिन अखबारों के पन्नों की कल्पना कीजिये। जो शख्स जीत कर शपथ लेने जा रहा होगा उससे जुड़ी खबरें होंगी या उस एक सीट की खबर होगी जहाँ हार कर भी वह शपथ लेगा। बनारस की हार को दो लाइन जगह नहीं मिलेगी। हफ्ते भर बाद कहीं विश्लेषण छप जायेगा। फिर बनारस की लड़ाई का क्या महत्व है। विरोध के नाम पर विरोध पर्यटन होने लगा है।
इसलिए बनारस का महत्व उसी तरह और उतना ही सांकेतिक है जितना विरोधियों को राजनाथ सिंह सुषमा स्वराज और मुरली मनोहर जोशी से उम्मीद है। विरोधियों में इतनी ईमानदारी तो होनी चाहिए कि वे कह दें कि मोदी नहीं जीते बल्कि हम ही नहीं लड़े। हम चाहते थे कि मोदी जीत जायें और विरोध भी दर्ज हो जाये। मोदी विरोधी अस्पष्टता के शिकार हैं। वे हास्यास्पद हो चुके हैं। इतनी मेहनत अगर वे अन्य सीटों पर करते तो नतीजा बदल सकता था। इन्हें इतनी चिंता थी तो क्यों नहीं ये लोग दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश के इलाकों में गये जहाँ समाजवादी और भाजपा के नेता आग उगल रहे थे। अमित शाह की जुबान को लेकर हमले हो रहे हैं लेकिन कोई आजम खान को लेकर समाजवादी पार्टी को क्यों नहीं घेरता।
इसलिए जो लड़ नहीं रहे थे वे बनारस जा रहे हैं ताकि दिखा सकें कि हम भी मोदी से लड़े थे। बनारस में सब हैं। हम भी हैं। बनारस हिन्दू विश्विद्यालय गया था। खूब बहस हुई छात्रों के बीच मजा आ गया। इस बात को लेकर नहीं कि मोदी जीतेंगे या नहीं बल्कि पूरे देश के मुद्दों को लेकर। शानदार कैम्पस है। लड़के लड़कियाँ भी सजग सतर्क। अच्छा लगा कि दिल्ली मुंबई के बाहर भी कुछ अच्छा है। कैम्पस के गलियारे चमक रहे हैं। कैंटीन लगता है किसी कारपोरेट का जलपान गृह है। चाय अच्छी लगी और कटलेट भी। देवी जी से मिला। वहाँ से लौटा तो कैम्पस में ही कोई नेता जी मिलने आ गये। दही लेकर। बेजोड़ दही। क वहाँ से घाट पर गया तो सीढ़ियों पर मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के कुछ कार्यकर्ता मिले। घाट पर उच्च स्तरीय नींबू की चाय पी गयी। झटा झट फोटू खींच लिया गया। फेसबुक पर शेयर हो चुका होगा! तभी बीजेपी प्रवक्ता नलिन कोहली का फोन आ गया। तब तक अस्सी से पैदल चलकर दशाश्वमेघ घाट जाने का मूड बन चुका था। नाव ली गयी और घाट पर गंगा की आरती की दिव्यता में समाहित हो गया। बनारस हो गया। इस पर बाद में लिखूँगा।
(देश मंथन, 18 अप्रैल 2014)