कनक तिवारी, राजनीतिक विश्लेषक :
आसन्न लोकसभा चुनाव में भाजपाई सेंसेक्स उछाल पर है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए संघ परिवार ने कई गुणात्मक परिवर्तन कर अपने ही सिद्धांतों से छुट्टी कर ली है।
इस वक्त संघ निर्देशित राजनीतिक फिल्म के मुख्य किरदार मोदी हैं। संघ का राजनीति में हस्तक्षेप आलोच्य नहीं है। सबको राजनीति में हस्तक्षेप का संवैधानिक अधिकार है। सत्तापरिवर्तन की संभावना सूंघकर आडवाणी, जसवंत सिंह, मुरलीमनोहर जोशी, लालजी टंडन और लालमुनि चौबे सहित कई वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर दिया गया। संघ के चलते भाजपा में एकल नेतृत्व कभी विकसित नहीं हुआ। पहली बार मोदी का कमलमुख संगठन की डंठल के ऊपर कर दिया गया है। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इन्दिरा इज इंडिया’ का बेहूदा खुशामदी नारा आपातकाल में लगाया था। वह इन्दिरा गांधी, कांग्रेस और बरुआ को ले डूबा। मोदी का राजसी अहंकार अगर संगठन के मुकाबले ज्यादा तरजीह पाता दिखेगा तो उसे भी शुभ लोकतांत्रिक लक्षण नहीं कहा जा सकता।
गांधी की हत्या से लेकर लगातार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राजनीतिक संगठन होने से खुला इंकार किया है। 1977 में जनता पार्टी की सरकार में दोहरी सदस्यता को लेकर पूर्व जनसंघ के सदस्यों पर अन्य घटक दलों द्वारा आरोप लगाए जाने पर संघ ने खुद को सांस्कृतिक संगठन बताया था। चुनावों के वक्त भी संघ की सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी खुले तौर पर नहीं होती रही है। अटलबिहारी वाजपेयी से संघ नेतृत्व का विवाद कई बार उजागर हुआ। वाजपेयी की लोकप्रियता और सूझबूझ ने दो दर्जन से अधिक घटक दलों को साधकर संघ से भी समायोजन बनाए रखा। लालकृष्ण आडवाणी को पाकिस्तान यात्रा तथा जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने पर पार्टी की अध्यक्षी संघ के इशारे पर ही छोड़नी पड़ी। उनकी पदावनति की प्रक्रिया अब तक जारी है। जसवंत सिंह अपनी पुस्तक के चलते विवादों में घिरे और इस अंतिम चुनाव में उनकी टिकट ही काट दी गयी।
लेकिन सेंसेक्स में उछाल के इस मौसम में अब मसला ‘अपनों’ को बेदखल करने भर का नहीं रहा। दलबदल कानून लागू होने के बावजूद भाजपा में प्रवेश का स्वागतद्वार खुल गया है। साबिर अली से लेकर जनरल वी के सिंह तक सबका स्वागत हो रहा है। जिस तरह से यह स्वागत सत्कार हो रहा है उससे पार्टी की नस्ल बदल जाने का अंदेशा है लेकिन स्वागत अभियान जारी है। भाजपा के नये प्रशिक्षु पूर्व थलसेनाध्यक्ष वीके सिंह सुप्रीम कोर्ट से अपनी विवादित जन्मतिथि के मामले में अवमानना प्रकरण में फंसे। उन पर पूर्व सहकर्मी अधिकारी ने मानहानि का मुकदमा भी दायर किया। वे कभी मोदी तो कभी अन्ना हजारे की चाटुकारिता में चुस्त दिखे। मुंबई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह सेवानिवृत्त होते होते बागपत से लोकसभा का चुनाव भाजपा के टिकट पर लड़ रहे हैं। वे स्वीकार करते हैं कि सेवाकाल के दिनों में वे भाजपा नेताओं के सक्रिय संपर्क में रहे हैं। वह तो सेवा नियमों का खुला उल्लंघन था। इसके कारण मुकदमा भी चलाया जा सकता था। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी डॉ. भगीरथ प्रसाद ने दोनों पार्टियों से संबंध बनाए रखे। उन्हें भिंड से कांग्रेस का टिकट दिया लेकिन उन्होंने बीजेपी की टिकट लेना कुबूल किया।
