दिल्ली के नतीजे और सियासी वादों के निहितार्थ

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राजीव रंजन झा :

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की आंधी नजर आ रही है और इस आंधी के कारण देश भर में गलत मायने निकाले जाने का खतरा भी महसूस हो रहा है।

तमाम राजनीतिक दलों के नेतृत्व में अब यह धारणा बन सकती है कि ठोस दीर्घकालीन विकास के लिए काम करने के बदले केवल फौरी लोकलुभावन वादों से ही चुनाव जीते जा सकते हैं।

अल्पकालिक दृष्टि होगा दुर्भाग्य

धारणा बन सकती है कि जब बिजली दरें आधी कर देने के वादे से ही जबरदस्त चुनावी कामयाबी हासिल की जा सकती है तो सरकारों को चौबीसों घंटे बिजली उपलब्ध कराने की दिशा में काम करने की जरूरत क्या है? नेता-गण समझ लेंगे कि बिजली कैसे बनेगी, इसकी चिंता करना खराब राजनीति है और बिजली दरें आधी करने का वादा सच्ची राजनीति है। अगर मुफ्त पानी के वादे से चुनाव जीते जा सकते हों तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि सबके घरों में पानी पहुँच रहा है या नहीं? अगर दिल्ली चुनाव ने देश की राजनीति को फिर से ऐसी दिशा दे दी, तो यह बड़ा दुर्भाग्य होगा।

विकास में जनकल्याण पुट जरूरी

लेकिन अगर इस चुनावी झटके से केंद्र की भाजपा सरकार ने यह संकेत लिया कि उसे विकास के मोर्चे पर जल्दी से कुछ परिणाम ला कर दिखाने होंगे, तो यह इन चुनावी नतीजों का एक शुभ परिणाम होगा। अगर मोदी सरकार ने विकास के लिए कॉर्पोरेट शैली की रणनीति से अलग हट कर सरकार की कोशिशों में जन-कल्याण का पुट जोड़ा तो यह देश की अर्थनीति और राजनीति दोनों के लिए शुभ होगा। उसे यह समझना होगा कि कॉर्पोरेट शैली में किये जाने वाले विकास से आम जनता खुद को नहीं जोड़ पाती है।

स्थायी बनाम तात्कालिक लाभ 

दिल्ली चुनाव के संकेतों को दो हिस्सों में समझना होगा। आम आदमी पार्टी ने इस चुनाव में जिस तरह के वादे किये, उनमें एक लोकलुभावन पुट था। बिजली दर आधी करने और पानी मुफ्त देने का वादा इनमें सबसे चर्चित रहा है। अगर अन्य राज्यों में भी यही लहर चल गयी और राजनेताओं ने सस्ती बिजली को ही चुनावी नारा बना लिया तो देश में बिजली क्षेत्र को बुनियादी रूप से मजबूत बनाने की अब तक की सारी कवायद पर पानी फिरना तय है।

अगर कोई राज्य सरकार सुदृढ़ आर्थिक नीतियाँ अपना कर अपने बिजली बोर्ड को भारी घाटे से उबार ले और इस सफलता को चुनाव में भुनाना चाहे तो उतना चुनावी लाभ नहीं मिल सकता, जितना इस बात से मिल सकता है कि बिजली दरें आधी कर देने का वादा कर दिया जाये। 

यह और बात है कि अगर बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करनी है तो बिजली उत्पादक कंपनियों को तो उनकी लागत के मुताबिक ही भुगतान करना पड़ेगा। इसलिए वापस सब्सिडी के ही रास्ते पर जाना पड़ेगा, जैसा दिल्ली में पिछली बार दिसंबर 2013 में बनी केजरीवाल सरकार ने किया था। पूरी संभावना है कि इस बार भी केजरीवाल सस्ती बिजली के लिए सब्सिडी का ही रास्ता अपनायेंगे, क्योंकि वे अपने तमाम बयानों और साक्षात्कारों में बिजली के लिए सब्सिडी की वकालत करते रहे हैं। उन्होंने बार-बार यही दोहराया है कि उनकी सरकार ने टैक्स से ज्यादा कमाई की और उसमें से कुछ हिस्सा सब्सिडी के रूप में लोगों के फायदे के लिए खर्च कर दिया, यानी मूल रूप से वे सब्सिडी देने की सोच के पक्ष में हैं। 

देश भर के राजनेता यह देखेंगे कि सब्सिडी वाली राजनीति को चुनावी सफलता मिलती है। इसलिए यह खतरा मौजूद है कि देश की राजनीति एक बार फिर सब्सिडी आधारित अर्थव्यवस्था की ओर मुड़ने लगेगी। दिल्ली की जनता ने दिखाया कि उसे केवल सस्ती बिजली से मतलब है, इस बात से नहीं कि सरकारी खजाने से सब्सिडी दे कर बिजली कंपनी को तो पहले जितने ही पैसे दिये जायेंगे। यदि बिजली कंपनी ज्यादा पैसे वसूल रही है, तो उसे मिलने वाली कीमत घटनी चाहिए। पर इतने विस्तार में जाने की जनता को फुर्सत नहीं है।

