कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
रोहित वेमुला ने आत्महत्या क्यों की? वह कायर था? अवसाद में था? जिन्दगी से हार गया था? उसके मित्रों ने उसकी मदद की होती, तो उसे आत्महत्या से बचाया जा सकता था? क्या उसकी आत्महत्या के ये कारण थे? नहीं, बिलकुल नहीं।
देश की त्रासदी है रोहित की आत्महत्या
रोहित वेमुला की आत्महत्या (Rohith Vemula Suicide) एक निराश युवा की निजी त्रासदी नहीं है। हाँ, निराशा थी उसमें, लेकिन यह निराशा अपनी स्थितियों को लेकर नहीं थी। यह निराशा अपने आसपास के हालात को लेकर थी, देश को लेकर थी। उसकी आत्महत्या देश की त्रासदी है, जिस पर देश को चिन्तित होना चाहिए, देश को सोचना चाहिए कि हम जैसा देश गढ़ रहे हैं, उसमें ऐसी त्रासदियाँ क्यों होती हैं, क्यों होती जा रही हैं? और उससे भी बड़ी यह त्रासदी क्यों होती है कि उस आत्महत्या पर शर्म से डूब जाने के बजाय देश दो खाँचों में बँट जाये, एक ओर निराशा, हताशा, आवेश और क्षोभ हो और दूसरी ओर हो विद्रूप प्रतिक्रियाओं का क्रूर अमानवीय अट्टहास, आत्महत्या पर उठ रहे बर्बर सवाल, उड़ायी जा रही खिल्लियाँ और झूठ के कारखानों के निर्लज्ज उत्पाद!
The first letter, which Rohith Vemula wrote to his VC
रोहित ने आत्महत्या इसलिए नहीं की कि वह निराश था। उसने आत्महत्या न की होती तो क्या इस सवाल पर हम बात कर रहे होते? बात आज क्यों हो रही है? हंगामा तो तभी खड़ा होना चाहिए था जब बाबासाहेब आम्बेडकर की तस्वीर हाथ में ले कर हॉस्टल से बाहर निकले पाँच छात्रों की तस्वीरें अखबारों में छपी थीं। शोर तो तब भी उठना चाहिए था, जब रोहित ने अपने कुलपति को लिखा था कि विश्विद्यालय में दाखिले के वक्त हर दलित छात्र को सोडियम एजाइड की गोली और फंदा लगाने के लिए अच्छी रस्सी भी दे दी जाये! और सवाल तो तब भी उठना चाहिए था, जब एक केन्द्रीय मंत्री इन दलित छात्रों को ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित करते हुए अपनी सरकार को चिट्ठी लिख रहा था। दोष हम सबका है कि इन मुद्दों पर तब बात नहीं हुई। बात आज इसीलिए हो रही है क्योंकि रोहित ने आत्महत्या कर ली। रोहित ने आत्महत्या हमको आइना दिखाने के लिए की थी। बात समझ में आयी आपको!
रोहित ने हमें आइना दिखाया!
और आइने में क्या दिखता है? यही कि दलितों को लेकर कहीं कुछ नहीं बदला है। वैसा ही छुआछूत है, वैसा ही भेदभाव है, उनका वैसा ही तिरस्कार है और वैसा ही उत्पीड़न है। वरना रोहित को अपने कुलपति को यह क्यों लिखने को मजबूर होना पड़ता कि दलित छात्रों को मौत का सामान दे दिया जाना चाहिए! उसकी इस बात से देश को हिल उठना चाहिए था। लेकिन कुछ नहीं हुआ। होता भी कैसे? यह कोई नयी बात है कि देश के हजारों स्कूलों में दलित बच्चे अब भी कक्षा में अलग बैठाये जाते हैं, दलित दूल्हा घोड़ी नहीं चढ़ सकता, यहाँ तक कि दाह संस्कार के लिए भी अलग श्मशान हैं। प्रमुख फ़िल्मकार श्याम बेनेगल का यह कहना बिलकुल सही है कि सवर्ण हिन्दू वाकई नहीं जानता कि दलित होने का मतलब क्या है? बिलकुल सच है कि दलित होने का मतलब क्या है, यह सिर्फ दलित घर में पैदा हो कर ही जाना जा सकता है। यह बात अपनी एक मार्मिक पोस्ट में हिन्दुस्तान टाइम्स की पूर्व पत्रकार याशिका दत्त ने लिखी है, जो इन दिनों न्यूयार्क में रहती हैं। याशिका ने लिखा कि वह बचपन में कान्वेंट में पढ़ीं, उनके उपनाम से लोगों को उनकी जाति का पता नहीं चलता था, और वह बड़े जतन से क्यों अपनी दलित पहचान छिपाये रहीं। उनके ब्लॉग dalitdiscrimination।tumbler।com पर ऐसी कई कहानियाँ मिल जायेंगी। विडम्बना यह है कि दलितों से ऐसा क्रूर भेदभाव करनेवाला मध्य वर्ग साथ में यह बेहया शर्त भी रखता है कि दलित मेरिट से आगे बढ़ें, आरक्षण खत्म हो। इससे बढ़ कर अमानवीय माँग और क्या हो सकती है?
