कुछ नहीं करना भी एक फैसला है!

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

तो प्रधानमंत्री आखिर दादरी पर भी बोले। मौका गुरुवार को दिन की उनकी आखिरी चुनावी रैली का था। इसके पहले वह दिन भर में बिहार में तीन रैलियाँ कर चुके थे। गोमांस पर लालू प्रसाद यादव के बयान पर खूब दहाड़े भी थे। ‘यदुवंशियों के अपमान’ से लेकर ‘लालू की देह में शैतान के प्रवेश’ तक जाने क्या-क्या बोल चुके थे वह! एक-एक कर तीन रैलियाँ बीतीं, दादरी पर नमो ने कोई बात नहीं की। लोगों ने सोचा कि कहाँ प्रधानमंत्री ऐसी छोटी-छोटी बातों पर बोलेंगे? अब यह नीतीश कुमार के ट्वीट का कमाल था या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले से तय किया था कि वह नवादा में दिन की अपनी आखिरी रैली में ही दादरी पर बोलेंगे, यह तो पता नहीं। खैर वह बोले! अच्छी बात है!

कहना ही कहना है, या कुछ करना भी है?

हालाँकि अकेले दादरी तो मुद्दा है ही नहीं। दादरी तो महज सन्दर्भ भर है, उन सारी घटनाओं का, उन सारे विषाक्त कुचक्रों का, उन सारे हमलावर जुमलों का, जिनका सिलसिला करीब एक साल से चल रहा है!

यह केवल संयोग ही है या और कुछ कि पिछले पन्द्रह अगस्त को प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने भाषण में अपील की थी कि हमें साम्प्रदायिकता पर दस साल की रोक लगानी चाहिए और ठीक उस भाषण के बाद से इसाइयों और मुसलमानों को निशाना बनाने की शुरुआत हो गयी!

और अब प्रधानमंत्री ने नवादा में कहा क्या? और जो कहा, वह काफी है क्या? और क्या सिर्फ कहना ही काफी है, या कुछ करना भी है? और करना है, तो किसे? जनता को?

कहाँ है हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा?

प्रधानमंत्री जी ने कहा कि वह पहले भी कह चुके हैं कि हिन्दुओं-मुसलमानों को तय करना चाहिए कि उन्हें आपस में लड़ना चाहिए या एक साथ मिल कर गरीबी से लड़ना चाहिए? बात तो सही है! लेकिन सवाल यह है कि इस समय देश में जो हो रहा है, क्या वह हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा है? ज़रा, बताइए कहाँ है हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा?

हिन्दू-मुसलमान तो आपस में कहीं भी झगड़ नहीं रहे हैं। बल्कि जो कुछ हो रहा है, वह ईसाइयों और मुसलमानों के खिलाफ आम हिन्दुओं का ध्रुवीकरण कराने के लिए संगठित तौर पर हो रहा है। क्या कारण है कि मोदी सरकार आने के बाद से संघ परिवार और उसके साथ ही हिन्दू महासभा, सनातन सेना या ऐसे ही तमाम दूसरे हिन्दूवादी संगठनों का जोर अचानक बढ़ गया!

बात को घुमा क्यों रहे हैं मोदी जी?

‘घर-वापसी’, ‘लव-जिहाद’ से लेकर किसी न किसी बहाने इसाइयों और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने, गाँधी-नेहरू को बदनाम करने, गोडसे को पूजने, अन्धविश्वास के विरुद्ध काम कर रहे लेखकों की हत्याओं से लेकर दादरी कांड तक का लम्बा सिलसिला, यह सब क्या कोई हिन्दू-मुस्लिम झगड़े थे? क्या इनमें कहीं आम हिन्दू-मुसलमान शामिल थे? तो प्रधानमंत्री किस हिन्दू-मुस्लिम झगड़े की बात कर रहे हैं? बात को क्यों घुमा रहे हैं? जैसे उनके मंत्री बात घुमा रहे थे कि दादरी कांड महज एक ‘दुर्घटना’ है!

राजनेता देते हैं गैर-जिम्मेदार बयान : मोदी

और नवादा में जो दूसरी बात प्रधानमंत्री मोदी ने कही, वह यह कि कुछ राजनेता अपने राजनीतिक हितों के लिए गैर-जिम्मेदार बयान देते रहते हैं। जनता को इन पर ध्यान नहीं देना चाहिए और नरेन्द्र मोदी भी अगर ऐसी बात कहें, तब भी नहीं। बल्कि जनता को वह बात माननी चाहिए, जो अभी राष्ट्रपति महोदय ने कही। बहुत खूब!

प्रधानमंत्री ने आखिर माना कि कुछ राजनेता गैर-जिम्मेदार बयान देते हैं। जनता उन पर ध्यान न दे! इसीलिए प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के कुछ नेताओं के गैर-जिम्मेदार बयानों पर कोई ध्यान नहीं देते!

इसीलिए बयानों पर ध्यान नहीं देते प्रधानमंत्री!

