खून में सने बासित कुबूल नहीं

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पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :

हालाँकि मैं गुलाम अली साहब की इस तकरीर से कतई सहमत नहीं हूँ कि सुरों से सरहद की दूरी कम होगी, चंद सियासतदां हिंदुस्तान-पाकिस्तान की दोस्ती में रोड़े अटका रहे हैं और दोनों मुल्क के बीच कलाकारों के जरिए रिश्ते मजबूत होंगे। वह सरासर बकवास कर रहे थे।

यूँ लगा कि 68 साल पुराना घिसा हुआ रिकार्ड गजल शहंशाह प्रेस कांफ्रेंस में बजा रहे हों। ये सब लफ्फाजियाँ सुनते सुनते कान पक चुके हैं गुलाम अली साहब। सच तो यह है कि जब तक पाकिस्तान में हिंदुस्तान के खिलाफ अवाम को सुन्नत की तरह नफरत की घूंटी पिलानी बंद नहीं की जाएगी तब तक दोस्ती की बात सोचना ही हराम है। 

यह सब छोड़िए गुलाम अली साहब, आप लगातार दूसरी बार संकटमोचन मुक्तांगन संगीत समारोह में शिरकत करने आएँ हैं। बजरंग बली के दरबार में अपनी मुर्शिकी का नजराना पेश कीजिए और घर जाइए। काशी आपको सुनना चाहती है। क्योंकि अपने राजा भगवान शिव की तरह अजन्मा दुनिया का यह सबसे पुरातन जिंदा शहर अनादि काल से संगीत का भी प्रमुख केंद्र रहा है। यह नगरी संगीतकारों को मजहब से परे रखती है। वह तो उन्हें हमेशा से सरस्वती पुत्र मानती आयी है। 80-90 साल पहले हमारे पैतृक शहर सिरसा में शहनाई नवाज बिस्मिल्लाह साहब को ब्राह्मण कुएँ से पानी निकाल कर स्नान कराते थे। लचीले सनातन धर्म की यही विशिष्टता ही उसे सनातन बनाए हुए है। इसके अलावा वहाबी इस्लाम में संगीत कुफ्र है। गाना-बजाना निषिद्ध और गैर इस्लामी होने से गुलाम अली भी उसी जमात में आते हैं। मैंने भी दैनिक जागरण के वाराणसी संस्करण आरंभ होने के शुरुआती दौर में मंदिर के अतिथि-गृह की छत पर कवरेज के लिहाज से अनुज स्व राधे और अमिताभ भट्टाचार्य के साथ खूब रतजगा किया है। विभोर कर देने वाला यह समारोह बताने की जरूरत नहीं कि तानसेन (ग्वालियर) और स्वामी हरिदास (वृंदावन) संगीत समारोहों की तरह किसी भी कलाकार को राष्ट्रीय पहचान दिलाने का अद्भुत मंच है। 

गुलाम अली साहब का विरोध दरअसल संगीत और माँ सरस्वती का अपमान है और ऐसा करने वाले इसमें जबरन सियासत घुसेड़ रहे हैं। 

हाँ विरोध जम कर हो यदि पाकिस्तानी हाई कमिश्नर बासित अली इस समारोह में शामिल होते हैं। अपनी सरकार की बजाय पाकिस्तानी सेना और बदनाम आईएसआई के इशारों पर नाचने वाले बासित के संकटमोचन मंदिर पर पड़े कदम किसी भी भारतीय का खून खौलने का सबब बन सकते हैं। इसी नापाक आईएसआई से प्रायोजित आतंकियों के सीरियल बम विस्फोटों से मंदिर प्रांगण में विवाह और मुंडन संस्कार करा रहे निरीह श्रद्धालुओं के चिथड़ों में बदली लाशों और दीवारों पर पड़े खून के छींटों के दर्द को हम कदाचित ही कभी भूल पाएँगे। दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग और कुछ नहीं आतंकियों की पनाहगार है। ऐसे में उससे जुड़े किसी भी शख्स की कम से कम गोस्वामी तुलसीदास के इष्टदेव के प्रांगण में मौजूदगी नाकाबिले बर्दाश्त है।

संकटमोचन के महंत प्रो. विश्वंभरनाथ मिश्र ने भी माना कि किसी ने इच्छा जतायी तो एक औपचारिक निमंत्रण भेज दिया गया था। उन्होंने बेहिचक स्वीकार किया कि चूक हमारी ओर से हुई पर बासित अली के आने के लिए उन्हें फिर नहीं कहा जाएगा। हम प्रेस नहीं करेंगे, विश्वास कीजिए। बीएचयू आईटी के प्रोफेसर मिश्राजी से जो जरा भी परिचित है वह उनकी बात पर भरोसा करेगा ही और मैं भी अपवाद नहीं हूँ।

(देश मंथन, 27 अप्रैल 2016)

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