कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार
यह ‘डांस आँफ डेमोक्रेसी’ है! लोकतंत्र का नाच! राजस्थान के किसान गजेन्द्र सिंह कल्याणवत की मौत के बाद जो हुआ, जो हो रहा है, उसे और क्या कहेंगे? यह राजनीति का नंगा नाच है।
बेशर्म अश्लील, घमंड से मदान्ध और उन्मत्त नाच! और जो हो रहा है, सब लोकतंत्र के नाम पर हो रहा है, लोकतंत्र के लिए हो रहा है! नेता, पार्टियाँ, मीडिया हर कोई लोकतंत्र के जयकारे लगा रहा है और लोकतंत्र को नचा रहा है। मुखौटे नाच रहे हैं, झाँसों के व्यापारी नाच रहे हैं! ब्राँड अलग-अलग हैं, मुखौटे अलग-अलग हैं, रैपर अलग-अलग हैं, लेकिन भीतर साबुन सबके पास वही एक ही है, जो मैल धोता नहीं, बल्कि जितना रगड़ो, उतना और मैला कर देता है! RELATED POST यह भी पढ़ें खेती करके वह पाप कर रहे हैं क्या? कैसे चलती रही रैली? बीचों-बीच रैली में एक मौत हो जाये, चाहे किसी भी कारण से हो जाये और रैली वैसे ही चलती रहे, हैरत की बात है! पेड़ पर एक आदमी चढ़ जाये, अपने को आप की आम आदमी पार्टी का ही कार्यकर्ता बताये, मंच से उसे नीचे आने की अपीलें होती रहें, पुलिस निठल्ली घूमती रहे, नीचे पार्टी कार्यकर्ता खड़े हों, सब तमाशा देखते रहें, उस आदमी के ‘लटक जाने’ की ख़बर भी मंच तक पहुँच जाये, मंच पर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री मौजूद हों और रैली बदस्तूर चलती रहे, हैरत की बात है! पार्टी का कोई जिम्मेदार नेता यह भी जहमत न करे कि मंच छोड़ कर कुछ कदम चल कर ही देख आये कि आखिर हुआ क्या? सही बात है कि अरविन्द केजरीवाल तो उसे पेड़ पर चढ़ कर नहीं बचा सकते थे, लेकिन ‘लटक गया’ सुन कर तो पेड़ तक जा सकते थे! ख़ुद अपनी आँखों से उसकी हालत देखने जा सकते थे न। आखिर ‘जनता के सीएम’ हैं। दिल्ली का बजट बनाने के लिए जनता के बीच जा सकते हैं, तो अपने ही एक कार्यकर्ता के ‘लटक जाने’ पर उसका हाल लेने जनता के बीच क्यों नहीं जा सकते थे? माफी तो माँगी, लेकिन…। और अगर रैली रोक ही देते तो क्या हो जाता? केजरीवाल का भाषण होना बाकी था, तो उसके लिए कुछ दिन बाद फिर रैली कर लेते! रैली न सही, एक-दो दिन बाद एक-दो घंटे के धरने पर बैठ जाते, जो बातें रैली में कहनी थीं, धरने पर कह देते, कोई प्रेस कान्फ़्रेन्स करके कह देते! ऐसा क्या था कि एक आदमी के ‘लटक जाने’ की खबर के बाद भी मोदी सरकार पर हमला करने का काम टाला नहीं जा सकता था? वह काम, जो किसी भी राजनीतिक दल का रूटीन काम है। तो किसी का पेड़ से लटक जाना क्या उससे भी कहीं ज्यादा ‘रूटीन’ है? हैरत इसी पर होती है कि कुल दो साल पहले राजनीति में कदम रखने वालों की चमड़ी इतनी जल्दी इतनी मोटी कैसे हो गयी? और वह भी राजनीति के उसी रूटीन का हिस्सा बन गये, जिसके खिलाफ बगावत करने वह आये थे। ऐसा न होता तो वे राजनीति के बदचलन रूटीन पर चल बेहयाई से अपना बचाव करने के बजाय अपनी शर्मनाक गलती पर पहले दिन से जनता से खुले दिल से माफी माँग रहे होते, प्रायश्चित में राजघाट पर जा कर मौन व्रत पर बैठे होते। उन्हें गाँधी की उस तसवीर की याद जरूर आयी होती, जिसके नीचे बैठ कर वह राजनेताओं के अहंकार को कोसा करते थे, आज वह खुद उसी अहंकार की प्रतिमूर्ति क्यों हो गये? हालाँकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर आ गयी कि केजरीवाल ने रैली जारी रखने के लिए गलती मान ली है और माफी माँगी है, लेकिन माफी में बात अगर केवल माफी की ही की जाती तो बेहतर होता। घिनौनी राजनीति में लगी पार्टियाँ! और गजेन्द्र की मौत पर क्या घिनौनी राजनीति हो रही है।
