कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार
हिन्दुओं ने तो ज्यादातर सामाजिक सुधारों को स्वीकारना शुरू कर दिया, लेकिन मुसलमानों ने पर्सनल लॉ को ‘धर्म की रक्षा’ का सवाल बना कर अपनी अलग पहचान और अस्तित्व का मुद्दा बना लिया और वह उसमें किसी भी बदलाव का विरोध करते रहे। 1985 का शाहबानो मामला इसकी चरम परिणति थी, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अगर कट्टरपंथी मुसलमानों के सामने घुटने न टेके होते तो आज शायद देश में आम मुसलमानों की स्थिति पहले से कहीं बेहतर होती!
जो बहस पचास-साठ साल पहले ख़त्म हो जानी चाहिए थी, हम आज तक उसे शुरू ही नहीं कर पाये हैं! वह बात हो गयी होती तो देश अब तक जाने कहाँ आगे बढ़ गया होता। इस तरह धार्मिक पहचानों में फँसा-धँसा न होता! ऐसी अल्लम-गल्लम लंतरानियाँ न सुनने को मिलतीं, शायद तब ऐसी जमीन ही न मौजूद होती कि धर्म के नाम पर फसलें काटी जा सकतीं, शायद तब पुराने जमानों को आज इक्कीसवीं सदी में खींच लाने की वकालत कर सकने की बात भी कोई न सोचता!
तब बदल गयी होती सोच!
और तब शायद गोद लेने के नये नियमों को लेकर आज ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ (Missionaries of Charity) के सामने आस्था का संकट न खड़ा हुआ होता! तब शायद ससुर के बलात्कार की शिकार इमराना और आरिफ-गुड़िया-तौफीक के मामलों का फैसला फतवों से नहीं, कानून से होता! तब शायद खाप पंचायतों के पास भी संस्कृति और परम्पराओं का बहाना न होता, अगर हमने कामन सिविल कोड (Uniform Civil Code) को अपना लिया होता! तब शायद हम अब तक वाकई बहुत आधुनिक देश बन गये होते, हर मामले में बराबरी का समाज बना पाने की तरफ हम तेजी से आगे बढ़े होते, पोंगापंथ को न तर्क मिल पाते और न धर्म के नाम पर लोगों को हाँका-भड़काया जा सकता था। कामन सिविल कोड ने देश और समाज की तस्वीर और सोच बदल दी होती।
मिशनरीज ऑफ चैरिटीज की बात पर हैरानी!
बताइए, हैरानी होती है कि आज के जमाने में ‘मिशनरीज आफ चैरिटी’ (Missionaries of Charity) को यह बात स्वीकार नहीं कि कोई अकेला व्यक्ति बच्चे को गोद ले सकता है! इसमें उनका धर्म आड़े आ जाता है! उनका कहना है कि ईसाई धर्म के अनुसार केवल विवाहित दंपति को ही बच्चों को गोद दिया जा सकता है। उन्हें आशंका है कि अकेले रहनेवाले पुरुष या महिला समलैंगिक भी हो सकते हैं और उनके हाथों में बच्चे को सौंपना धर्म-विरुद्ध होगा! क्योंकि ईसाई धार्मिक मान्यताओं में समलैंगिकता का पूरी तरह निषेध है।
अजीब हास्यास्पद तर्क है! इस बात की क्या गारंटी है कि आज विवाहित दंपति बच्चे को गोद लेने के बाद कल को तलाक, मृत्यु या किसी विवाद के चलते अकेले नहीं हो जायेंगे? और विवाहित होना क्या समलैंगिक न होने की गारंटी देता है? क्या विवाहित लोग विवाहेतर समलैंगिक रिश्ते नहीं बना सकते? या भविष्य में विवाह-विच्छेद होने पर वे कभी समलैंगिक रुझान की तरफ़ नहीं बढ़े सकते? आज की नयी अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना में जब दुनिया भर में महिलाओं और पुरुषों के बीच नौकरी, रोजगार, कारोबार, घर-परिवार में निजी आजादी को लेकर रिश्ते नये सिरे से परिभाषित हो रहे हैं, वहाँ चीजों को सदियों पुराने धार्मिक चश्मों से कैसे देखा जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का सवाल
मिशनरीज ऑफ चैरिटीज का यह विवाद बड़े मौक़े से खड़ा हुआ है, जब इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि कामन सिविल कोड (Uniform Civil Code) लाने के बारे में उसका नजरिया क्या है? देश की अदालतें पहले भी कई बार कामन सिविल कोड की जरूरत पर जोर देती रही हैं। लेकिन अब तक की तमाम सरकारें पर्सनल लॉ की उन बेड़ियों को छेड़ने भर की कोशिशों से भी बचती रही हैं, जिन्हें अँग्रेज डाल गये थे। इसी का नतीजा है कि आज हिन्दुओं, सिखों, जैनियों, बौद्धों के लिए अलग हिन्दू कानून और मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू हैं। और जब भी इनकी जगह एक समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) बनाने की बात होती है, बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाता है।
धर्म के नाम पर विरोध!
