कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:
अक्ल बड़ी कि भैंस? सूखा बड़ा कि आईपीएल? पहले सवाल पर तो देश में आम सहमति है। आज से नहीं, सदियों पहले से। दूसरा सवाल अभी कुछ दिन पहले ही उठा है। और देश इसका जवाब खोजने में जुटा है कि सूखा बड़ा है कि आईपीएल? लोगों को पीने के लिए, खाना बनाने के लिए, मवेशियों को खिलाने-पिलाने के लिए, नहाने-धोने के लिए, खेतों को सींचने के लिए, अस्पतालों में ऑपरेशन और प्रसव कराने के लिए और बिजलीघरों को चलाने के लिए पानी दिया जाना ज्यादा जरूरी है या आईपीएल के मैचों के लिए स्टेडियमों को तैयार करने के लिए पानी देना ज्यादा जरूरी है?
इंडिया में IPL, भारत में सूखा!
वैसे भी कौन मानेगा कि अक्ल उसके पास नहीं है! इसलिए अक्ल को भैंस से बड़ा मान लेने में भला किसे आपत्ति होगी? तो इस पर सर्वसम्मति तो चुटकियों में बन ही गयी होगी। लेकिन सूखा बड़ा कि आईपीएल, इस पर सहमति कैसे बने?
आईपीएल इंडिया में होता है। सूखा भारत में पड़ा है। इंडिया बड़े-बड़े स्मार्ट शहरों का महादेश बनने जा रहा है। भारत तो छोटे-छोटे गाँवों और ढाणियों का देश है। एक विकास के इस छोर पर है, दूसरा दूर, बहुत दूर उस छोर पर। इसलिए देश का 40% भूभाग, दस राज्य और ढाई सौ से ज्यादा जिले अगर सूखे की भयंकर चपेट में हैं और देश में इस पर कहीं कोई चिन्ता नहीं, चर्चा भी नहीं तो हैरानी क्या? शहर को सूखे का मतलब तो तब समझ में आयेगा, जब आटा, दाल, चावल, सब्जियाँ अचानक से और महँगी हो जायें, नलों में पानी कम आने लगे और आनेवाली गर्मियों में आठ-दस घंटे बिजली कटौती होने लगे, तब उसे इस सवाल का जवाब झटपट समझ में आ जायेगा कि सूखा बड़ा या आईपीएल? अभी फिलहाल ऐसा कुछ नहीं है, इसलिए ‘गतिमान एक्सप्रेस’ पर सर्र-सर्र सर्राटा मारते शहर खिड़कियों के बाहर क्या झाँके। वह तो बस नारों, हुँकारों, ललकारों, झनकारों पर तालियाँ और ताल ठोंकते-हुर्राते-गुर्राते व्यस्त है।
खाने की थाली या IPL की ताली?
वैसे, ऐसा नहीं है कि ‘भारत वाले’ आईपीएल नहीं देखते हैं, या नहीं देखना चाहते हैं। खूब जम कर देखते हैं, लेकिन जब मटके भर पानी के लिए आठ-दस घंटे लाइन लगानी पड़े, या मीलों चल कर जाना पड़े, दो-दो, तीन-तीन दिन या कहीं-कहीं उससे भी ज्यादा हफ्ते-दस दिन तक टैंकर के आने इन्तजार करना पड़े या पुलिस के डंडे खाने पड़ें, तब हाथ किस चीज के लिए कलपेंगे, खाने की थाली के लिए या आईपीएल की ताली के लिए?
