कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
शर्म कहीं मिलती है? दिल्ली में कहीं मिलती है? अपने देश में कहीं मिलती है? यहाँ तो कहीं नहीं मिलती! किसी को उसकी जरूरत ही नहीं है! यह देश की राजधानी का आलम है। जहाँ बड़ी-बड़ी सरकारें हैं। वहाँ अस्पतालों की ऐसी बेशर्मी, ऐसी बेहयाई है कि शर्म कहीं होती तो शर्म से चुल्लू भर पानी में डूब मरती! लेकिन दिल्ली में कुछ नहीं हुआ। न अस्पतालों को, न सरकारों को! सब वैसे ही चल रहा है, जैसे कुछ हुआ ही न हो!
मर गया तो क्या हुआ?
हाँ, हुआ क्या? यही न कि शहर के कई अस्पतालों ने डेंगू से बीमार एक गरीब बच्चे का इलाज करने से इनकार कर दिया और बच्चे की मौत हो गयी। क्योंकि अस्पतालों को ‘मोटा पैसा’ नहीं मिल पाता उससे! यह क्या बड़ी बात है? दिल्ली के निजी और सरकारी अस्पतालों में तो आये दिन ऐसे किस्से होते ही रहते हैं! गम में बच्चे के माता-पिता ने आत्महत्या कर ली! क्या बड़ी बात है? लोग तो आत्महत्याएँ करते ही रहते हैं! किसान बीस सालों से आत्महत्याएँ करते ही आ रहे हैं। देश में किसे फिक्र हुई? तो अगर एक मासूम बच्चे के गमजदा माँ-बाप ने आत्महत्या कर ली, क्या बड़ी बात हो गयी? सरकारें क्या करें? उन्होंने अस्पतालों को नोटिस दे दी! खानापूरी हो गयी! काम खत्म! अस्पताल क्यों डरते? एक हफ्ते बाद देश की राजधानी में एक और गरीब बच्चा इसी तरह मर गया, क्योंकि ‘पैसाखोर’ अस्पतालों ने उसे अपने दरवाजों से लौटा दिया!
चल रही है ‘मिनिमम गवर्नमेंट’!
इससे बड़ा मजाक क्या होगा? यहाँ दिल्ली में एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन सरकारें चलती हैं! एक प्रधान मन्त्री की, एक मुख्य मन्त्री की और एक नजीब जंग की! मेरा पावर-तेरा पावर की काटम-कूट वीर सरकारें! लेकिन अस्पतालों के कान कौन पकड़े? चार मासूम मौतें हो गयीं। दो बच्चों की, उनके माता-पिता की। अस्पतालों का क्या बिगड़ा? क्या कार्रवाई हुई? कौन पकड़ा गया? केजरीवाल क्या करें? पहले तो नजीब जंग उन्हें कुछ करने दें! जंग साहब तो मानते ही नहीं कि दिल्ली में कोई चुनी हुई सरकार भी है। उनकी अपनी अलग सरकार है, जो केन्द्र के हुक्म पर चलती है। आज भी अफसरों से वह यही कह रहे हैं! और हाँ, इन अस्पतालों में कोई ‘आप’ वाला भी नहीं निकला, इसलिए जंग साहब की ‘यस सर तत्पर’ जंगी पुलिस ने भी कोई जंग नहीं छेड़ी! वरना अब तक तो मंगल ग्रह तक सबको पता चल गया होता कि दिल्ली पुलिस क्या चीज है? ‘मिनिमम गवर्नमेंट’ क्या होती है, दिल्ली वाले देख रहे हैं और अस्पताल वाले उसका आनन्द लूट रहे हैं! ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ का जमाना है! प्राइवेट अस्पताल वालों के लिए बिजनेस का ‘पीक टाइम’ है डेंगू। उन्हें बिजनेस करने दीजिए। डिस्टर्ब मत कीजिए! वरना ‘इकॉनॉमिक ग्रोथ’ कैसे होगी?
वैसे ‘मिनिमम गवर्नमेंट’ कोई नरेन्द्र मोदी का अपना आविष्कार नहीं है। हम तो आजादी के बाद से अब तक ‘मिनिमम गवर्नमेंट’ ही देख-देख कर उम्र गुजार गये हैं! इसलिए सरकार होती तो सब जगह हैं, केन्द्र में, राज्यों में, लेकिन वह इतनी ‘मिनिमम’ होती है कि हो कर भी किसी को नहीं दिखती!
नौ साल से रुका एक कानून!
