नरेंद्र तनेजा, वरिष्ठ पत्रकार
राहुल गांधी को भले ही हाल में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में हुए एआईसीसी के सत्र में कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न किया गया हो, लेकिन यह तय हो गया कि वे ही कांग्रेस की कॉकपिट में बैठेंगे।
मेरे विचार से उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करने की मुख्य वजह यह थी कि कांग्रेस चुनाव को राहुल गांधी पर केंद्रित नहीं कराना चाहती थी। अगर चुनाव राहुल गांधी पर केंद्रित हो जाता तो उससे नरेंद्र मोदी को ज्यादा फायदा होता। अब नरेंद्र मोदी को सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और राहुल गांधी तीनों पर निशाना साधना पड़ेगा। साथ में उन्हें चिदंबरम और कपिल सिब्बल को भी निशाना बनाना पड़ेगा। इससे उनकी ऊर्जा अलग-अलग व्यक्तियों के विरुद्ध बँट जायेगी। पहले उनका काम एक तीर से चल जाता, अब उन्हें कई तीर चलाने पड़ेंगे।
इंदिरा और राजीव की सोच का मिश्रण
कांग्रेस पार्टी की देश में स्थिति अच्छी नहीं है। हाल में जो विधानसभा चुनाव हुए, उनमें भी उसकी स्थिति अच्छी नहीं रही। उसके बावजूद कांग्रेस ने अपनी राह नहीं छोड़ी है। उसकी इस राह में समावेशी विकास (इन्क्लूसिव ग्रोथ), सौगात और खैरात बाँटना, गरीब तबके और खास कर ग्रामीण गरीबों पर ज्यादा ध्यान देना शामिल है। साथ ही इसमें जाति-समुदायों का खेल बड़ा महत्वपूर्ण होता है। इसी तर्ज पर उन्होंने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का फैसला किया।
यह उसकी मध्य से कुछ बायें (लेफ्ट ऑफ दी सेंटर) वाली पुरानी राह है। उसके सारे फैसले, चाहे एलपीजी सिलिंडरों की संख्या को 12 करना हो, इसी राह पर हैं। बीच में कांग्रेस ने नरसिंह राव के समय और फिर यूपीए-1 में भी यह राह काफी बदल ली थी। राहुल कांग्रेस को उसकी पारंपरिक राह पर वापस लेकर आये हैं। तालकटोरा स्टेडियम में राहुल गांधी के भाषण में कहीं पर मुझे इंदिरा गांधी की झलक दिखती थी तो कहीं पर राजीव गांधी की। इसमें इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सोच का मिश्रण था। इसी राजनीतिक स्थान को आम आदमी पार्टी भी कहीं-न-कहीं हासिल करने की कोशिश कर रही है।
कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि वह सत्ता में नहीं लौट रही है। कांग्रेस का खेल इस समय बिल्कुल स्पष्ट है। उसकी नजर 2016 पर है। इस चुनाव में उसकी हार के बीच भी राहुल गांधी नेतृत्व करेंगे और यह उनके लिए एक बड़ा अनुभव होगा। इसी दौरान पार्टी के संगठन की कमान राहुल को सौंप दी जायेगी।
राहुल गांधी के ही हाथों में होगी कमान
साल 2014 के चुनाव में राहुल गांधी कांग्रेस के मुख्य प्रचारक होंगे। तालकटोरा में उनका जो भाषण सुनने को मिला, वह उसी का ट्रेलर था। अब उनके भाषण ऐसे ही होंगे। मुख्य फिल्म में भी ऐसी ही भाषा होगी, जिसमें गंजे को हेयर-कट जैसे जुमले होंगे।
अगर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाता तो यह हार उनकी ही मानी जाती। लेकिन अब अगर 2014 में कांग्रेस हारेगी तो कहा जायेगा कि हार पार्टी की हुई है। लेकिन चूँकि राहुल गांधी को चुनाव समिति का मुखिया बना दिया गया है, इसलिए स्थिति में थोड़ा फर्क है। इस बार वे हार की जिम्मेदारी से पूरी तरह बच नहीं सकेंगे। कुछ जिम्मेदारी उन पर भी आयेगी।
