कैसे सुलझे गुत्थी पाकिस्तान की?

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क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :

जो सबसे आसान काम था, वही हमने अब तक नहीं किया। हमने पाकिस्तान को व्यापार के लिए ‘एमएफएन’ यानी ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा दे रखा है। इसे हमारी सरकार आसानी से वापस ले सकती है। लेकिन फिलहाल सरकार ने ऐसा नहीं किया।

भारत-पाक के बीच ‘कारवान-ए-अमन’ बस भी वैसे ही चल रही है। सरकार चाहती तो एक झटके में पाकिस्तान से सारा कारोबार बन्द कर देती, उसे ‘आतंकी देश’ घोषित कर देती, वहाँ से सारे रिश्ते तोड़ लेती। लेकिन सरकार ने अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं किया। तो कोई तो इसकी वजह होगी ही न!

फिर वही यक्ष प्रश्न! पाकिस्तान? उरी के बाद देश फिर गुस्से में है। क्या इलाज है पाकिस्तान का? जवाब तो बहुत हैं। विशेषज्ञों के पास तो बड़े-बड़े समाधान हैं। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान की समस्या तो चुटकियों में हल की जा सकती है। लेकिन दिक्कत यह है कि यह चुटकी अब तक बजी नहीं। किसी ने बजायी ही नहीं। क्यों? विशेषज्ञ इसी बात पर दहाड़ रहे हैं कि चुटकी बजाइए और पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर दीजिए। छुट्टी! न्यूज चैनलों के एयरकंडीशंड स्टूडियो बेतहाशा गरमी से खौल रहे हैं, उबल रहे हैं। और कैमरों के सामने मेजों पर थ्योरियाँ फड़फड़ा रही हैं कि पाकिस्तान को कैसे मसला-कुचला और सबक सिखाया जा सकता है!

चुटकी है कि न पहले बजी, न अब

लेकिन चुटकी है कि न पहले बजी, न अब बज रही है! कोई तो वजह होगी। वैसे कहा जा रहा है कि देखते रहिए, पाकिस्तान को इस बार मुँहतोड़ जवाब जरूर मिलेगा। मिले तो वाकई बहुत अच्छा है। क्योंकि इसमें कोई दो राय ही नहीं कि पाकिस्तान जैसी हरकतें करता आया है और कर रहा है, उसका उसे मुँहतोड़ जवाब मिलना ही चाहिए। लेकिन वह जवाब क्या हो, कैसे दिया जाये? समस्या बस इतनी-सी है।

समाधान ही समाधान!

समाधान आ रहे हैं। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करना चाहिए, पाकिस्तान में घुस कर आतंकी शिविरों पर हमले करने चाहिए, हमें भी अपने ‘फिदायीन’ तैयार कर पाकिस्तान के भीतर ऐसे ही हमले कराने चाहिए, हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे तमाम आतंकी सरगनाओं को ठिकाने लगाने के लिए सुपारी देकर कुछ शार्प शूटरों को भेजना चाहिए, सिन्धु जल सन्धि रद्द कर पाकिस्तान का पानी रोक देना चाहिए, बलूचिस्तान, खैबर पख़्तूनख़्वा और सिन्ध में अलगाववादी आन्दोलनों को और उकसाना चाहिए और पाकिस्तान को तोड़ने के लिए बांग्लादेश जैसी कहानी फिर दोहरायी जानी चाहिए और जरूरत पड़े तो पाकिस्तान के साथ छोटे या बड़े पैमाने का युद्ध करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

सर्जिकल स्ट्राइक के आगे क्या?

देखा आपने, समाधानों की कमी नहीं है। ऐसे समाधान सुझाने में लगता भी क्या है, जब आपका अपना कुछ भी दाँव पर न हो। आपने तो समाधान दे दिया, जिसने उसे लागू किया, भुगतेगा वह! आप तो फिर किसी टीवी चैनल पर उस ‘असफलता’ की व्याख्या करने बैठ जायेंगे! कहने में क्या लगता है कि सर्जिकल स्ट्राइक कर दीजिए। कर दीजिए। पता नहीं उसमें दो-चार भी आतंकी मरेंगे या नहीं, लेकिन यह भारत की तरफ से एलान-ए-जंग तो हो ही जायेगा। ऐसी सर्जिकल स्ट्राइक के चलते अगर युद्ध शुरू हुआ तो दुनिया की जो सहानुभूति, जो समर्थन आज हमारे साथ है, क्या वह हम खो नहीं बैठेंगे?

‘ऑपरेशन पराक्रम’ क्यों अटक गया?