आजादी के बाद जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और कानून मंत्री बाबासाहेब आम्बेडकर ने कामन सिविल कोड (Uniform Civil Code) तैयार करने की कोशिश की तो मुस्लिम नेताओं की घोर आपत्तियों के कारण उन्हें हाथ खींचना पड़ा। तब नेहरू को मजबूर हो कर अपने आपको हिन्दू कोड बिल तक ही सीमित करना पड़ा, लेकिन तब भी बहुविवाह निषेध, महिलाओं को तलाक के अधिकार और अन्तर्जातीय विवाह जैसे कुछ मुद्दों पर उन्हें हिन्दूवादी संगठनों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था।
हालाँकि उसके बाद से हिन्दुओं ने तो ज्यादातर सामाजिक सुधारों को स्वीकारना शुरू कर दिया, लेकिन मुसलमानों ने पर्सनल लॉ को ‘धर्म की रक्षा’ का सवाल बना कर अपनी अलग पहचान और अस्तित्व का मुद्दा बना लिया और वह उसमें किसी भी बदलाव का विरोध करते रहे। 1985 का शाहबानो मामला इसकी चरम परिणति थी, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अगर कट्टरपंथी मुसलमानों के सामने घुटने न टेके होते तो आज शायद देश में आम मुसलमानों की स्थिति पहले से कहीं बेहतर होती!
मुसलमानों की कूढ़मगज जिद!
मुसलमानों की उस कूढ़मगज जिद ने न सिर्फ तब आम हिन्दू मानस में क्षोभ पैदा किया, बल्कि हिन्दूवादी ताकतों को अपना आधार बढ़ाने के लिए नये तर्क भी दिये। इसी के बाद राम जन्मभूमि आन्दोलन ने जोर पकड़ना शुरू किया और आम हिन्दू इस बात से सहमत नजर आने लगा कि अगर शाहबानो मामला धार्मिक आस्था का सवाल है, तो राम मन्दिर भी धार्मिक आस्था का सवाल है! और शायद यह शाहबानो के जवाब में हुए ‘हिन्दुत्व उदय’ का ही नतीजा था कि सितम्बर 1987 में राजस्थान के दिवराला में रूपकँवर के सती होने के बाद हिन्दुओं में सती प्रथा को फिर से महिमामंडित करने की कोशिश भी शुरू हुई, हालाँकि उसे बहुत समर्थन नहीं मिल पाया और आखिर अगले साल सती निरोधक कानून बन गया।
इतिहास की भूल से कुछ नहीं सीखा!
दुर्भाग्य की बात है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम उलेमाओं ने इतिहास की उस भूल से कुछ नहीं सीखा। इमराना और गुड़िया के मामलों में फिर वही कठमुल्ला रवैया अपनाया गया। एक बार में तीन तलाक को लेकर मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा को बोर्ड आज तक मानने-समझने को तैयार नहीं है। हिन्दू अगर सती प्रथा जैसी बुराई रोकने की जरूरत समझ सकते हैं तो मुसलमान ‘तीन तलाक’ जैसी चीज खत्म करने को क्यों तैयार नहीं होते?