तो सुधर सकती है राजनीति

लेकिन यह तो बात हुई उन गलत अर्थों की, जो इस चुनावी नतीजे से निकाले जा सकते हैं। यदि इन नतीजों को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाये तो राजनीति भी सुधर सकती है और अर्थनीति भी। अगर बिजली की ही बात करें तो दिल्ली में जब से बिजली सुधारों की शुरुआत हुई है, उसके बाद लोगों के बिजली बिल कई गुणा बढ़ गये हैं। इन सुधारों के तहत सबसे पहले लोगों के मीटर बदले गये। मीटर बदलते ही लोगों के बिल करीब दोगुने हो गये।

फिर बिजली वितरण निजी कंपनियों को सौंप दिया गया और उसके बाद से लोगों ने लगातार अपने बिजली बिल को बढ़ता हुआ पाया। लोगों में एक आम धारणा बनी कि निजी बिजली कंपनियाँ मुनाफाखोरी कर रही हैं और उसकी मुनाफाखोरी को राज्य सरकार और नियामक आयोग की ओर से प्रश्रय मिल रहा है। आम आदमी पार्टी ने निजी बिजली कंपनियों का ऑडिट कराने की बात कही, जिसे लोगों का समर्थन मिला। मतलब यह है कि जनता निजी क्षेत्र की मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाने, सार्वजनिक निगरानी रखने और पारदर्शिता बरतने की जरूरत महसूस करती है। 

दैन्दिनी से खत्म हो भ्रष्टाचार  

दिल्ली चुनाव का दूसरा बड़ा संकेत भ्रष्टाचार के मुद्दे पर है। इस चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी ने अक्सर जिक्र किया कि उन्होंने सर्वोच्च स्तर पर भ्रष्टाचार को दूर किया है और इसे नीचे तक खत्म करेंगे। दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल के प्रचार में निचले स्तर के उस भ्रष्टाचार की बात की गयी, जो आम लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। चाहे वह रेहड़ी-खोमचे वालों से वसूला जाने वाला हफ्ता हो, या ऑटो वालों से, उसकी बात करके केजरीवाल ने इन तबकों में सीधी पैठ बनायी। 

भले ही पुलिस की कमान दिल्ली की राज्य सरकार के हाथों में नहीं हो, मगर केजरीवाल यह संदेश पहुँचाने में सफल रहे कि उनके 49 दिनों की सरकार के दौरान इनकी लूट-खसोट बंद हो गयी थी। केंद्र की भाजपा सरकार के हाथों में दिल्ली पुलिस की सीधी लगाम होने के बावजूद गृह मंत्री राजनाथ सिंह यह बताने में नाकाम रहे कि वे दिल्ली पुलिस की लूट-खसोट को रोकने के लिए क्या कर रहे हैं। कम-से-कम लोगों के बीच तो यह संदेश बिल्कुल नहीं गया कि केंद्र की भाजपा सरकार ने दिल्ली पुलिस पर कोई अंकुश लगाया है। 

आकंड़े नहीं, अनुभव महत्वपूर्ण

मोदी सरकार को इन चुनावों से यह सबक भी मिला होगा कि महँगाई कागज पर कम नजर आने से जनता को होने वाली चुभन कम नहीं हो जाती है। हाल के दिनों में थोक महँगाई दर करीब शून्य हो गयी, लेकिन दिसंबर की सर्दियों में जिस समय आम तौर पर सब्जियाँ सबसे सस्ती हुआ करती हैं, उस समय दिल्ली में सब्जियों के खुदरा भाव गर्मियों के मौसम का अहसास कराने लगे थे। हालाँकि बाद में इनके दाम घटे भी, मगर लोगों के बीच यह धारणा तो बैठ ही गयी कि भाजपा शासन में भी महँगाई का कहर जारी है।

विकास नहीं, विचलन हुआ खारिज

लेकिन यदि दिल्ली विधानसभा चुनाव के इन नतीजों से यह निष्कर्ष निकाला जाये कि लोगों ने मोदी सरकार के विकास के नारे को नकार दिया है, तो यह गलत होगा। दरअसल लोगों ने विकास के नारे से भाजपा के विचलन को नकारा है। दिल्ली के चुनाव प्रचार में ऐसी तमाम बातें कही गयीं, जिन्होंने भाजपा को वापस कट्टर हिंदुत्व की ओर लौटता दिखाया। लोकसभा के चुनाव में लोगों ने कट्टर हिंदुत्व को नहीं, विकास के सपने को बहुमत दिया था। भाजपा को अगर आगे के लिए सँभलना है तो उसे फिर से विकास के नारे को ही प्रमुखता देनी होगी। वह भी ऐसा विकास, जो लोगों को छूते हुए आगे बढ़े, न कि केवल जीडीपी के आँकड़ों में ही नजर आये। 

(देश मंथन 12-02-2015)

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