कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
सिर्फ बीस दिन हुए थे। शायद ही ऐसा पहले कभी हुआ हो। देश में कोई नयी सरकार बनी हो और महज बीस दिनों में ही यह या इस जैसा कोई सवाल उठ जाये! तारीख थी 14 जून 2014, जब ‘राग देश’ के इसी स्तम्भ में यह सवाल उठा था-2014 का सबसे बड़ा सवाल, मुसलमान!
और यह सवाल सरकार बनने के फौरन बाद ही नहीं उठा था। ‘राग देश’ के नियमित पाठक अपनी याद्दाश्त पर जोर डालें तो उन्हें याद आ जायेगा। लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान ही यह सवाल उठना शुरू हुआ था, जब इसी स्तम्भ में मैंने लिखा था कि इस चुनाव में पहली बार कैसे देश दो तम्बुओं में बँटा हुआ दिख रहा है और कैसे यह चुनाव आशाओं और आशंकाओं के बीच एक युद्ध बन गया है!
सिर्फ डेढ़ साल और एक सवाल!
क्यों? यह सवाल देश में सिर्फ डेढ़ साल पहले अचानक उठना क्यों शुरू हो गया? आजादी के बाद से अब तक कभी ऐसा सवाल नहीं उठा? लेकिन यह इन्हीं डेढ़ सालों में क्यों उठ रहा है? ऐसा तो नहीं है कि इससे पहले देश में साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए! बहुत बड़े-बड़े और भयानक दंगे हुए। लेकिन यह सवाल ऐसे किसी दंगों के बाद भी कभी नहीं उठा! न 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद उठा, न 1992 के मुम्बई दंगों के बाद उठा और न 2002 के गुजरात दंगों के बाद! ऐसा तो नहीं है कि इससे पहले कभी ईसाइयों को निशाना नहीं बनाया गया। बहुत बार उन पर हिंसक हमले हुए। लेकिन गुजरात के डांग और उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स को जिन्दा जला दिये जाने की बर्बर वारदातों के बावजूद देश में ऐसा सवाल पहले कभी क्यों नहीं उठा?
सवाल यही है कि यह सवाल अभी ही क्यों उठ रहे हैं? पिछले डेढ़ सालों में ही क्यों उठने लगा है? इन डेढ़ सालों में देश में ऐसा क्या बदला है कि जो सवाल बड़े-बड़े दंगों के बाद कभी नहीं उठा, वह अभी क्यों उठ रहा है। एक दादरी की घटना को छोड़ दें तो इन डेढ़ सालों में देश में साम्प्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी वारदात नहीं हुई, यहाँ-वहाँ छिटपुट घटनाएँ हुईं, जो हमेशा होती ही रहती हैं। हर साल ऐसी सैकड़ों घटनाएँ होती हैं, तो इस साल भी हुईं और आँकड़ों को देखें तो शायद पहले से कम भी हुईं। फिर यह असहिष्णुता (Intolerance) का सवाल क्यों उठ रहा है?
मामला असहिष्णुता का है नहीं!
सवाल इतना कठिन नहीं है कि इसका जवाब ढूँढने के लिए बड़ी रिसर्च करनी पड़े, मोटी-मोटी पोथियाँ पलटनी पड़ें। जवाब बड़ा आसान है और साफ है। मामला असहिष्णुता (Intolerance) का है ही नहीं! जो हो रहा है, उसे असहिष्णुता (Intolerance) कह कर या तो आप ‘कन्फ्यूज’ हैं, या लोगों को ‘कन्फ्यूज’ करना चाहते हैं, या मामले की गम्भीरता समझ नहीं रहे हैं, या समझ कर भी उसे कहने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। बहरहाल, बात जो भी हो, पिछले डेढ़ सालों में देश में जो भी हुआ, जो भी हो रहा है, वह असहिष्णुता (Intolerance) का मामला नहीं है। हालाँकि इन मुद्दों पर आयी बहुत-सी प्रतिक्रियाओं में जरूर बड़ी असहिष्णुता (Intolerance) दिखी, लेकिन हम जानते हैं कि आवेश में कभी-कभी ऐसा हो जाता है!
