श्रीकांत प्रत्यूष, संपादक, प्रत्यूष नवबिहार :
मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल को बुधवार को बर्खास्त कर दिए जाने को लेकर एकबार फिर से राज्यपालों को जबरिया हटाये जाने का मामला गरमा गया है। राज्यपाल को हटाये जाने का बहाना सरकार चाहे जो भी बनाये गुजरात के राज्यपाल के रूप में कमला बेनीवाल और तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कड़वाहट भरे रिश्ते किसी से छुपे नहीं थे।
लोकायुक्त की नियुक्ति और कुछ अन्य विधेयकों को लेकर दोनों के बीच टकराव हुआ था। इसके अलावा कमला बेनीवाल ने राज्य विधानसभा में पास विभिन्न विधेयकों को भी रोक दिया था। उनमें से एक स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण देने के संबंध में था। पुडुचेरी के उपराज्यपाल वीरेंद्र कटारिया को हटाए जाने के बाद बेनीवाल बर्खास्त की जाने वाली दूसरी राज्यपाल हैं। सबसे पहले कमला बेनीवाल का तबादला गुजरात से मिजोरम किया गया लेकिन फिर भी जब उन्होंने अपना पद नहीं छोड़ा तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। कमला बेनीवाल का कार्यकाल केवल दो महीने बचे थे, ऐसे में उन्हें बर्खास्त करने की करवाई को बदले की कारवाई नहीं तो और क्या समझा जाये?
कमला बेनीवाल की बर्खास्तगी को न्यायसंगत बताने वाले बीजेपी के नेताओं को क्या इतनी सी बात भी समझ में नहीं आती है कि यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को जबरिया हटाये जाने का काम न केवल उनकी पार्टी लाइन के बिरुद्ध है बल्कि राज्यपालों को हटाये जाने से सम्बंधित सुप्रीम कोर्ट के 2010 के आदेश की भी अवहेलना है। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के द्वारा न्यायधीश के लिए प्रस्तावित गोपाल सुब्रमण्यम के नाम को इंटेलिजेंस की रिपोर्ट का हवाला जिस तरह से सरकार ने लौटा दिया था, उससे साफ हो गया था कि न्यायपालिका को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाये जाने की सरकारी कवायद एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है। दरअसल मोदी सरकार न्यायपालिका पर पहली सरकारों की तरह ही अपना प्रभाव बनाए रखना चाहती है। तभी तो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश भी इस मामले पर ज्यादा दिनों तक चुप्पी नहीं साध पाये और सार्वजनिक रूप से अपनी पीड़ा का इजहार कर दिया।
स्वेच्छा से पद नहीं छोड़ने पर गुजरात और कर्नाटक के राज्यपाल का तबादला करके और फिर उनके सेवानिवृति के लिए दो महीने का इंतजार न कर उन्हें बर्खास्त कर सरकार ने यह साफ कर दिया है कि यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को मोदी बख्शनेवाले नहीं हैं। अबतक पाँच राज्यों, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एम् के नारायणन, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी एल जोशी, छतीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त, नागालैंड के राज्यपाल आश्विन कुमार और गोवा के राज्यपाल बीवी वान्छू अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं और कर्नाटक के राज्यपाल एच आर भारद्वाज, त्रिपुरा के राज्यपाल देवानंद कुंवर का कार्यकाल अभी हाल ही में खत्म हुआ है। जाहिर है मोदी सरकार बाकी बचे बिहार और दूसरे राज्यों के राज्यपालों को भी जबरिया बाहर का रास्ता दिखा देगी।
