सामना, शहादत और मातम!

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संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय  :

जग नहीं सुनता कभी दुर्बल जनों का शांति प्रवचन

पाकिस्तान के जन्म की कथा, उसकी राजनीति की व्यथा और वहाँ की सेना की मनोदशा को जान कर भी जो लोग उसके साथ अच्छे रिश्तों की प्रतीक्षा में हैं, उन्हें दुआ कि उनके स्वप्न पूरे हों। हमें पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाते समय सिर्फ इस्लामी आतंकवाद की वैश्विक धारा का ही विचार नहीं करना चाहिए बल्कि यह भी सोचना चाहिए कि आखिर यह देश किस अवधारणा पर बना और अब तक कायम है? पाकिस्तान सेना का कलेजा अपने मासूम बच्चों के जनाजों को कंधा देते हुए नहीं काँपा (पेशावर काण्ड) तो पड़ोसी मुल्क के नागरिकों और सैनिकों की मौत उनके लिए क्या मायने रखती है।

द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा की मोटी समझ रखने वालों को यह पता है कि पाकिस्तान की एकता आज सिर्फ भारत घृणा पर ही टिकी हुयी है। भारत विरोध वहाँ की राजनीति का एक एजेंडा और कश्मीर उसका लक्ष्य है। शायद पाकिस्तान के बगल में भारत न होता तो पाकिस्तान कबके कई टुकड़ों में विभक्त हो गया होता। दो टुकड़े तो उसके काफी पहले हो चुके हैं। वह अपनी ही प्रेतछाया से लड़ता हुआ देश है। इस जमीन पर शायद इकलौता देश जो अपने पुराने देश से लड़ रहा है, जिससे वह जिद करके अलग हुआ था।

निरंतर है प्राक्सी वार

सीधे युद्ध में तीन बार मात खाकर पाकिस्तान ने यह समझ विकसित की अब प्राक्सी वार ही भारत को सताए-पकाए और छकाए रखने का तरीका है। 1947 में देश के बँटवारे के पीछे मंशा तो यही थी कि अब सबको जमीन मिल गयी है, घर के बँटवारे के बाद हम शांति से जी सकेंगे। पर ऐसा कहाँ हुआ। देश को नरेन्द्र मोदी के रूप में पहली बार एक सशक्त नेतृत्व मिला है, यह कहना और मानना ऐतिहासिक रूप से गलत है।

श्री लालबहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गाँधी और श्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पाकिस्तान को मुँहतोड़ जवाब हमारा नेतृत्व देता रहा है। किंतु क्या पाकिस्तान इन पराजयों से रत्ती भर सीख सका? आज की तारीख में हमें पाकिस्तान को आइसोलेट करना पड़ेगा। पाकिस्तान से निरंतर संवाद की जिदें भी उसे शक्ति देती हैं, और वह एक नये हमले की तैयारी कर लेता है। ऐसे खतरनाक और आतंकवादियों के पनाहगाह देश को अलग-थलग करके ही हम सुख-चैन से रह सकते हैं। अमन की आशा एक सपना है जो पाकिस्तान जैसे कुंठित राष्ट्र के साथ संभव नहीं है। आप देखें तो संवाद की ये कोशिशें नयी नहीं है। शायद हमारे हर प्रधानमंत्री ने ऐसी कोशिशें की हैं, लेकिन सफलता उन्हें नहीं मिली।

बंद कीजिए ड्रामा

बाघा सीमा पर हम कितने सालों से मोमबत्तियाँ जलाने से लेकर मिठाइयों का आदान-प्रदान और पैर पटकने की कवायद कर रहे हैं। यह सब देखने-सुनने और एक इवेंट के लिहाज से बहुत अच्छा है किंतु इससे हमें हासिल क्या हुआ? इस्लामिक देशों का एक पूरा संगठन बना हुआ है, जिसमें मिडिल ईस्ट के देशों के साथ मिलकर पाकिस्तान भारत के हितों को नुकसान पहुँचाता है। हिंदुस्तान के कुछ लीडरों ने हालात ऐसे कर दिये हैं कि आप बहस भी नहीं कर सकते। जो देश अपने सुरक्षा सवालों पर भी संवाद से डरता हो कि मुसलमान नाराज हो जाएँगे, उसे कोई नहीं बचा सकता। आखिर हिंदुस्तान का मुसलमान पहले हिंदुस्तानी है या मुसलमान? अगर हमें सुरक्षित रहना है, एक रहना है तो हम सबको मानना होगा कि हम पहले हिंदुस्तानी हैं, बाद में कुछ और। कोई भी पंथ अगर राष्ट्र से बड़ा होगा तो राष्ट्र एक नहीं रह सकता। इतने हमलों और इतना खून बहाने के बाद भी यह एक वाक्य का सबक हम नहीं सीख पा रहे हैं। जिस तरह की घुसपैठ व घटनाएँ हो रही हैं, वे बताती हैं कि हम एक लापरवाह देश हैं। पाकिस्तानी रेंजर्स और पाक सेना तो घुसपैठियों के पीछे हैं ही, हमारे अपने देश में भी सीमा सुरक्षा के काम में लगे लोग और देश के भीतर पाकिस्तानी इरादों के मददगार भी इसमें एक बड़ा कारण है। एक बिकाऊ हिंदुस्तानी कैसे अपनी मातृभूमि की रक्षा कर सकता है?