कांग्रेस को पता है कि वह चुनाव जीतने वाली नहीं है, इसलिए अभी उसकी रणनीति यह है कि हार सम्मानजनक ढंग से हो। कांग्रेस का प्रयास है कि उसकी सीटों की संख्या 100-120 से नीचे न चली जाये और भाजपा 180 से ऊपर नहीं जा सके। इसके बाद उनकी कोशिश रहेगी कि आम आदमी पार्टी 20-30 सीटें ले कर आ जाये, जिससे एक खिचड़ी सरकार बने। वो खिचड़ी इतनी खराब हो कि लोग उससे त्रस्त हो जायें, फिर 2016 में दोबारा चुनाव हों।
अगर नरेंद्र मोदी भाजपा को 180 से ज्यादा सीटें नहीं दिला पाते तो भाजपा में नेतृत्व को लेकर मतभेद हो जायेगा। वैसी स्थिति में 2016 की भाजपा आज की तुलना में अलग ढंग की हो सकती है। कांग्रेस को लगता है कि उस समय राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का सही वक्त होगा।
कांग्रेस सोचती है कि उसने मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कानून जैसे जो कानून बनाये हैं, उनका असर लंबे समय तक रहेगा और उनके फायदे कहीं जाने वाले नहीं हैं। उन्हें लगता है कि इन सब चीजों के फायदे लोगों को 2-3 साल में पता चलने लगेंगे।
कांग्रेस को डर इस बात का है कि भाजपा को 190-200 सीटों से ज्यादा मिलने पर मोदी प्रधानमंत्री बन जायेंगे और तमाम क्षेत्रीय दल उन्हें समर्थन दे सकते हैं। मुझे लगता है कि मोदी को सरकार बनाने में नवीन पटनायक, जयललिता और शरद पवार जैसे नेता भी मदद कर सकते हैं। उमर अब्दुल्ला भी साथ आ सकते हैं। शिवसेना और अकाली दल जैसे दल तो एनडीए में साथ हैं ही। कांग्रेस को डर है कि एक बार प्रधानमंत्री बनने पर नरेंद्र मोदी 10 साल तक तो हिलेंगे नहीं। इसीलिए अभी कांग्रेस की मुख्य प्राथमिकता भाजपा को रोकना नहीं, मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकना है।
मोदी ने पेश किया कच्चा खाका
नरेंद्र मोदी का भाषण इस तर्ज पर था कि देश और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाना है, रोजगार पैदा करने हैं, नये शहर बनाने हैं, रेलवे को सुधारना है। यह भाजपा के चुनावी घोषणापत्र का कच्चा खाका था। नरेंद्र मोदी ने अपना जो आर्थिक दर्शन सामने रखा, उसमें कोई एकदम नयी चीज नहीं थी। लेकिन बहुत समय बाद देश के किसी बड़े नेता ने ऐसी बातें कही हैं। सालों से लोगों को यही सुनाई दे रहा था कि यह घोटाला हो गया, वह स्कैंडल हो गया। भविष्य का भारत कैसा हो, उसकी तो कोई बात ही नहीं कर रहा था। बस सांप्रदायिकता और घोटाले की बातें हो रही थीं।
काफी समय के बाद किसी बड़े नेता ने आ कर ऐसी बातें कही हैं, जैसी बातें किसी समय राजीव गांधी कहा करते थे। इसमें कोई एकदम नयी सोच नहीं थी, सब कुछ पारंपरिक सोच ही थी। लेकिन पहली बार किसी ने आ कर यह तो कहा कि देश में 100 स्मार्ट शहर बनने चाहिए, हर राज्य में आईआईएम बनने चाहिए।
मोदी के भाषण को सुनते समय मेरे जेहन में यह सवाल जरूर आया कि इन सबके लिए संसाधन कहाँ से आयेंगे? इस बारे में कोई चर्चा नहीं की गयी। इसके लिए क्या ये संसाधन स्वदेशी होंगे या विदेशी पूँजी लायी जायेगी या वह पूँजी विनिवेश से आयेगी? देश के अंदर खुद पूँजी-निर्माण करना चाहें तो वह काफी लंबी प्रक्रिया है। उसमें तो 20 साल लग जायेंगे। अभी इन सबके लिए पैसे कैसे आयेंगे? आज सबसे बड़ी चुनौती मानव संसाधन का विकास करना भी है। यह चुनौती पूँजी लाने से भी ज्यादा बड़ी है।
मोदी ने यह भी नहीं बताया कि इन सारी योजनाओं पर अमल केंद्र सरकार करेगी या राज्य सरकारें? आखिर केंद्र तो नये शहर बना नहीं सकता, यह काम राज्य सरकार ही कर सकती है। मान लीजिए कहीं कांग्रेस की राज्य सरकारें या मुलायम सिंह आपसे सहयोग नहीं करें, तो फिर आप इस योजना को कैसे आगे बढ़ायेंगे? इस पर अमल के लिए आप राज्यों के ऊपर निर्भर हैं।