जल भंडारों में बस 25% पानी
देश इस दशक के सबसे भयंकर जल संकट से जूझ रहा है। देश के 91 जल भंडारों में अब केवल 25% पानी बचा है। मानसून इस बार अच्छा होने की सम्भावना है, लेकिन मानसून आने के पहले इन जल भंडारों में पानी कहाँ से आयेगा? गरमी का हाल इस साल कहीं ज्यादा बुरा होने का अनुमान है। आन्ध्र और तेलंगाना में तो अभी शुरुआती गरमी में ही सौ से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। देश के कई और हिस्सों में तापमान सामान्य से कहीं ज्यादा हो चुका है। अगले तीन महीनों में जून तक जैसे-जैसे गरमी बढ़ेगी, पानी का संकट और गहरायेगा। अभी ही हालत यह है कि मराठवाड़ा से ऐसी खबरें आयी हैं कि पानी की कमी के कारण अस्पतालों में डॉक्टरों ने ऑपरेशन टाल दिये हैं। प्रसव को टाला नहीं जा सकता, इसलिए अस्पताल किसी तरह उसका इन्तजाम कर रहे हैं।
न खेती, न काम, न रोटी, न पानी
गाँवों में हालात बेहद खराब हैं। लोग बूँद-बूँद पानी को तरस रहे हैं। खेती का काम धन्धा ठप पड़ा है। लोग या तो मनरेगा में काम पाने की जुगाड़ में हैं या फिर शहरों को पलायन कर रहे हैं। लेकिन मनरेगा में भी काम सौ के बजाय पचास से भी कम दिन मिल पा रहा है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर केन्द्र सरकार को लताड़ भी लगायी है। गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र की सरकारों के लचर रवैये पर अदालतों ने सवाल उठाये हैं। महाराष्ट्र में चारे और पानी की कमी के कारण मवेशियों को पालना दूभर हो चुका है। कई परिवार तो मवेशी चारा शिविरों में अपने मवेशियों के साथ खुद भी दिन काट रहे हैं। औसतन हर दिन नौ किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश की हालत भी अच्छी नहीं है।
बिजली संकट का भी खतरा
लेकिन अब आँच शहरों तक भी पहुँचने वाली है। पनबिजलीघरों को पानी पहुँचानेवाले जलभंडारों में इस बार पिछले साल के मुकाबले 31% कम पानी बचा है। कोयले से चलने वाले कुछ बिजलीघर भी जल संकट से प्रभावित हो सकते हैं। बल्कि खबरें तो अभी ही हैं कि कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के कुछ बिजलीघर और एनटीपीसी की फरक्का इकाई पहले ही ठप हो चुकी है। गरमी बढ़ने के साथ बिजली की माँग बेतहाशा बढ़ती है। जल संकट से बिजली संकट भी बढ़ सकता है।
आईपीएल को लेकर विवाद क्यों है? इसलिए कि महाराष्ट्र में होनेवाले बीस मैचों के लिए स्टेडियमों को तैयार रखने के लिए छह करोड़ लीटर पानी की जरूरत पड़ेगी। सवाल उठाया जा रहा है कि जब इतना गम्भीर जल संकट है, तो खेल तमाशे पर इतना पानी बरबाद करने की क्या जरूरत है? फिलहाल मुद्दा अदालत में है। तर्क दिया जा रहा है कि स्टेडियम में छिड़का जानेवाला पानी पीने लायक नहीं होता! ठीक बात है, लेकिन वह पानी तमाम दूसरे काम तो आ सकता है न! एक और तर्क है कि क्या यह पानी बचा लेने से संकट खत्म हो जायेगा? संकट खत्म हो या न हो, लेकिन कम से कम इससे संकट को लेकर संवेदनशीलता तो दिखेगी। यह सन्देश तो जायेगा कि सबको पानी बचाना चाहिए। इस मामले में कैलिफोर्निया से सीखें कि उसने अपने नागरिकों के बीच कैसे पानी बचाने की मुहिम चलायी।
पैंसठ साल में 70% कम हो गया पानी!
दरअसल, पानी के सवाल पर हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। यह कोई मानसून की कमी भर की समस्या नहीं है, बल्कि हमारी पूरी जल नीति की विफलता है और अगर हमने भूल सुधार नहीं किया तो अगले कुछ वर्षों बाद स्थिति विकट हो जायेगी। क्या आपको पता है कि आज से पैंसठ साल पहले 1951 में देश में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता पाँच हजार घनमीटर से ज्यादा थी, जो 2001 में घट कर 1816 और 2011 में उससे और घट कर 1545 घनमीटर ही रह गयी। यानी 1951 के मुकाबले 70% कम! जबकि दुनिया में यह औसत प्रति व्यक्ति छह हजार घन मीटर है! अन्दाज लगा लीजिए कि आप कहाँ खड़े हैं और आगे क्या होगा?
