पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आजतक :
2014 के आम चुनाव में उतने ही नये युवा वोटर जुड़ गये हैं, जितने वोटरों ने देश के पहले आम चुनाव में वोट डाला था।
यानी 1952 का हिंदुस्तान बीते पाँच बरस में वोट डालने के लिये खड़ा हो चुका है। 2014 में 2009 की तुलना में करीब साढ़े दस करोड नये वोटर वोट डालेंगे। और 1952 के आम चुनाव में कुल वोट ही 10 करोड 59 हजार पड़े थे। जाहिर है पहली नजर में लग सकता है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश का विस्तार बीते छह दशक में कुछ इस तरह हुआ है, जिसमें आजादी के बाद छह नये हिंदुस्तान समा गये हैं। क्योंकि 1952 में कुल वोटरों की तादाद महज 17 करोड 32 लाख 12 हजार 343 थी। वहीं 2014 में वोटरों की तादाद 81 करोड़ पार कर गयी है। जाहिर है इतने वोटरों के वोट से चुनी हुई कोई भी सरकार हो, उसे पाँच बरस तक राज करने का मौका मिलता है और अपने राज में वह कोई भी निर्णय लेती है तो उसे सही माना जाता है। इतना ही नहीं सरकार अगर गलत निर्णय लेती है और विपक्ष विरोध करता है तो भी सरकार यह कहने से नहीं चूकती कि जनता ने उन्हें चुना है। अगर जनता को गलत लगेगा तो वह अगले चुनाव में बदल देगी। लोकतंत्र के इसी मिजाज को भारतीय संसदीय राजनीति की खूबसूरती मानी जाती है।
लेकिन लोकतंत्र के इसी मिजाज में अगर यह कहकर सेंध लगा दी जाये कि वोट डालने वाले लोग की बड़ी तादाद फर्जी होते हैं। या फिर जो पूरी मशक्कत चुनाव आयोग वोटर लिस्ट को तैयार करने में पाँच बरस तक लगाता है उसी चुनाव आयोग के मातहत काम करने वाले बूथ लेवल अधिकारी (बीएलओ) फर्जी वोटर कार्ड बनवाने से लेकर फर्जी वोट डाले कैसे जायें-इसके उपाय बताने में लग जाता है, तो लोकतंत्र का अलोकतांत्रिक चेहरा ही सामने आयेगा। नियम के मुताबिक देखें तो किसी भी वोटर के लिये वोटर आईकार्ड बनवाने के लिये पहचान पत्र और निवास का पता जरूर चाहिये। लेकिन दिल्ली-एनसीआर (नोएड़ा, गाजियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद) में राष्ट्रीय न्यूज चैनल आजतक के स्टिंग आपरेशन के जरिये जो तथ्य उभरे उसने लोकतंत्र के पर्व को ही दागदार दिखा दिया। चुनाव आयोग की माने तो फ्री और फेयर चुनाव के लिये वोटर लिस्ट का सही होना सबसे जरूरी है। और इसमें सबसे बड़ी भूमिका बीएलओ यानी बूथ लेबल अधिकारी की ही होती है। जिसके हिस्से में में एक या दो पोलिग बूथ आते हैं। और बीएलओ चूकि स्थानीय सरकारी कर्मचारी होता है, तो वोटर लिस्ट तैयार करने में उसे इलाके के लोगों का फ्रेंड, फिलास्फर और गाइड माना जाता है। लेकिन यही बीएलओ अगर रुपये लेकर फर्जी वोटर कार्ड बनाने में जुट जाये। फर्जी वोट डालने वालो को बताने लगे कि कैसे वोट डालने के बाद्गुली पर लगी स्यायी को कैसे मिटाया जा सकता है। नीबू या पपीते के दूध से। या फिर जिस कैमिकल से मिटाया जा सकता है, वह कहाँ मिलता है, तो पहली सवाल यह उठ सकता है कि यह तो कमोवेश हर क्षेत्र में होता है लेकिन इसके जरिये चुनावी लोकतंत्र पर कैसे अंगुली उठायी जाये।