इसीलिए जब अशोक सिंहल ने महीनों पहले यह बयान दिया था कि भारत में आठ सौ साल बाद हिन्दुओं का शासन लौटा है, तो प्रधानमंत्री ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया था! उनके तमाम मंत्री और सांसद लगातार गैर-जिम्मेदार बयान देते रहते हैं, लेकिन इसीलिए नरेन्द्र मोदी उन पर कभी ध्यान नहीं देते! आखिर जनता को उन्होंने सीख दे रखी है कि वह गैर-जिम्मेदार बयानों पर कोई ध्यान न दे, तो फिर प्रधानमंत्री हो कर वह भला अपनी ही सीख का उल्लंघन कैसे करें?

और चूँकि उनकी पार्टी के नेताओं को मालूम है कि वह कुछ भी बयान देते रहें, पार्टी में कोई उस पर ध्यान नहीं देगा, कोई उनके कान नहीं उमेठेगा, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी, इसलिए वह लगातार ऐसे बयान देते रहते हैं। अब यह जनता की जिम्मेदारी है कि वह प्रधानमंत्री की सलाह मानते हुए इन पर ध्यान न दें! समस्या खत्म!

क्या कभी कोई कदम उठाया?

समस्या यही है कि प्रधानमंत्री ने कभी क्या कोई एक भी ऐसा कदम उठाया, जिससे गैर-जिम्मेदार बयानों और घृणा ब्रिगेड के षड्यंत्रों पर अंकुश लग सके? क्या यह मामला इतना गम्भीर नहीं कि प्रधानमंत्री को इसकी चिन्ता करने की जरूरत हो?

मामला गम्भीर न होता तो ओबामा को क्या पड़ी थी कि वह एक नहीं, दो-दो बार यह कहते कि भारत में बढ़ रही धार्मिक असहिष्णुता से वह बहुत चिन्तित हैं।

ऐसा नहीं कि तब प्रधानमंत्री इससे चिन्तित नहीं थे। ओबामा के बयान के करीब महीना भर पहले ही दिसम्बर 2014 में इस तरह की खबरें आयी थीं कि नरेन्द्र मोदी ने संघ को धमकी दी है कि अगर घृणा ब्रिगेड का कारोबार नहीं रुका तो वह पद छोड़ देंगे! इसके बाद संघ परिवार के कुछ संगठन कुछ दिन के लिए शान्त पड़ गये थे।

दिल्ली का वह भाषण!

फिर उसके बाद आपको इस साल फरवरी में दिल्ली में इसाइयों के एक समारोह में दिया प्रधानमंत्री का वह भाषण भी याद होगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि किसी भी धर्म के विरुद्ध किसी भी बहाने की गयी हिंसा हमें बर्दाश्त नहीं है और ऐसा करनेवालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी।

भाषण बहुत अच्छा था, तारीफ के काबिल था, लेकिन इस स्तम्भकार ने तब भी यह सवाल उठाया था कि प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं, क्या वह उस पर अमल करेंगे भी और क्यों उनका यह भाषण बस भाषण के लिए है, इससे ज्यादा कुछ नहीं? इस स्तम्भकार की आशंका बिलकुल सही निकली!

क्योंकि धार्मिक वैमनस्य फैलाने और बढ़ाने के अभियान तब से निरन्तर जारी हैं, देश के तमाम बड़े अखबारों में लगातार इन पर चिन्ता जतायी जाती रही है, अकसर महीने में कई-कई बार अखबारों ने लिखा कि प्रधानमंत्री मोदी को कड़े कदम उठाने चाहिए, लेकिन सच यह है कि प्रधानमंत्री ने भाषण के सिवा इस बारे में अब तक कुछ भी नहीं किया!  हैरानी की बात है न!

क्या बीजेपी वाले भी प्रधानमंत्री की नहीं सुनते?

और अगर उन्होंने वाकई कुछ किया है या करने की कोशिश की है, तो और भी ज्यादा हैरानी की बात है कि बीजेपी और संघ परिवार में उनकी बात क्यों नहीं सुनी जा रही है? क्या प्रधानमंत्री इतने कमजोर हैं कि बीजेपी में भी कोई उनकी नहीं सुनता? या संघ के सामने प्रधानमंत्री इतने लाचार हैं कि सब कुछ चुपचाप देखते रहने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं है। या जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव कहते थे कि कोई फैसला न लेना भी एक फैसला है, क्या मोदी का कुछ नहीं करना भी एक फैसला है?

और नवादा का यह भाषण!

फरवरी में दिल्ली के भाषण में तो उन्होंने कम से कम कुछ संकल्प जताया भी था कि ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी। लेकिन साढ़े सात महीने बाद नवादा आते-आते तो भाषण से ‘कड़ी कार्रवाई’ का वह रस्मी संकल्प भी गायब हो गया और देश उन्होंने जनता के हवाले छोड़ दिया कि वह राजनेताओं की उलटी-सीधी बातों पर ध्यान न दे!

यानी उन्होंने साफ कर दिया है कि जो चल रहा है, वह वैसे ही चलता रहेगा! नरेन्द्र मोदी क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहते हैं, यह वाकई समझ में नहीं आता!

(देश मंथन, 10 अक्तूबर 2015)

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