इस सच्चाई पर नजर डालिए
देश का भौगोलिक क्षेत्रफल तो बदल नहीं सकता। न ऐसा हो सकता है कि बढ़ती आबादी के साथ हर साल बरसात भी बढ़ती रहे। बरसात का औसत तो वही रहेगा, जो पचास-साठ या सौ साल पहले था। तो अब देखिए। देश को वर्षा और बर्फबारी से हर साल औसतन चार हजार BCM (बिलियन क्यूबिक मीटर) पानी मिलता है, लेकिन वाष्पीकरण के साथ-साथ कुछ प्राकृतिक, भौगोलिक व अन्य कारणों से केवल इसमें से 1123 BCM पानी ही हमें मिल पाता है। यानी केवल एक चौथाई के आसपास। 1951 में आबादी 36 करोड़ थी, आज उसकी तिगुनी से भी अधिक यानी करीब सवा अरब है। पानी तो उतना ही रहा। आबादी बढ़ गयी, जल संसाधन बढ़ाने के लिए हमने वह किया ही नहीं, जो करना चाहिए था।
पाँच हजार बाँध, फिर भी संकट?
हमने क्या किया। बड़े-बड़े बाँध बनाये। करोड़ों लोगों को उनके घरों से विस्थापित किया और नदियों को तबाह कर दिया। पाँच हजार से ज्यादा छोटे-बड़े बाँध बना कर हम दुनिया में बाँधों के मामले में हम तीसरे नम्बर पर हैं। बाँधों से बिजली उत्पादन में तो मदद मिली, लेकिन खेती में बाँधों के पानी का योगदान मामूली है। 60% सिंचाई भूगर्भ जल पर ही आधारित है। बाकी बड़ा हिस्सा मानसून पर। पेयजल के लिए शहरों में 30 और गाँवों में 70% पानी जमीन के नीचे से निकाला जाता है। भूगर्भ दोहन के मामले में हम दुनिया भर में सबसे आगे हैं, लेकिन पानी की बरबादी रोकने और जल संरक्षण के मामले में हमारा रिकार्ड बेहद खराब है। खेती, उद्योगों और घरेलू इस्तेमाल तक में पानी की बरबादी को लेकर हमारे यहाँ कोई चेतना नहीं है। उपलब्ध पानी का लगभग आधा हम बेकार में बरबाद कर देते हैं। मानसून के पानी के संरक्षण के लिए ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ पर हमारे यहाँ कुछ भी नहीं किया गया। हमने सिर्फ इन दो छोटी-छोटी बातों पर ही ध्यान दे दिया होता तो हमारी ऐसी बुरी गत न बनी होती। अगर हम अब भी न चेते तो अगले तीस साल बाद की बढ़ी आबादी के बाद क्या हालत होगी, इसका अन्दाजा आप ऊपर दिये गये आँकड़ों को देख कर लगा सकते हैं। और गाँवों से ज्यादा मुसीबत शहरों पर टूटेगी। अभी देश की शहरी आबादी 32 करोड़ है, जो 2050 तक बढ़ कर 84 करोड़ हो जायेगी। अभी 90% शहरी आबादी के पास पानी के कनेक्शन नहीं हैं, टैंकरों या दूसरे स्रोतों से उनका काम चलता है। तीस बरस बाद क्या होगा?
तो असली मुद्दों पर सोचिए महोदय!
तो पानी पर सोचिए महोदय। नकली नहीं, असली मुद्दों पर सोचिए। और गम्भीरता से सोचिए। उद्धव ठाकरे ने सही चेताया है। पानी नहीं रहेगा, तो ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाने के लिए कौन रहेगा?
Raagdesh.com
(देश मंथन 09 अप्रैल 2015)