तो यहाँ से एक दूसरी परिस्थितियाँ सामने आये कि दिल्ली के गांधीनगर इलाके में बने वोटर कार्ड के फार्म में निवास के पते पर बेघर लिखकर भी वोटर आईकार्ड बन जाता है। और 30 हजार से ज्यादा आईकार्ड ऐसे भी है जो एक ही व्यक्ति के नाम से दर्जन भर वोटर कार्ड बने हुये हैं। इतना ही नहीं थोक में फर्जी वोटर कार्ड बनाकर चुनाव के वक्त वोट डलवाने के ठेकेदार भी एन चुनाव के वक्त प्रत्याशियों के दरवाजे को खटखटाने को तैयार हैं। जो ज्यादा पैसा बहायेगा उसे वोट डलवाने की जिम्मेदारी भी यह ठेकेदार ले लेते हैं। और इन सबसे एक कदम और आगे वाली स्थिति यह है कि जिस प्राइवेट कंपनी को वोटर आईकार्ड लेमिनेशन का ठेका मिलता है वह भी वोटरों के सौदागरो से सीधे धंधा करने को तैयार है। यानी जितने वोटआईकार्ड चाहिये मिल जायेंगे। सिर्फ तस्वीरें देनी हैं। फर्जी वोटर की फर्जी तस्वीर कई एंगल से ले कर एक ही फर्जी वोटर के हवाले कई वोटर आईकोर्ड दिये जा सकते हैं। और चूंकि इस बार चुनाव भी नौ फेज में हो रहे हैं। यहाँ तक की बिहार और यूपी में तो अलग-अलग क्षेत्रों में हर हफ्ते वोट डाले जायेंगे। तो अंगुली के निशान मिटाने का वक्त भी है और फर्जी वोट डालने के लिये राज्य से बाहर जाना ही नहीं है। मुश्किल यह नहीं है कि चुनाव आयोग इस पर रोक नहीं लगा सकता या राजनेता इससे परेशान हैं। और सवाल यह भी नहीं है कि देश भर में फर्जी वोटरों को लेकर देश का कोई भी आम वोटर अनभिज्ञ हो। लेकिन पहली बार 2014 के चुनाव में फर्जी वोटरों की तादाद को लेकर जो नयी परिस्तितियाँ सामने आयी हैं, वह डराने वाली हैं। क्योंकि 2009 की तुलना में 11 करोड़ नये वोटर इस बार वोट डालने के लिये तैयार है। और देश में सरकारे कितने वोट से बन जाती है यह 2009 की यूपीए सरकार को ही देख कर समझा जा सकता है। 2009 में कांग्रेस को सिर्फ साढ़े ग्यारह करोड़ वोट मिले थे। वही बीजेपी को साढ़े आठ करोड़ वोट मिले थे। देश के दर्जन भर क्षत्रपो में सवा करोड़ से ज्यादा वोट पाने वाला कोई नहीं था। अब जरा कल्पना कीजिये कि जो ग्यारह करोड़ नये वोटर इस बार वोट डालने के लिये तैयार है उसमें कितनी फर्जी हो सकते हैं।
अगर दिल्ली और एनसीआर को ही देश में बने वोटर आईकार्ड का आधार बनाया जाये तो मौजूदा वक्त में 25% वोटर आईकार्ड फर्जी हो सकते है। दिल्ली के मतदाता जागरुक मंच के अध्यक्ष ओ पी कटारिया की माने तो फर्जी वोटरो की तादाद 40% तक हो सकती है। और मौजूदा हालात में चुने हुये नुमान्दे ही दुबारा भी चुने जाये इसके लिये शुरू से ही भिड़े रहते है। यानी सरकार की नीतिया या किसी राजनेता की जनता के बीच कैसी भागेदारी है यह मायने नहीं रखता बल्कि कैसे फर्जी वोटर और फर्जी आईकार्ड की व्यवस्था हो जाये। इसी पर सारा श्रम लगता है। हरियाणा सरकार के मंत्री सुखबीर कटारिया के खिलाफ चुनाव आयोग की पहल ने दो सवाल पैदा कर दिये है। पहला अगर वोट की तादाद ही चुनाव में जीत हार तय करती है तो फिर फर्जी वोट के जुगाड के तरीके पैदा करना ही राजनेता का असल काम हो चला है। और दूसरा, चुनाव आयोग जिस जमीनी स्तर पर वोटर कार्ड के लिये निचले लेबल के