तब बहुत बदल चुका होगा देश!

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कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार :

तीन कहानियाँ हैं! तीनों को एक साथ पढ़ सकें और फिर उन्हें मिला कर समझ सकें तो कहानी पूरी होगी, वरना इनमें से हर कहानी अधूरी है! और एक कहानी इन तीनों के समानान्तर है। ये दोनों एक-दूसरे की कहानियाँ सुनती हैं और एक-दूसरे की कहानियों को आगे बढ़ाती हैं और एक कहानी इन दोनों के बीच है, जिसे अक्सर रास्ता समझ में नहीं आता। और ये सब कहानियाँ बरसों से चल रही हैं, एक-दूसरे के सहारे! विकट पहेली है। समझ कर भी किसी को समझ में नहीं आती!

पहली कहानी। एक देश है, जो ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के निधन पर दिल की गहराइयों से शोक में डूब जाता है। दूसरी कहानी। एक मंत्री है, जो कहता है कि मुसलमान होने के बावजूद कलाम राष्ट्रवादी थे! तीसरी कहानी। देश की राजधानी के ठीक दरवाजे पर एक गाँव में भीड़ अचानक एक मुस्लिम घर पर हमला करती है, इस शक में कि उसने गाय काटी है और परिवार के मुखिया को मौत के घाट उतार देती है। एक और ऐसा ही हादसा कानपुर के जाना गाँव में होता है। एक अनजान आदमी के लिए कोई बोल देता है कि यह पाकिस्तानी आतंकवादी है और भीड़ उसे मौत के घाट उतार देती है!

बिसाहड़ा की कहानी

दादरी के बिसाहड़ा (Bisara or Bisada Village) गाँव में कभी कोई साम्प्रदायिक माहौल नहीं रहा। कम से कम ऊपर से तो नहीं दिखा। जिस अखलाक को मारा गया, गाँव के हर घर में उसका आना-जाना था, किसी की बिजली ठीक करनी हो, किसी का पम्प खराब हो गया हो, किसी की कोई मशीन बिगड़ गयी हो। अखलाक के घर की औरतें राजपूतों के इस गाँव की औरतों के कपड़े सी कर महीने में दो-ढाई हजार कमा लेती थीं। मतलब यह कि बरसों से इस परिवार का पूरे गाँव से मिलना-जुलना, बोलना-बतियाना, काम-धाम और खान-पान का रिश्ता था। हर साल की तरह इस बार भी अभी बकरीद के दिन पड़ोस के बहुत-से हिन्दू दोस्त घर आये थे। फिर अचानक क्या हुआ कि एक मन्दिर से घोषणा हो कि अखलाक ने गाय काटी है और फिर सारा गाँव उसकी जान लेने पर उतारू हो जाये?

मुसलमानों के खिलाफ बनी गाँठ

संस्कृति मन्त्री महेश शर्मा कहते हैं कि यह दुर्घटना थी, लेकिन सच यह है कि यह अचानक नहीं हुआ था। वारदात के तीन दिन पहले अखलाक के बेटे को गुजरते देख किसी ने जुमला कसा था, देखो पाकिस्तानी जा रहा है! मतलब यह कि मन में गाँठ बहुत गहरे बैठी हुई थी या बैठायी जा चुकी थी कि मुसलमान है, तो वह भारतीय नहीं है, उसे भारत में नहीं रहना चाहिए, वह पाकिस्तानी है, वह कभी भारत का हो ही नहीं सकता! पिछले काफी समय से संघ और बीजेपी के कई नेता मुसलमानों को लगातार पाकिस्तान भेजे जाने की वकालत अनायास ही नहीं करते रहे हैं और यही वह गाँठ है, जो देश के संस्कृति मन्त्री के मन से अचानक बाहर आ जाती है कि मुसलमान होने के बावजूद कलाम राष्ट्रवादी थे! यानी मुसलमान राष्ट्रवादी हो नहीं सकते! और कलाम क्यों राष्ट्रवादी थे? इसलिए कि वह गीता पढ़ते थे। वह सरस्वती वन्दना करते थे! यानी जो मुसलमान गीता न पढ़े, जो सूर्य नमस्कार न करे, वह राष्ट्रवादी नहीं? अब इसको संघ प्रमुख मोहन भागवत के पिछले साल के इस बयान से जोड़ कर देखिए कि “आपस में इस लड़ाई को लड़ते-लड़ते ही भारत के हिन्दू-मुसलमान साथ रहने का कोई तरीका ढूँढ लेंगे और वह तरीका हिन्दू तरीका होगा।”

क्या है संघ का हिन्दू तरीका?

संघ का मतलब साफ है कि मुसलमानों को या किसी और भी धर्मावलम्बियों को भारत में हिन्दू तरीके से ही रहना होगा! पिछले नब्बे साल से संघ देश की प्रयोगशाला में चुपके-चुपके और अथक जो प्रयोग कर रहा था, उसका रसायन अब बिलकुल तैयार है! भारत के गाँवों में कभी कोई साम्प्रदायिक एहसास नहीं रहा, लेकिन पिछले पन्द्रह महीनों में शहर से लेकर गाँव तक अब देश की हिन्दू आबादी के बड़े हिस्से में मुसलमानों के खिलाफ जहर भरा जा चुका है। पहले ‘घर वापसी’ और ‘लव जिहाद’ का शोर और फिर मुसलमानों की बढ़ती आबादी के बारे में जानबूझ कर झूठा हव्वा खड़ा करने की नियोजित कोशिश! यह सच है कि मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर अब भी हिन्दुओं के मुकाबले ज्यादा है, लेकिन यह भी सच है कि पहले के मुकाबले मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर में भारी गिरावट दर्ज की गयी है और मुसलमानों में परिवार नियोजन के साधनों का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। यही रफ्तार रही तो जल्दी ही मुसलमानों की आबादी वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत के आसपास आ जायेगी, लेकिन प्रचार कुछ और किया गया।