काँग्रेस और बीजेपी को बैठे-बिठाये नये-नये तीर मिल गये। काँग्रेस को भूमि अधिग्रहण बिल पर मोदी सरकार को पटखनी देने का दाँव हाथ लग गया तो बीजेपी दिल्ली पुलिस के बहाने ‘आप’ को नापने में लग गयी है। होना तो यह चाहिए था कि केन्द्र सरकार इस पूरे मामले में दिल्ली पुलिस की भूमिका की जाँच कराती कि उसकी मौजूदगी में इतनी बड़ी घटना कैसे हो गयी? लेकिन इसके बजाय केन्द्र सरकार इसमें लगी है कि अपनी पुलिस का ‘इस्तेमाल’ कर कैसे ‘आप’ को फँसाया जाये। अगर बीजेपी और केन्द्र सरकार ईमानदार होती तो सीधे न्यायिक जाँच की घोषणा करती ताकि कोई षड्यंत्र होता तो वह भी सामने आता और पुलिस की भूमिका भी साफ होती। बाकी आत्महत्या के मामले की जाँच पुलिस और मजिस्ट्रेट मिल कर कानून के अनुसार करते रहते। कह सब रहे हैं कि इस मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए, लेकिन सबके सब पूरी निर्लज्जता से गलीज राजनीति कर रहे हैं। मूल मुद्दा लापता है। मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण बिल को बदलने पर मजबूर हो जाये, तो काँग्रेस को उसका श्रेय लेने का मौका मिल जायेगा। इसलिए काँग्रेस लार टपका रही है, लेकिन किसानों की समस्या अधिग्रहण से कहीं आगे की है। वह बरसों से लगातार आत्महत्याएँ करते आ रहे हैं। अब तक उनके नाम पर राजनीति के अलावा कभी और कुछ नहीं हुआ।
अब गजेन्द्र की मौत के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जरूर बयान दिया है कि किसानों की हालत सुधारने के लिए वह सबकी बात सुनने को तैयार हैं, हर अच्छे सुझाव पर विचार करने को तैयार हैं। चलिए इतना तो हुआ। अच्छी बात है। बस दो बातों का सवाल है सरकार बहादुरों किसानों की क्या समस्याएँ हैं, सबको मालूम हैं। परिवारों के बँटते रहने से जोत लगातार छोटी होती जा रही है, नकद फसलों और विदेशी बीजों के इस्तेमाल से खेती की लागत लगातार बढ़ गयी है, किसानों को सस्ता कर्ज नहीं मिलता, फसल का बीमा नहीं है, फसल का सही दाम नहीं मिलता और फसल बर्बाद हो जाये तो घाटे की भरपाई हो ही नहीं पाती। छोटे किसानों की कमायी तो इतनी कम है कि वह मामूली-सा घाटा भी सह पाने की हालत में नहीं हैं। फिर जो किसान बँटाई पर काम करते हैं, फसल बर्बाद होने पर मुआवजा तो उन्हें मिलता नहीं। पैसा उनका डूबता है और मुआवजा उसे मिलता है, जिसकी जमीन होती है। सरकारों के पास कोई रिकार्ड नहीं होता कि किस किसान ने क्या बोया है, कितना पैसा लगाया है और अगर उसका नुकसान होगा तो कितने का होगा और उसे कितना मुआवजा मिले कि घाटा पूरा हो जाये! इन सवालों पर बरसों से चर्चा हो रही है। हल कुछ नहीं निकला। चर्चा इस पर भी हो रही है कि लागत पर मुनाफा तय किया जाये, न कि सरकार मनमाने तरीके से समर्थन मूल्य घोषित करे। माँग जायज है क्योंकि खेती में मुनाफा खासकर छोटे किसानों के लिए लगभग न के बराबर रह गया है। सबसे पहले इसका हल ढूँढ़ना पड़ेगा कि खेती में मुनाफा कैसे बढ़ाया जाये, छोटे और बँटाई वाले किसानों के लिए क्या किया जाये, हर किसान को बैंक से सस्ता कर्ज कैसे मिले, कर्ज वसूली में मानवीय पहलू को कैसे शामिल किया जाये, नुकसान होने पर किसान को किसी हालत में नुकसान से कम मुआवजा न मिले, फसल का अनिवार्य बीमा हो (इसे लागू करेंगे तो हर फसल का सही रिकार्ड अपने आप रखा जाने लगेगा)।
इसके अलावा सिंचाई और भंडारण की बड़ी गम्भीर समस्याएँ तो हैं हीं, जिन पर काम होना चाहिए, लेकिन सबसे जरूरी दो बातें हैं। एक खेती में मुनाफा बढ़ाइए और दो, किसी किसान को एक रुपये का नुकसान भी न होने पाये, इसकी पक्की व्यवस्था कीजिए। कस्तूरी और गलती! तो सरकार बहादुरों, क्या आपसे ये दो काम हो सकते हैं? अपनी गन्दी राजनीति को कुछ दिन के लिए अपनी दराजों में बन्द रखिए और इन दो बातों पर बैठ कर बात कीजिए, कोई हल निकालिए। आप सब बहुत नचा चुके जनता को, लोकतंत्र को। गजेन्द्र की मौत के बाद के दो दिनों में सबके मुखौटे उतरे हैं। उनके भी जो कभी आम आदमी होते थे, लेकिन आज राजनेता हैं! जो समझना चाहता है, वह समझ लेता है कि समय उसे क्या और क्यों सिखाना चाहता है? कस्तूरी की तरह गलती भी भीतर ढूँढ़नी चाहिए, बाहर नहीं!
(देश मंथन, 27 अप्रैल 2015)