कामन सिविल कोड नहीं है धार्मिक आस्था का सवाल!
और उससे भी ज़्यादा दुर्भाग्य की बात यही है कि अभी तक देश में कभी कामन सिविल कोड (Uniform Civil Code) पर गम्भीर चर्चा भी नहीं हुई। क्योंकि राजनीति ऐसा करने नहीं देती! क्योंकि धार्मिक आस्थाओं के नाम पर पर्सनल लॉ से छेड़छाड़ न किये जाने का शोर उठने लगता है! लेकिन धार्मिक आस्थाओं का विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार, गोद लेने और महिलाओं के अधिकारों से क्या लेना-देना? यह सब धार्मिक प्रश्न कहाँ से हुए? यह सब सामाजिक सवाल हैं और जिनका हल सामाजिक पैमानों से ही ढूँढा जाना चाहिए, जो किसी एक समाज में अलग-अलग नहीं हो सकते।
अलग धर्म, अलग अधिकार का तुक नहीं!
लोकतंत्र में हर नागरिक बराबर है और उसके अधिकार भी बराबर हैं। ऐसे में धार्मिक आस्था के नाम पर कोई धर्म अपने समुदाय के लोगों को उन अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता, यह बुनियादी बात है। पर्सनल लॉ हटने से अगर देश की हर महिला को समान अधिकार मिलते हैं, देश के हर बच्चे के लिए उत्तराधिकार के समान प्रावधान लागू होते हैं और हर व्यक्ति अगर समान तरीके से गोद ले सकता हो, तो इसमें धर्म बीच में कहाँ आता है? एक सेकुलर राज्य में हर धर्म के लोगों को अपने धर्म के अनुसार पूजा-पद्धति अपनाने, रीति-रिवाज, संस्कृति और धार्मिक प्रथाओं के पालन की स्वतंत्रता है और इसकी हर कीमत पर रक्षा भी होनी चाहिए। लोग अपनी-अपनी धार्मिक प्रथाओं से विवाह करें, बच्चे का नामकरण करें, अक्षर संस्कार करें, बिलकुल ठीक। लेकिन तलाक के बाद अलग-अलग धर्म की महिला के लिए मुआवजे के अलग-अलग धार्मिक आधार हों, यह बात कैसे सही मानी जाये?
पिंजड़े से बाहर निकलें मुसलमान!
बहरहाल, कामन सिविल कोड (Uniform Civil Code) पर अब गम्भीरता से चर्चा होनी चाहिए। हाँ, यह अलग बात है कि इस समय माहौल ऐसी चर्चा के लिए बहुत अनुकूल नहीं है और अपनी घोषित नीति के बावजूद नरेन्द्र मोदी सरकार शायद इस मुद्दे को तुरन्त छेड़ना न चाहे, लेकिन इस पर खुले मन से चर्चा की जरूरत तो है। मुसलमानों को भी इस बारे में विवेक से सोचना चाहिए क्योंकि इसका सबसे ज्यादा विरोध अक्सर उनकी ही तरफ से होता है।
दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज पर पुरातनपंथी तत्वों और धर्मगुरुओं की पकड़ बड़ी गहरी है। जिस दिन पर्सनल लॉ खत्म हो जायेगा, उस दिन बहुत-से मामलों का निपटारा फतवों से नहीं, कानून से होने लगेगा और मुस्लिम समाज पर धर्मगुरुओं का नियंत्रण घटने लगेगा और उनकी भूमिका सिर्फ धार्मिक कार्यों और समारोहों तक ही सीमित रह जायेगी। यही कारण है कि धर्म और शरीअत की दुहाई देकर वे मुसलमानों को पिंजड़े में रख कर अपना वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश करते हैं।
मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिए और अब इस पिंजड़े से बाहर आना चाहिए। खुली हवा में उड़ान भरे बगैर तरक्की का आसमान भला कैसे छुआ जा सकता है?
(देश मंथन, 17 अक्तूबर 2015)