अब अस्पतालों को ही ले लीजिए। अस्पताल सरकारी हों या निजी। आये दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं कि अस्पतालों ने मरीज को लेने से मना कर दिया और अस्पतालों के चक्कर काटते-काटते उसकी मौत हो गयी! क्यों हम आज तक ऐसा कोई कानून नहीं बना पाये कि कोई अस्पताल किसी मरीज को ‘इमरजेन्सी’ की हालत में लौटा नहीं सकता। उसके पास उस बीमारी के इलाज की सुविधा न भी हो, तो भी कम से कम फौरी मेडिकल देख-रेख दे कर उसे दूसरे अस्पताल तक पहुँचाने की जिम्मेदारी अस्पताल की ही होनी चाहिए। और अगर ड्यूटी पर मौजूद लोग अगर ऐसा नहीं करते तो क्यों नहीं उन्हें जेल की सजा होनी चाहिए? क्या दिक्कत है ऐसा कानून बनाने में? शायद बहुत कम लोगों को याद होगा कि नौ साल पहले विधि आयोग (Law Commission of India) ऐसे एक क़ानून (Emergency Medical Care to victims of Accidents and during Emergency Medical Condition and Women Under Labour, August 2006) का मसौदा सरकार को दे चुका है। वह मसौदा तब से सरकारी आलमारियों में कहाँ दबा-दबाया पड़ा होगा, किसे पता? तब से जाने कितने गरीब इस तरह अस्पतालों के चक्कर काटते-काटते मरे होंगे! चलिए, मान लिया कि वह यूपीए की निकम्मी सरकार थी, अब आप तो उस पर काम शुरू कीजिए। हालाँकि इस सरकार का ही रिकार्ड कौन-सा बेहतर है। अपने वरिष्ठ मन्त्री की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद कहा गया था कि सरकार एक महीने में बहुत कड़ा मोटर वाहन कानून (Motor Vehicle Act) लायेगी। पन्द्रह महीने तो हो गये हैं। अभी कानून का मसौदा ही नहीं तैयार हो सका है!
हर मरीज ‘टारगेट’ है!
यह एक पहलू है, दूसरी बड़ी समस्या है प्राइवेट अस्पतालों में चल रही खुली लूट और बेइमानी, उसका इलाज क्यों नहीं ढूँढा जा सकता? सबको मालूम है कि प्राइवेट अस्पतालों ने डॉक्टरों के ‘टारगेट’ तय कर रखे हैं, कितने रुपये के पैथालॉजिकल टेस्ट उन्हें हर महीने लिखने हैं, महीने में कितने लोगों को ऑपरेशन के लिए ‘रिफर’ करना है, कौन-सी महँगी दवाइयाँ लिखनी हैं! हर मरीज उनके लिए ‘टारगेट’ है! और महँगी दवाइयों का तो पूरा का पूरा रैकेट है। एक ही दवा के अलग-अलग ब्राँड की कीमत दो रुपये से लेकर तीस रुपये तक हो सकती है। अब यह डॉक्टरों पर निर्भर है कि वह आपको दो रुपये वाली दवा लिखें या पन्द्रह रुपये वाली या तीस रुपये वाली। सस्ती से सस्ती और महँगी से महँगी दवाओं के मामले में यह रैकेट जारी है। कैंसर की दवा 35 हजार रुपये की भी आ सकती है और वही दवा कोई और कम्पनी किसी और ‘ब्राँड नेम’ से डेढ़ लाख रुपये की भी बेचती है। दिल के मरीजों को लगने वाले ‘स्टेंट’ का भी यही रैकेट है, क्वालिटी वही लेकिन दामों में जमीन-आसमान का फर्क! हालत यह है कि आप किसी अस्पताल में जाइए, बड़ा हो, छोटा हो, नामी-गिरामी हो, आप आश्वस्त हो ही नहीं सकते कि अस्पताल ने आपसे जो खर्चे कराये थे, वह जरूरी थे या गैर-जरूरी, जो टेस्ट लिखे, जो दवाएँ लिखीं, वह जरूरी थीं या नहीं! ऐसी-ऐसी भयानक शिकायतें अस्पतालों के बारे में रोज मिलती रहती हैं कि रूह काँप जाये। इसी तरह पैथालॉजी लैब की अन्धाधुन्ध लूट चल रही है। कौन से टेस्ट का कितना पैसा उन्हें लेना चाहिए, कुछ हिसाब नहीं!
क्यों नहीं बनाते मेडिकल नियामक प्राधिकरण?
सबको पता है कि फार्मा कम्पनियों, पैथ लैब और डॉक्टरों-अस्पतालों का गँठजोड़ किस तरह मरीजों को निचोड़ रहा है, लेकिन आज तक किसी सरकार ने कुछ सोचा ही नहीं कि इस पर काबू कैसे पाया जाया। जान से ज्यादा कीमती चीज किसी के लिए क्या हो सकती है? फिर भी किसी सरकार को आज तक इसकी कोई चिन्ता क्यों नहीं हुई! ठीक है कि निजी अस्पताल हैं, मुनाफा भी उन्हें कमाना है, किसी को इस पर एतराज नहीं है। लेकिन उनके लिए कुछ कायदे-कानून तो हों, उनके कामकाज के नियमित ऑडिट का कोई तन्त्र तो हो, यह कोई कठिन काम नहीं है। मेडिकल नियामक प्राधिकरण (Medical Regulatory Authority) बन सकता है, जो देश भर में मेडिकल चिकित्सा की गुणवत्ता और कीमत दोनों की निगरानी कर सकता है। क्या सरकार हुजूर से यह छोटा-सा कदम उठेगा?
(देश मंथन, 19 सितंबर 2015)