याद ही होगा कि संसद पर हमले के बाद ‘ऑपरेशन पराक्रम’ छह महीने तक कैसे अधर में लटका रहा और फिर सेनाएँ आखिर अपनी बैरकों में वापस लौट गयीं। बिना किसी अभियान के। क्यों? कुछ तो वजहें रही होंगी न! और आज वे वजहें नहीं हैं क्या? और युद्ध होगा तो उसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है। हम परमाणु युद्ध की बात नहीं कर रहे हैं, अभी तो परम्परागत युद्ध की ही बात कर रहे हैं। हालाँकि युद्ध हुआ तो परमाणु हथियार नहीं इस्तेमाल होंगे, यह कौन कह सकता है!

उस ऐतिहासिक जीत के बाद!

बहरहाल, पिछले एक परम्परागत युद्ध की बात करते हैं, जिसे हमने शान से जीता था। 16 दिसम्बर 1971 को ढाका में पाकिस्तानी फौज ने आत्मसमर्पण किया, बाँग्लादेश बन गया, इन्दिरा गाँधी की बड़ी जय-जयकार हुई, अटलबिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा’ कहा। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? आर्थिक बोझ से पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। जनता त्रस्त हो गयी। और इस ऐतिहासिक जीत के ठीक दो साल चार दिन बाद गुजरात के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में हॉस्टल के खाने के दाम बढ़ने के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ, जो गुजरात से बिहार होते हुए देश भर में फैला और आखिर इन्दिरा गाँधी को एक ‘विलेन’ की तरह सत्ता गँवानी पड़ी। कीमत किसने चुकायी?

सुझाव सिन्धु जल सन्धि रद्द करने का!

एक सुझाव आया कि सिन्धु जल सन्धि को भारत रद्द कर दे और पाकिस्तान को पानी देना बन्द कर दे। कोई नल की टोंटी है क्या कि बन्द कर देंगे? नदी का पानी अचानक कैसे रोक देंगे? चलिए कुछ दिनों में कुछ बैराज वगैरह बना कर पानी रोकने का इन्तजाम कर भी लिया तो वह पानी जायेगा कहाँ, हमारे ही शहरों को डुबायेगा। तो यह तो लम्बा काम है। बहुत बड़ी परियोजना चाहिए, हजारों करोड़ रुपये और बरसों की मेहनत लगेगी। 

जबकि ऐसा सुझाव देनेवालों को शायद याद नहीं कि मौजूदा जल समझौते के मुताबिक भारत सिन्धु के जल का जितना भंडारण कर सकता है, उसमें से वह बूँद भर पानी भी नहीं लेता क्योंकि उस पानी के लिए 56 सालों में हम भंडारण क्षमता ही नहीं बना पाये या हो सकता है कि उस पानी की जरूरत ही न महसूस हुई हो! वरना देश में इतने सैकड़ों बाँध बने, तो यहाँ भी ‘रिजर्वायर’ बन ही जाता।

पानी रोकने का मतलब

तो एक ‘रिजर्वायर’ तो हमने बनाया नहीं, तीन-तीन नदियों का पानी रोकना कितना बड़ा काम है, समझा ही जा सकता है। और फिर आप पानी रोकेंगे, तो ‘मानवता के नाम पर’ दुनिया की संवेदना किसके पक्ष में जायेगी, आपके या पाकिस्तान के? और अन्तरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में मामला उछलेगा ही। और फैसला आपके विरुद्ध गया तो? चलिए मान लें कि आप उसकी परवाह नहीं करते, तो अगर इसी तरह चीन ने कोई बहाना लेकर आपका पानी रोक दिया तो?

चीन के युद्ध में कूदने का खतरा नहीं!

भारत-पाक में अगर युद्ध हुआ, हालाँकि पहले तो चीन ऐसा होने नहीं देगा, फिर भी अगर युद्ध हुआ तो पाक के पक्ष में चीन के उसमें कूदने की मेरे खयाल से रत्ती भर भी सम्भावना नहीं है। क्यों? भई चीन 1965 में पाकिस्तान के साथ नहीं आया, जबकि तीन साल पहले ही वह भारत पर हमला कर चुका था। फिर 1971 में भी अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद के लिए अपना सातवाँ बेड़ा भेज दिया था, लेकिन चीन तब भी दूर ही बैठा रहा। तो अब वह क्यों किसी गैर-जरूरी युद्ध में कूदेगा? लेकिन पानी रोकने जैसी शरारत तो चीन शायद कर ही सकता है।

क्यों नहीं उठे ये ‘आसान’ कदम?