प्रसिद्ध भ्रष्ट कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को मोदी के इशारे पर भ्रष्ट सहयोगियों के साथ पार्टी में वापस लेकर लोकसभा चुनाव का टिकट दिया गया। स्थायी पदलोलुप रामविलास पासवान से ज्यादा कटु बातें भाजपा के खिलाफ लालू यादव और मुलायम सिंह यादव आदि ने भी नहीं कहीं। पासवान को गले लगाने का चमत्कार भी हुआ। शिवसेना से भाजपा की स्थायी सीटबांट मैत्री है। नितिन गडकरी से निकटता के कारण महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे ने भी भाजपा को शिवसेना की परवाह किए बिना समर्थन देने का ऐलान किया है। यूपीए की कांग्रेसी मंत्री पुरंदेश्वरी, गुड़गांव के कांग्रेस सांसद राव इंद्रजीत सिंह, अरुणाचल के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री गेगांग अपांग, गुजरात के कांग्रेस विधायक सुरेन्द्र राजपूत, बिहार की जदयू की मंत्री परवीन अमानुल्ला, सांसद सुशील कुमार सिंह, विधायक छेदी पासवान तथा पूर्व नौकरशाह और जदयू से राज्यसभा सदस्य एन.के. सिंह और जदयू से निकाले गये साबिर अली भी अब भाजपा के दत्तक पुत्र हैं।
चर्चित पत्रकार मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर को भाजपा की सदस्यता लेते ही राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया गया है। अकबर नेहरू-गांधी वंश की नाक के बाल थे जिसे भाजपाई कैंची ने काट ही लिया। अकबर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, समान नागरिक संहिता, राममंदिर निर्माण और कश्मीर की विशेष स्थिति की समाप्ति के तर्कों की सफल जुगाली करेंगे। उत्तरांचल के शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक भारी भरकम नेता सतपाल महाराज कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गए हैं। योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज और उमा भारती वगैरह भाजपाई सांसद बनने की होड़ में हैं। व्यवस्थित, प्रायोजित और सघन प्रचार अभियान के दौरान भाजपा नेताओं के चित्रों के नीचे पतंजलि योग फॉमेर्सी द्वारा गाय का शुद्ध देसी घी बेचते दिखाते बाबा रामदेव का काली दाढ़ीयुक्त चेहरा नरेन्द्र मोदी की सफेद हो चली दाढ़ी के साथ दिलचस्प लगता है।
यक्ष प्रश्न है कि हिंदुत्व का इतिहास और भविष्यनिर्धारण वीर सावरकर, हेगड़ेवार, गोलवलकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, भाई महावीर, बलराज मधोक, दत्तोपंत ठेंगड़ी, एकनाथ रानाडे, जगन्नाथराव जोशी और बलराज मधोक आदि ने निष्ठा के साथ किया था। क्या उस दशादिशा में मौजूदा भाजपाई राजनीति चलना चाहती है? मुरलीमनोहर जोशी, लालजी टंडन और जसवंत सिंह की टिकटें यदि नहीं कटतीं तो कौन सा भूचाल आ जाता। अपनी ही विचारधारा के निष्ठावान नेताओं के बदले दलबदलुओं को तरजीह दी गई। उससे किन मूल्यों का इजाफा हुआ? सत्तानिरपेक्ष पार्टी की हैसियत में इस राजनीतिक कुनबे ने पांच दशकों तक संघर्ष किया। उसे एक विशेष व्यक्ति के नेतृत्व में हर कीमत पर सत्ता हासिल करने की कुलबुलाहट क्यों है। वरिष्ठ और सुसंस्कृत आडवाणी की लगातार योजनाबद्ध ढंग से छीछालेदर होते देश देख रहा है। भाषा की अभद्रता और चुनौती देने में हिंसा का पुट क्यों झलकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि मनमोहन सरकार ने आर्थिक मोर्चों पर देश को नाकामी की कगार पर खड़ा कर दिया है। अमेरिकापरस्ती को लेकर मोदी और मनमोहन सिंह में एका क्यों दिखाई देता है? मनमोहन सिंह अमेरिका के लिए स्वनिमंत्रित अतिथि हैं। मोदी बिन बुलाए मेहमान होने तक में गुरेज करते नहीं दिखाई देते। दोनों पार्टियां निजी उद्योगपतियों और वैश्वीकरण की पक्षधर तो क्या प्रचारवाहिनी हैं। अंबानी, अडानी, टाटा, जिंदल, मित्तल, रुइया जैसे उद्योगपति दोनों के आर्थिक और सियासी रिश्तों में फेविकोल की भूमिका अदा करते हैं। देश के मतदाता चेहरों के ही बदलने को लेकर गाफिल हैं। बोतलें यदि बदल भी जाएंगी तो अंदर का आसव अमृत के चरित्र का नहीं है। स्वदेशी, खादी, शाकाहार, सादगी, राष्ट्रीय संस्कृति इत्यादि सात्विक मुद्दों को लेकर दोनों बड़ी पार्टियों के संभावित प्रधानमंत्रियों में मौन, अज्ञान और निरादर करने का एका है। वैसे भी, दलबदलू, भ्रष्ट, नौकरशाह, पत्रकार, सामंतवादी और उद्योगपति तथा विदेशी किसी के नहीं होते।
(देश मंथन, 29 मार्च 2014)