राज्यपालों की नियुक्ति मंत्री परिषद् की सलाह पर पाँच साल के लिए राष्ट्रपति करते हैं। राष्ट्रपति की तरह महाभियोग के जरिये राज्यपालों को हटाये जाने का प्रावधान नहीं है राज्यपालों को नियुक्त और पदमुक्त करने का अधिकार केवल राष्ट्रपति को ही है। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर भ्रष्टाचार और संविधान के अनुकूल आचरण नहीं करने के आरोपी राज्यपालों को हटा सकते हैं। लेकिन अबतक राज्यपालों को हटाये जाने के तरीके से साफ जाहिर है कि उनकी नियुक्ति भले ही संवैधानिक नियमों के हिसाब से होती है लेकिन उन्हें हटाने के लिए जरुरी संवैधानिक नियमों का ध्यान नहीं रखा जाता। वगैर किसी ठोस आधार और आरोप के सत्ता बदलने के साथ राज्यपालों को जबरिया बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। मोदी सरकार द्वारा पुरानी सरकार के कार्यकाल में नियुक्त राज्यपालों को जबरिया हटाये जाने की ये करवाई नयी नहीं है। शुरू से ही इसी परिपाटी का पालन सभी सरकारों द्वारा किया जाता रहा है। लेकिन मोदी सरकार जब वहीँ काम कर रही है तो विपक्ष शोर मचा रहा है जिसका वाजिब कारण भी है। एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को जब यूपीए सरकार ने हटाना शुरू किया था तो बीजेपी के आडवाणी और अटल सरीखे नेताओं ने भी विरोध किया था .संघ के ही एक नेता इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गए थे और सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को जबरिया हटाये जाने को 2010 के अपने आदेश में गलत ठहरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बाल कृष्णन के नेतृत्व में बनी पाँच न्यायधीशों की खंडपीठ ने मई 2010 में राज्यपालों को हटाये जाने के संबंध में दायर एक मामले पर सुनवाई करते हुए निर्देश दिया था कि केवल इस आधार पर राज्यपालों को नहीं हटाया जा सकता कि उनकी विचारधारा सताधारी दल से मेल नहीं खाता या फिर राज्यपाल केंद्र सरकार का वह भरोसेमंद नहीं। इसलिए मोदी सरकार से पहले की गलती नहीं दुहराए जाने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन किये जाने की उम्मीद तो स्वभाविक ही है।
संवैधानिक प्रक्रिया को नजर-अंदाज कर राज्यपालों को बर्खास्त करने की परिपाटी की शुरुआत 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने किया था। 1977 में राज्यपालों के बर्खास्तगी के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की अनुशंसा को तत्कालीन राष्ट्रपति बी.डी जति ने वापस लौटा दिया था। संवैधानिक प्रक्रिया के तहत प्रधानमंत्री ने दुबारा अनुशंसा भेजकर राष्ट्रपति को राज्यपालों को बर्खास्त करने के लिए मजबूर तो कर दिया लेकिन इस प्रकरण की वजह से जनता दल सरकार की काफी फजीहत हुई। फिर भी राज्यपालों को को जबरिया हटाये जाने की परम्परा नहीं रुकी। अगर मोदी सरकार यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाना चाहती है, तो उसे कायदे से गृह मंत्रालय की तरफ से सभी राज्यपालों को नोटिस भेजनी चाहिए थी। उनको हटाये जाने का ठोस कारण राष्ट्रपति को बताते हुए उनसे उनकी बरखास्तगी का आग्रह किया जाना चाहिए था। लेकिन सरकार के गृह मंत्रालय के एक नौकरशाह (गृह सचिव) ने जिस तरह से राज्यपालों से फोन इस्तीफा माँगना शुरू किया वह तो न केवल असंवैधानिक है बल्कि बेहद अमर्यादित भी है। इसका साफ मतलब है कि सरकार राज्यपालों को जबरिया हटाये जाने के विवाद और आरोप से बचना भी चाहती है और नौकरशाहों के जरिये दबाव बनाकर उन्हें असंवैधानिक रूप से जबरन हटाना भी चाहती है। कर्नाटक और गुजरात के राज्यपाल के कार्यकाल के कुछ ही दिन बचे थे और बीजेपी इंतजार कर इस नाहक विवाद को टाल सकती थी। लेकिन जिस तरह से कमला बेनीवाल को उनकी सेवा-निवृति से दो महीने पहले बर्खास्त कर दिया गया है, राज्यपाल पद की गरिमा को काफी ठेस पहुँची है और राज्यपाल पद की उपयोगिता भी सवालों के घेरे में आ गयी है।
(देश मंथन, 08 अगस्त 2014)