यह सब तो बड़ी-बड़ी बातें हैं। जो सबसे आसान काम था, वही हमने अब तक नहीं किया। हमने पाकिस्तान को व्यापार के लिए ‘एमएफएन’ यानी ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा दे रखा है। पाकिस्तान ने तो यह दर्जा हमें नहीं दिया क्योंकि वहाँ इसका बड़ा विरोध हुआ। इसे हमारी सरकार आसानी से वापस ले सकती है। लेकिन फिलहाल सरकार ने ऐसा नहीं किया। भारत-पाक के बीच ‘कारवान-ए-अमन’ बस भी वैसे ही चल रही है। सरकार चाहती तो एक झटके में पाकिस्तान से सारा कारोबार बन्द कर देती, उसे ‘आतंकी देश’ घोषित कर देती, वहाँ से सारे रिश्ते तोड़ लेती। वहाँ के जितने कलाकार यहाँ फिल्मों में, संगीत के क्षेत्र में काम कर रहे हैं, सबको ‘पैक-अप’ करा देती। लेकिन सरकार ने अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं किया। तो कोई तो इसकी वजह होगी ही न!

चाहिए एक स्पष्ट पाकिस्तान नीति

वजह यही है कि सरकार जानती है कि कहना अलग बात, लेकिन ऐसी बातें चुटकियाँ बजाते नहीं होतीं। तो फिर पाकिस्तान से कैसे निबटें? हमारी समस्या यह है कि पाकिस्तान के पास तो उसकी खास ‘भारत नीति’ है, जिससे वह आज तक कभी नहीं डिगा, सत्ता चाहे जिसके पास रही हो, लेकिन हमारे पास कोई स्पष्ट ‘पाकिस्तान नीति’ नहीं है।

कभी राग मल्हार, कभी लाल-पीले चेहरे!

हमारे यहाँ कभी गर्मजोशी से गलबहियाँ होती हैं, तो कभी क्रिकेट डिप्लोमेसी की स्पिन। खूब हवा बनायी जाती है। मुट्ठियाँ भर-भर श्रेय लूटा जाता है, मीडिया राग मल्हार गाने लगता है। और फिर उधर से एक आतंकी वार होता है और यहाँ मुट्ठियाँ तन जाती हैं, चेहरे लाल-पीले होने लगते हैं और हम दुनिया भर में पाकिस्तान के खिलाफ माहौल बनाने दौड़ने लगते हैं। 56 इंच जैसे जुमलों के बजाय पाकिस्तान के लिए हमारे पास सोची-समझी ठोस नीति होनी चाहिए और घरेलू राजनीति के लिए उसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। तब कहीं जा कर हम पाकिस्तान की गुत्थी सुलझा पायेंगे।

ये चार बातें

एक

सवाल है कि वह नीति क्या हो? पाकिस्तान को लेकर हमारी नीति बिलकुल सीधी, सपाट, भावना शून्य और ठंडी होनी चाहिए। अगर हम मानते हैं कि उसके साथ हमारा जो भी विवाद है, वह द्विपक्षीय है तो उससे बात तो करनी ही पड़ेगी, खूब कीजिए, लेकिन बिना धूम-धमाके के, बिना तमाशे के! कच्ची उम्मीदों के फूल मत खिलाइए, दिल को बहानों से मत बहलाइए। बस।

दो

दूसरी बात, सोचिए कि हमारे सैनिक ठिकानों में आतंकवादी ऐसे कैसे सेंध लगा जाते है? गम्भीर मसला है। लेकिन इस पर भी हमने कुछ नहीं किया।

तीन

तीसरी बात, आतंक से निबटने का एफबीआई जैसा कोई एक ठोस तंत्र ही हम कभी खड़ा नहीं कर पाये। मुम्बई हमलों के बाद इसकी कोशिश हुई थी। लेकिन कई राज्यों ने इसका विरोध किया। बीजेपी इस विरोध में सबसे आगे थी। लेकिन अब वह सरकार में है। तो अब तो कम से कम इस ‘राष्ट्रवादी’ पार्टी को राष्ट्र के हित में यह पहल करनी चाहिए न!

चार

और चौथी और आखिरी बात। जब कोई घटना हो जाती है, तभी हम क्यों जागते हैं और कुछ दिन बाद क्यों फिर सो जाते हैं? अमेरिका और इसराइल की तो हम खूब मिसाल देते हैं, तो और कुछ नहीं तो चौकस रहने के मामले में तो उनकी नकल कर लीजिए।

(देश मंथन, 26 सितंबर 2016)

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