दिकारियो को लगाता है उन्हे खरीदने से लेकर ऊपर तक के अधिकारी अगर मंत्रियों और पार्टियों के लिये काम करने लगे तो फिर चुनाव का मतलब होगा क्या। ये दोनों सवाल हरियाणा के मंत्री सुखबीर कटारिया के खिलाफ मामला दर्ज होने से उभरा है। क्योंकि बीएलओ हो या ईआरओ (इलेक्ट्रोल रजिस्ट्रेशन आफिसर) दोनों की भूमिका ही फर्जी वोटरआई कार्ड बनवाने में खुकर सामने आयी है। और दागी नेताओं की नयी भागेदारी फर्जी वोटर के जरीये चुनाव जीतने के भी सामने आये है। महत्वपूर्ण यह भी है कि फर्जी वोटर आईकार्ड की शिकायत पर चुनाव आयोग ने तेजी से काम भी किया है। और देश भर में फर्जी वोटर आईकार्ड को खारिज करने की तादाद भी बीते पांच बरस में एक करोड से ज्यादा की है। लेकिन नया सवाल यह उभरा है कि फर्जी वोटर की शिकायत के बाद जिन वोटरआई कार्ड को चुनाव आयोग ने खारिज करने का निर्देश दिया उसे रद्द करने भी वही अधिकारी काम पर लगे जो फर्जी कार्ड बनाने में लगे है। आम वोटरो की शिकायत जो इसी दौर में सामने आयी है वह भी चौकाने वाली है क्योंकि वोटर आईकार्ड होने के बावजूद सही वोटरों के नाम भी उनके अपने ही क्षेत्र से इसी दौर में गायब हो गया। वैसे एक सच यह भी है जमीनी स्तर पर या कहे पहले स्तर पर जिन बीएलओ को वोटर आईकार्ड बनवाने के लिये काम पर लगाया जाता है उन्हे एक वर्ष में तीन हजार रुपये मिलते हैं। और प्रति फोटो कार्ड के चार रुपये। अब जरा कल्पना कीजिये जिस लोकतंत्र के नाम पर देश में सरकारे बदलती है। या कहे सत्ता मिलने के बाद करोडों-अरबो के वारे न्यारे नीतियों के नाम पर होते हो वहाँ वोट खरीदने या फर्जी वोटर की कीमत कोई भी सत्ता में आने के लिये क्या कुछ नहीं करेगा। फिर मौजूदा वक्त में देश में जब राजनीतिक तौर पर भ्रष्टाचार मुद्दा हो। भ्रष्टाचार के दायरे में केंद्रीय मंत्री से लेकर नौकरशाह और कार्पोरेट से लेकर मीडिया का एक वर्ग भी आ रहा हो। तो सवाल यही है कि जिस चुनाव के जरिये देश में सत्ता बनती बिगडती हो जब उसी चुनावी तंत्र में घुन लग गयी हो तो उसे सुधारने का रास्ता होगा क्या। क्या सिर्फ चुनाव आयोग की कड़ाई से हालात सुधर जायेंगे या फिर भ्रष्ट होते संस्थानों को कानूनी दायरे में कडाई बरतने भर से सुधार आ जायेगा। या कहे नेता सुधार जाये या सत्ता ईमानदार हो जाये तो हालात ठीक हो जायेंगे। दरअसल मुश्किल यही है कि देश में समूचा संघर्ष सत्ता पाने के लिये ही हो रही है और राजनीतिक सत्ता को ही हर व्यवस्था में सुधार का आधार माना जा रहा है।
यानी समाज लोभी है और लोभी समाज को ठीक करने की जगह जब राजनीतिक सत्ता से ही समाज को हांकने का खेल खेला जा रहा हो तो फिर दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र पर दाग लगने से बचायेगा कौन यह अभी तो अबूझ पहेली है। क्योकि देश तो 2014 के आम चुनाव में ही लोकतंत्र का पर्व मनाने निकल पड़ा है। जहाँ चुनाव आयोग 3500 करोड़ खर्च करेगा। और तमाम राजनीतिक दल 30,500 करोड़। और यह कल्पना के परे है कि फर्जी वोटर के तंत्र पर कितना कौन खर्च कर रहा है या करेगा।
(देश मंथन, 03 अप्रैल 2014)