बात को आगे बढ़ाने के पहले यह बात भी साफ हो जाये कि यह मामला न असहिष्णुता (Intolerance) का है और न यह हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच किसी झगड़े का है। बल्कि मामला एक घोषित एजेंडे का है, जिसे देश का एक बड़ा संगठन बाकायदा चला रहा है। एक ऐसे एजेंडा, जिसकी एक निश्चित योजना है, एक खाका है, एक नक्शा है, एक ‘रोडमैप’ है। एजेंडा भी साफ है, और सार्वजनिक है, हिन्दुत्व की स्थापना, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना। और इस एजेंडे को वे लोग चला रहे हैं, जिनका कहना है कि आठ सौ साल बाद देश में हिन्दुओं की सरकार आयी है! याद कीजिए साल भर पहले, नवम्बर 2014 में विश्व हिन्दू काँग्रेस में अशोक सिंहल का बयान, जिसका आज तक किसी ने खंडन नहीं किया, सरकार में बैठे किसी व्यक्ति ने या सरकार चलानेवाली देश की बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के किसी नेता ने न इस बयान का खंडन किया और न आलोचना की! मतलब क्या है इसका? आप कह सकते हैं कि सरकार क्यों इस तरह के ‘दावों’ का खंडन करे? ठीक बात है! लेकिन जब प्रधानमंत्री ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ हो (नरेन्द्र मोदी ने यह बात खुद ही कही थी), जब विश्व हिन्दू परिषद के वही अशोक सिंहल जी प्रधानमंत्री के शपथ-ग्रहण समारोह में पहली पंक्ति में नजर आयें और जब संघ, विहिप और परिवार के बाकी संगठनों के सामने केन्द्र सरकार के मंत्री अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करें, उनसे निर्देश लें तो इसके बाद इसमें कोई शक रह जाता है कि सरकार किस रिमोट कंट्रोल से चल रही है!
सरकार, परिवार और रिमोट कंट्रोल
और इसी रिमोट कंट्रोल ने मोदी सरकार बनते ही ईसाइयों और मुसलमानों के खिलाफ अभियान अचानक शुरू कर दिया। अन्धविश्वास और धार्मिक उग्रवाद के खिलाफ लिखनेवाले लेखकों को निशाना बनाया जाने लगा। जोर-शोर से ‘लव जिहाद’ का हंगामा खड़ा किया था। दिलचस्प बात है कि देश के कई राज्यों में बरसों से बीजेपी की सरकारें चल रही हैं, लेकिन इनमें से कोई भी सरकार आज तक ‘लव जिहाद’ का एक भी मामला पकड़ नहीं पायी! फिर यह मुद्दा क्यों उछाला गया? फिर ‘घर-वापसी’, चार शादियाँ और चालीस बच्चे, हरामजादे और मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की धमकियाँ चलीं। गोमांस के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला गया। स्कूलों के पाठ्यक्रमों का हिन्दूकरण करने की शुरुआत हुई। इतिहास में जो कुछ भी मुसलमानों के नाम पर अच्छा हो, उसको बदलने का अभियान जारी है। हिन्दू त्योहारों से मुसलमानों को अलग रखने के बाकायदा संगठित अभियान चलाये गये। और तो और, उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी की निष्ठा और देशभक्ति पर सवाल उठाये गये, एक बार नहीं, तीन-तीन बार।
और सवाल किसने उठाये। संघ के एक बहुत बड़े और जिम्मेदार नेता ने! उप-राष्ट्रपति की साख पर बार-बार उँगली उठाने का मकसद क्या था? क्या यह महज चूक थी? तो क्या एक ही चूक तीन बार हो सकती है? और जो पार्टी सरकार चला रही है, जब उसका अध्यक्ष कहता है कि बिहार में एनडीए की हार पर पटाखे पाकिस्तान में दगेंगे, तो वह किस समुदाय को निशाना बना रहा है और क्यों? और जब खुद प्रधानमंत्री कहते हैं कि नीतीश-लालू-सोनिया आपका आरक्षण छीन कर किसी और धर्म के लोगों को देना चाहते हैं, तो वह पूरे हिन्दू समाज को किस समुदाय के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं? इसका क्या सन्देश है?