उप-राष्ट्रपति के खिलाफ भी निशाना

यही नहीं, संघ के बड़े नेताओं ने उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी की देशभक्ति पर दो बार अनर्गल सवाल उठाये, जिसके लिए बाद में उन्हें माफी भी माँगनी पड़ी। और जब कुछ नहीं बचा तो इस पर आपत्ति उठाने की कोशिश की उप-राष्ट्रपति ने मुसलमानों के पिछड़ेपन के बारे में बयान क्यों दिया? अच्छा, यदि उप-राष्ट्रपति यह कहते कि दलित बहुत पिछड़े हैं और उनके विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए, तो भी क्या यह गलत होता? मुसलमानों की हालत दलितों से जरा ही बेहतर है। तो उप-राष्ट्रपति ने यह बात कह कर क्या गलत किया? और राष्ट्रपति के.आर. नारायणन पर तो किसी ने कभी उँगली नहीं उठायी कि उन्होंने दलितों के पिछड़ेपन की चर्चा क्यों की? दलित हो कर दलित पिछड़ेपन की बात करना गलत नहीं, लेकिन मुसलमान हो कर मुसलमानों के पिछड़ेपन की चर्चा करना पाप है?

चुप क्यों बैठी है मोदी सरकार?

और दिलचस्प बात देखिए कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार इन मुद्दों पर कभी कुछ नहीं बोली। न कोई ट्वीट, न कोई बयान, न किसी मन की बात में इस सबकी कोई चर्चा! जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो! सरकार इन घटनाओं के समर्थन में चुप है या मजबूरी में? दोनों ही स्थितियाँ चिन्ताजनक हैं! यह हुई तीन कहानियों को मिला कर बनी कहानी, देश के रंगमंच पर जिसके खेले जाने की शुरुआत अब हो चुकी है। यह तब तक जारी रहेगी, जब तक मुसलमान ‘हिन्दू तरीके’ से रहना नहीं सीख जायेंगे!

मुसलमान भी कम दोषी नहीं!

अब वह कहानी, जो इसके समानान्तर चलती है। मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जो मुस्लिम समाज के लिए लाये जाने वाले हर प्रगतिशील और सुधारात्मक कानून का जबरदस्ती विरोध करता रहा, उलेमा जो अनाप-शनाप फतवे देकर मुसलमानों को हर आधुनिक विचार का विरोधी साबित करते रहे, और सोने पर सुहागा आजम खाँ, अबू आजमी, असदुद्दीन ओवैसी, उनके पिता सलाहुद्दीन ओवैसी, इब्राहीम सुलेमान सैत, जी.एम. बनातवाला, इमाम बुखारी और सैयद शहाबुद्दीन जैसे मुसलमानों के स्वयंभू नेता, जो मुसलमानों को भड़काये और बरगलाये रखने की राजनीति करते रहे और इस तरह रची गयी मुस्लिम साम्प्रदायिकता से इनकी दुकानें तो चलती रहीं, लेकिन इसने हिन्दू साम्प्रदायिकता को मुसलमानों के खिलाफ वे तर्क मुहैया कराये, जिन्हें आम हिन्दू आसानी से सही मानने लगें! क्या मुसलमान अब भी आत्मनिरीक्षण करेंगे कि देश के आम हिन्दुओं में उनके खिलाफ जो माहौल बना है, उसके ज्यादातर हथियार खुद मुसलमानों के ही दिये हुए हैं?

मुल्लाओं की पिछलग्गू सेकुलर राजनीति!

और अब इन कहानियों के बीच की कहानी, तथाकथित सेकुलर राजनीति की कहानी, जिसने मुसलमानों के विकास के लिए तो कुछ नहीं किया, उलटे शाहबानो से लेकर इमराना बलात्कार कांड और आरिफ-गुड़िया-तौफीक जैसे मामलों में मुल्लाओं के सामने घुटने टेकने से लेकर तमाम ऐसे काम किये जिससे मुसलमानों का केवल नुकसान हुआ। मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर सेकुलरिज्म बदनाम जरूर हुआ, लेकिन मुसलमानों को मिला किया? धेला भी नहीं! और अब हिन्दुत्व की बहती बयार को देख कर काँग्रेस और सपा जैसी पार्टियों को डर लगने लगा है कि मुसलमानों के बारे में कुछ ज्यादा बोलेंगे तो कहीं हिन्दू वोट हाथ से न निकल जायें! सेकुलरों के लिए भी यह गहरे आत्मनिरीक्षण का समय है कि उन्होंने कभी यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बहस तक चलाने की भी पहल क्यों नहीं की?

बहरहाल, यह मसला केवल मुसलमानों का नहीं है। हो सकता है कल को मुसलमान ‘हिन्दू तरीके’ से रहने को मजबूर हो जायें। लेकिन तब हिन्दुओं के लिए भी यह देश बहुत बदल चुका होगा! राज्य को धर्म के रथ में जोते जाने का नतीजा क्या होता है, दुनिया में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है! कलबुर्गी जैसे तमाम लोगों को निशाना बना कर भविष्य के हिन्दू राष्ट्र की तस्वीर तो पेश की ही जाने लगी है!

 (देश मंथन, 03 अक्तूबर 2015)

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