उन्होंने कहा कि वे कर ढाँचे में सुधार लायेंगे। यह भी एक अच्छा विचार है। लेकिन ये सारी बातें पारंपरिक थीं। इसके बावजूद ये बातें इसलिए अच्छी थीं कि किसी ने एक खाका पेश तो किया। दूसरी तरफ उसी समय राहुल गांधी ने जो खाका पेश किया, जो एक तरह उनके आगामी घोषणा-पत्र का कच्चा खाका था, उसमें कहीं भी विकास की बात नहीं थी। उसमें विकास की बात जातीय आधार पर थी, सौगातों के रूप में थी। दोनों में बहुत फर्क था।
मोदी ने जितनी बातें कहीं, उन पर अमल करना बहुत मुश्किल नहीं है। भारत में 100 नये शहर बनाना बिल्कुल संभव है। अगर आधे राज्य भी इसके लिए तैयार हो जायें तो आप न्यू जयपुर बना दें, न्यू जोधपुर बना दें, न्यू इंदौर बना दें। आप राज्य सरकारों से कहें कि हम हर नये शहर के लिए 200 करोड़ रुपये देंगे, और ये नये शहर बन जायेंगे। केंद्र चाहे तो ऐसी योजना भी बन सकती है जिसमें उसका एक पैसा भी न लगे। आखिर इसके लिए जमीन ही तो बेचनी होती है।
रेलवे नेटवर्क में सारे बड़े शहरों को जोड़ने की जो योजना है, उस पर 15 सालों से बात चल रही है। आज भी जापान के साथ भारत की बातचीत चल रही है और जापान इसमें सहयोग के लिए तैयार दिखता है। कर ढाँचा सरल करने में भी कोई बड़ी बाधा नहीं है। हर राज्य में आईआईटी और आईआईएम बनाने में भला कितना निवेश होता है? एक आईआईएम 100 करोड़ रुपये में और एक आईआईटी 200 करोड़ रुपये में बन सकता है। आप इन्हें निजी क्षेत्र के साथ मिल कर भी बना सकते हैं और राज्य सरकारें जमीन दे सकती हैं। आज भारत की अर्थव्यवस्था 2000 अरब डॉलर की है। इस आकार की अर्थव्यवस्था में ये योजनाएँ आसानी से अमल में लायी जा सकती हैं।
कहाँ से आयेंगे संसाधन?
मेरी तो निराशा यह थी कि उन्होंने जितनी बातें कहीं वे मेरी उम्मीदों की तुलना में आधी भी नहीं थीं। मैं इस बात से निराश था कि कितने रोजगार पैदा किये जायेंगे, किस तरह से किये जायेंगे, महिलाओं के रोजगार को कैसे बढ़ाया जाये, इन सबका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया। उन्होंने यह नहीं बताया कि किस तरह उद्यमिता को बढ़ावा दिया जायेगा। उन्होंने यह नहीं बताया कि 60-62 साल की उम्र में जो लोग सेवानिवृत हो जाते हैं और जिनके अंदर उसके बाद भी 10-15 सालों तक काम करने की क्षमता होती है, उनका किस तरह से राष्ट्र निर्माण के लिए उपयोग किया जायेगा। उन्होंने यह नहीं बताया कि पक्षपाती पूँजीवाद से निपटने के लिए वे क्या करेंगे?
जिस तरह के कार्यक्रमों की चर्चा राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी करते हैं, उन सब के लिए भारी मात्रा में पूँजी और मानव संसाधन की जरूरत है। वह तभी मिल सकता है, जब अर्थव्यवस्था का विस्तार हो। उस विस्तार के लिए मुझे राहुल गांधी की तुलना में नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम में ज्यादा जान नजर आती है। राहुल गांधी इस बात की चर्चा ज्यादा कर रहे हैं कि गरीबों को किस हिसाब से वितरण होगा। नरेंद्र मोदी इसकी चर्चा कर रहे हैं कि हम ज्यादा संपदा का निर्माण कैसे करेंगे। लेकिन नरेंद्र मोदी ने कोई एकदम अभिनव कार्यक्रम सामने रखा, तो ऐसा मुझे नहीं लगा।
मगर किसी भूखे व्यक्ति को खिचड़ी भी खीर नजर आती है। हमारे देश में जो भी विकास के समर्थक और आकांक्षाएँ रखने वाले लोग हैं, युवा हैं, वे तीन साल से ऐसी बातें सुनने के लिए आतुर थे। देश का एजेंडा पटरी से उतर चुका था। नरेंद्र मोदी ने लंबे-चौड़े वादे नहीं किये हैं, लेकिन उन्होंने जो भी कहा है वह जनता को पसंद आ रहा है।