पहले कब किसी ने सेकुलरिज्म का पाठ पढ़ाया?
बताइए, आजाद भारत के इतिहास में कब ऐसा हुआ कि अमेरिका के किसी राष्ट्रपति को या दुनिया के किसी और राष्ट्रनेता को भारत को सेकुलरिज्म का पाठ पढ़ाने की जरूरत पड़ी हो। और क्यों उस जूलियो रिबेरो को पहली बार अपने ईसाई होने का एहसास अजीब लगा, जिसने पंजाब से आतंकवाद के खात्मे के लिए जी-जान लगा दी थी। क्यों पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल सुशील कुमार को भी लगभग ऐसा ही लगा? हंगामा तो तब भी मचा था। देशभक्ति पर सवाल तब भी उठे थे। और हंगामा तब भी मचा, जब अभी हाल में शाहरुख खान ने कहा कि कुछ ‘अनसेकुलर’ (यानी जो सेकुलर नहीं हैं) तत्वों की ओर से असहिष्णुता (Intolerance) बढ़ी है। अगर ऊपर दी गयी घटनाएँ गलत नहीं हैं, तो शाहरुख के बयान में क्या गलत है? क्यों हंगामा हुआ उस पर? और फिर आमिर की बात पर हंगामा हुआ। सवाल उठ सकता है कि आमिर ने यह क्यों कहा कि उनकी पत्नी इतनी चिन्तित हुईँ कि पूछने लगीं कि किसी और देश में रहने जायें क्या? आपत्ति क्या इसी बात पर थी? अगर आमिर केवल यह वाली बात न कहते, तो हंगामा नहीं होता क्या? शाहरुख ने तो ऐसा कुछ नहीं कहा था, फिर हंगामा क्यों हुआ? उनकी देशभक्ति पर क्यों सवाल उठे?
इसमें कोई शक नहीं कि यह देश बड़ा सहिष्णु है और आम हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु है। इसमें भी कोई शक नहीं कि मुसलमानों के लिए भारत से ज्यादा अच्छी जगह और कहाँ होगी? चिन्ता यही है कि कुछ लोग एक सुविचारित और घोषित एजेंड़े के तहत इसे बदलने-बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। आश्चर्य है कि जो लोग देश बिगाड़ने के इन षड्यंत्रों का विरोध कर रहे हैं, आप उनकी ही देशभक्ति पर सवाल उठा रहे हैं! लेकिन एक बात समझ लीजिए। आज आपको रिबेरो, सुशील कुमार, शाहरुख, आमिर और ‘सिकुलरों’ को लताड़ना हो, लताड़ लीजिए। लेकिन जिस एजेंडे पर देश को ले जाने की कोशिश हो रही है, उसे समझिए। धर्म पर आधारित कोई राज्य आधुनिक, उदार और लोकताँत्रिक नहीं होता, हो ही नहीं सकता। इतिहास में, अतीत में, दुनिया में चाहे जहाँ खँगाल कर देख लीजिए, धर्म आधारित राज्यों का चरित्र हमेशा, हर जगह एक ही जैसा रहा है। खाप पंचायतों के विराट और कहीं-कहीं कुछ परिष्कृत संस्करणों जैसा! संस्कृति, परम्पराओं और पोंगापंथी नैतिकताओं के पिंजड़ों में दाना-पानी चुगते हुए जीवन गुजार देने की आजादी से बड़ा कोई भी सपना देखना वहाँ सबसे बड़ा अधर्म होता है। क्या चाहिए आपको, लोकतंत्र या धर्म-राज्य? चुनाव आपका है।
(देश मंथन 01 दिसंबर 2015)