इन सभी पार्टियों के वर्तमान नेतृत्व को ऐसा लगता था कि हमारे साथ विरासत (लीगेसी) है, हमारा कोई क्या बिगाड सकता है। मगर पहले जनता, फिर कार्यकर्ताओं ने साथ छोड़ दिया। राजीव गांधी के समय से यह ग्राफ घटता जा रहा है। ऐसी सभी पार्टियों में अलग-अलग स्तरों पर असंतोष है। पार्टी और सत्ता का शीर्ष पद परिवार के लिए आरक्षित हो, तो बगावत तय होती है।
आज हम देश की चार परिवारवादी पार्टियों के विषय में बात करेंगे, जिनका भविष्य अंधकार में है। इन सब परिवारवादी पार्टियों की आज अगली पीढ़ी मैदान में है और इनकी पहली पीढ़ी करिश्माई रही है। इनमें एक राष्ट्रीय पार्टी है और तीन क्षेत्रीय। इन सभी की एक समय तूती बोलती थी, पर आज वे अपने-अपने राज्यों में जनता की नजर से गिरते जा रहे हैं। यह बात उनको समझ नहीं आ रही, उनमें प्रभुता का भाव बना हुआ है और वही उनके पतन का कारण बनने वाला है।
संघर्ष से भागती कांग्रेस
कांग्रेस सबसे पुरानी लोकतांत्रिक वंशवादी (डेमोक्रेटिक डाइनेस्ट) रही, जिसके लिए माना जा रहा था कि जनतंत्र ने इनके इस राजतंत्र को स्वीकार कर लिया है, जो एक गलतफहमी साबित हुई। राहुल गांधी इनके राजनीतिक वारिस हैं। इन पार्टियों में अधिकार पद से तय नहीं होता, उनकी हैसियत हर पद से बड़ी होती है। ये प्रधानमंत्री या पार्टी अध्यक्ष बन कर अहसान करते हैं। वर्तमान में यह सबसे बड़ा विपक्षी दल है, पर 2018 के तीन चुनावों – मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और राजस्थान के अलावा लगातार इसकी हार हुई है। उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य में इनका सबसे बड़ा जनाधार था, पर आज वहाँ दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव हुए और इनको यह साहस नहीं था कि कोई उम्मीदवार उतार दें। हार-जीत चुनाव या लोकतंत्र का हिस्सा है, पर अगर आप संघर्ष से भाग जायें तो इसे गंभीर बीमारी समझा जायेगा।
स्थिति यह है कि पिछले दो चुनावों से कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष चुनवा पाने में अक्षम रही है, जिसके लिए 10 प्रतिशत लोकसभा सीटें होनी चाहिए। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में यह संख्या और घटेगी, इसमें किसी को कोई शंका नहीं है। कांग्रेस की किसी राज्य में अच्छी स्थिति नहीं है। पंजाब में तीन महीने पहले सत्ता में होने के बावजूद संगरूर लोकसभा उपचुनाव में उसकी जमानत जब्त हो गयी। उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रियंका गांधी के उतरने को इनकी वापसी का संकेत माना जा रहा था, जहाँ सिर्फ दो सीटें मिलीं और 290 से अधिक में जमानत जब्त हो गयी।
जिनका कोई जनाधार बचा है, वैसे नेता एक-एक करके जा रहे हैं। राजस्थान में जो दो हैं, वे दोनों एक-दूसरे को निपटाने में लगे हैं – सचिन पायलट और अशोक गहलोत। यही स्थिति छत्तीसगढ़ में पार्टी के नेता नंबर एक और नंबर दो में है। राज्य सभा चुनाव में दिये गये टिकटों से लगता है जैसे शीर्ष नेतृत्व मे मान लिया है कि पार्टी का अंत निकट है, अतः जो वफादार हैं, उन्हें राज्य सभा भिजवा दें और मानो आगे कुछ कहा नहीं जा सकता कि मौका मिलेगा या नहीं। देश की सबसे पुरानी और पहली वंशवादी पार्टी का हश्र सबसे बुरा होता दिख रहा है। राजनीतिक प्रक्रिया में थोड़ा समय लगता है, पर दिशा में कोई शंका नहीं है, यह नीचे और नीचे ही जा रही है।
हर चुनाव हार रहे अखिलेश यादव
उत्तर प्रदेश में यही स्थिति समाजवादी पार्टी की है। मुलायम सिंह यादव ने जब से अखिलेश यादव को सत्ता दी, एक बार भी पार्टी चुनाव नहीं जीती। तब से 2014, 2017, 2019 और 2022 के चारों चुनावों में हार हुई। सत्ता में रह कर दो चुनाव हारे और विपक्ष में रहते हुए भी दो चुनाव हारे। वर्ष 2014 में अकेले हारे, जबकि 2017 में कांग्रेस, 2019 में बसपा और 2022 में कई छोटे दलों के साथ रहते हुए हार हुई। अपने गढ़ में ही वे हार गये। उनके छोटे सहयोगी दल उन्हें एसी रूम से बाहर निकलने के लिए कह रहे हैं।
अखिलेश यादव को लगता है कि कोई जिताने वाला आयेगा। उनके सहयोगी ओम प्रकाश राजभर कुछ कर नहीं पा रहे। उनके कोर वोट बैंक – यादव और मुस्लिम का उनसे मोहभंग हो गया है। मुसलमानों को समझ नहीं आ रहा कि वे क्या करें। वे लगातार भाजपा को हराने के लिए वोट दे रहे हैं, मगर भाजपा अब उन मुस्लिम बहुल इलाकों में भी जीत रही है, जहाँ शायद ही जीतने की आशा होती थी। हालत यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का कोई मुकाबला करने वाला नहीं रह गया है।
क्या अकाली दल विलोप की ओर?