कितने धोखों के बाद

आज ईरान ने सऊदी अरब से राजनायिक संबंध तोड़ लिए। हमारी ऐसी क्या मजबूरी है कि हम पाकिस्तान को चिपकाए पड़े हैं। हमलों के बाद पाकिस्तान से जैसी प्रतिक्रियाएँ आती हैं, वह कोई तारीफ के काबिल नहीं हैं। हम धोखे खाने के लिए उन्हें अवसर देते हैं। इंटलीजेंस इनपुट के बाद भी हमारे देश में घुस कर वे हमारी जमीन पर अपने नापाक इरादों को अंजाम दे जाते हैं, और हम अपने ‘वसुधैव- कुटुम्बकम्’ के अंदाज पर मुग्ध हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों के नकलीपन और दोहरेपन पर तो मत जाइए। वे हमें पाकिस्तान से संवाद बनाये रखने की सलाहें देते हैं, किंतु पठानकोट हमला उनकी जमीन पर हुआ होता तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती? 6 फरवरी, 2013 को हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने एक विपक्षी दल के नेता के नाते कहा था ‘पाकिस्तान को लव लेटर लिखना बंद कीजिए।’ आज वे रायसीना हिल्स में बैठ कर अगर नोबेल पुरस्कार लेने के सपने देख रहे हैं, तो उन्हें अग्रिम बधाई। एक के बदले 10 सिर लेने की बात करने वाली शक्तियाँ आज सत्ता में हैं, पर क्या देश सुरक्षित है?

नवाज शरीफ की पोती को आशीष दीजिए, पर सैनिकों की बेवाएँ भी एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। इतना तो तय कीजिए की युद्ध के लिए सिर्फ हमारी ही जमीन का इस्तेमाल न हो। हम युद्धकामी लोग नहीं हैं, बिल्कुल युद्ध नहीं चाहते। भारत का मन बड़ा है और शांति का पक्षधर है। किंतु छद्म युद्ध भी हमारी जमीन पर ही क्यों लड़े जाएँ। प्राक्सीवार के लिए पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर की जमीनों का इस्तेमाल क्यों नहीं होता? हमारे पास हजारों विकल्प हैं, पर हम धोखा खाने को अपनी शान समझ बैठे हैं। जिन देशों ने अपने एक नागरिक की मौत पर शहर के शहर खत्म कर दिये हम उनकी नजरों में अच्छा बनना चाहते हैं। हमारे देश के सबसे बड़े और सुरक्षित एयरफोर्स बेस पर हमला साधारण बात नहीं हैं, किंतु हमारी हरकतों ने इसे साधारण बना दिया है। सुरक्षा क्यों फेल हुई, आगे हमले न होगें इसकी गारंटी क्या है? सुरक्षा समस्याओं पर हम संभल कर बात क्यों कर रहे हैं? एक जमाने में पाकिस्तान के प्रमुख जनरल जिया उल हक कहा करते थे “ भारत  को एक हजार जगह घाव दो।” ये संख्या भी गिनें तो पूरी हो चुकी है। हमारी सरकार को और कितने घावों का इंतजार है? फिलहाल तो हमारे सैनिकों के सामने तीन ही विकल्प हैं- सामना, शहादत और मातम। इसी मंजर पर एक कवि की वाणी भी सुनिए-

हम चले थे विश्व भर को शांति का सन्देश देने,

किन्तु जिसको बंधु समझा, आ गया वह प्राण लेने।

शक्ति की हमने उपेक्षा की, उसी का दंड पाया,

यह प्रकृति का ही नियम है, अब हमें यह जानना है।

जग नहीं सुनता कभी, दुर्बल जनों का शांति प्रवचन,

सर झुकाता है उसे, जो कर सके रिपु मान मर्दन।

(देश मंथन, 11 जनवरी  2016)

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