परिवार के आधार पर पद तय करने से ऐसा ही होता है, जैसा अकाली दल के साथ हुआ, जिनके नेता प्रकाश सिंह बादल एक कद्दावर नेता थे, राज्य से लेकर केंद्र तक। वे 2007 से 2017 तक मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने बेटे को उप-मुख्यमंत्री (डिप्टी सीएम) बना दिया, पर सुखबीर बादल ने भी अखिलेश यादव की तरह अपने काम से पिता का नाम गायब कर दिया। अखिलेश यादव की तरह वे भी चारों चुनाव हारे। वर्ष 2014, 2017, 2019 और 2022 – चारों में हार हुई। सत्ता में रह कर दो चुनाव हारे और विपक्ष में भी दो चुनाव हारे। लगातार 10 साल सत्ता में रहने के बाद संगरूर से जमानत जब्त हो गयी, जहाँ वे खालिस्तान समर्थकों के बूते जीतना चाहते थे और उन्होंने जेल काट रहे आतंकवादी की बहन तक को टिकट दे दिया। तो अकाली दल कुल मिला कर विलोप की ओर है।
उद्धव ठाकरे के पास अब वह शिव सेना नहीं
महाराष्ट्र की शिवसेना की बात कर लेते हैं, जिसमें कभी हिंदू हृदय सम्राट बाला साहब ठाकरे थे, जिनके बेटे ने मुख्यमंत्री बनने के लिए हिंदुत्व को ठोकर मार दी और सत्ता पाकर खुश हो गये। मगर अब पार्टी पर उनका कब्जा भी बचेगा या नहीं, इस पर सवालिया निशान लग गया है। एकनाथ शिंदे की बगावत के पीछे उद्धव ठाकरे की नीयत पर संदेह था, मजबूरी दिखती तो ऐसा नहीं होता। निश्चित ही अब वह शिव सेना नहीं रहेगी, जो बाल ठाकरे ने बनायी थी, क्योंकि लोगों का पारिवारिक पार्टियों से मोहभंग हो गया है।
इन सभी पार्टियों के वर्तमान नेतृत्व को ऐसा लगता था कि हमारे साथ विरासत (लीगेसी) है, हमारा कोई क्या बिगाड सकता है। मगर पहले जनता, फिर कार्यकर्ताओं ने साथ छोड़ दिया। राजीव गांधी के समय से यह ग्राफ घटता जा रहा है। विशेष परिस्थितियों में सत्ता में आ जाना प्रगति की निशानी नहीं है, चूँकि गिरावट लगातार जारी है। ऐसी सभी पार्टियों में अलग-अलग स्तरों पर असंतोष है। शिव सेना में तो जो हो रहा है, उसे बताने की जरूरत नहीं है। एकनाथ शिंदे की बगावत दरअसल उद्धव ठाकरे के रवैये, नीति और नीयत को लेकर है। पार्टी और सत्ता का शीर्ष पद परिवार के लिए आरक्षित हो, तो बगावत तय होती है।
इन चार दलों में कुछ समान बातें हैं, जो उनके पतन का कारण बनीं हैं –
- चारों में परिवारवादी नेतृत्व
- वर्तमान नेतृत्व राजनीतिक रूप से अक्षम है। इन सभी ने पिता से मिली विरासत और जनाधार को घटाया है। अखिलेश यादव का वोट बढ़ा है विशेष परिस्थिति में, पर पार्टी की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है।
- इन सभी को भ्रष्टाचार से प्यार है, वे उसे स्वागतयोग्य मानते हैं। मौका नहीं होता तो उसके लिए बनाते हैं। इस मामले में ये सभी समाजवादी हैं कि सबको छूट होती है भ्रष्टाचार करने की।
- मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए ये सभी आतंकवाद का भी समर्थन करने लगते हैं, जिसमें आरोपियों को मुकदमे से बचाना और केस कमजोर करना शामिल है।
- व्यक्तित्व में अहंकार, प्रभुत्व और स्वयं को शाश्वत सत्ता का अधिकार होने का भाव एक समान सूत्र है। वहीं पुरानी पीढ़ी का आकर्षण समाप्त हो गया है। सभी नेताओं का एक शुरुआती आकर्षण होता है।
कुल मिला कर ये सभी दल आखिरी पायदान पर हैं, सत्ता के मद में हैं। जो यह सब बातें उन्हें बतायेगा, उसका वे अपमान ही करेंगे, जिसके कारण पतन और तेजी से होगा। अलग-अलग दलों का पतन अलग-अलग समय पर होगा, जिसकी केवल औपचारिक घोषणा बाकी है। परिवारवाद वाले दलों के विषय में प्रधानमंत्री का मत लोगों को समझ में आया है और पसंद भी आया है।
(प्रदीप सिंह के यूट्यूब वीडियो का लेखांतरण।)
(देश मंथन, 04 जुलाई 2022)