हैदराबाद विश्विद्यालय: दलित विरोधी चरित्र
हैदराबाद विश्विद्यालय इसका अपवाद नहीं था। उसके दलित-विरोधी चरित्र की कई कहानियाँ सामने हैं। और केवल वहीं क्यों, देश के तमाम बड़े-बड़े नामी-गिरामी उच्च शिक्षा संस्थानों से लगातार ऐसी कहानियाँ आती रहती हैं, जहाँ असहनीय तिरस्कारों के कारण सैंकड़ों दलित छात्र आत्महत्या करने पर मजबूर हुए। रोहित और उसके साथियों के मामले में जो हुआ, क्या उसके पीछे उनको ‘औकात बता देने’ की बर्बर सोच नहीं काम कर रही थी। विश्विद्यालय के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि उन्हें क्यों निलम्बित किया गया, हॉस्टल से क्यों बाहर निकाला गया, क्या अपराध था उनका और उस सुशील कुमार के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गयी जिसका यह झूठ भी सामने आ चुका है कि उसे कोई चोट नहीं लगी थी और वह एपेंडेसाइटिस के ऑपरेशन के लिए अस्पताल में भर्ती हुआ था!
आरोप है कि रोहित वेमुला (Rohith Vemula) और उसके साथी ‘राष्ट्रविरोधी गतिविधियों’ में लगे थे। कोई व्यक्ति ‘राष्ट्रविरोधी’ गतिविधियों में लगा हो, यह तो बहुत ही संगीन आरोप है। विश्विद्यालय तो इसकी जाँच ही नहीं कर सकता। यह मामला तो सीधे पुलिस के पास जाना चाहिए था! तो इन छात्रों के ख़िलाफ़ पुलिस में ‘राष्ट्रद्रोह’ की शिकायत क्यों नहीं दर्ज करायी गयी? सुशील कुमार पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के बजाय केन्द्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के पास मानव संसाधन मंत्रालय को चिट्ठी लिखाने क्यों गये? इसीलिए न कि उन्हें पता था कि सत्ता अपने हाथ में है, सरकार अपनी है, कुलपति पर दबाव डलवा कर इन ‘दलितों’ को सबक़ सिखाया जा सकता है! और यह सबके सामने है कि विश्विद्यालय ने कैसे अपनी पहली जाँच बिलकुल पलट दी।
संघ से वैचारिक असहमति राष्ट्रद्रोह है क्या?
और क्या थीं इन छात्रों की तथाकथित राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ? ‘मुजफ्फरनगर अभी बाकी है’ फिल्म का प्रदर्शन, याकूब मेमन की फाँसी का विरोध, तीस्ता सीतलवाड और असदुद्दीन ओवैसी को छात्रों को सम्बोधित करने के लिए बुलाना- आम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के इन छात्रों पर यही आरोप थे और बीजेपी के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) को यही बातें कतई मंजूर नहीं थीं। यह वैचारिक असहमति है या राष्ट्रविरोध? अगर राष्ट्रविरोध है, राष्ट्रद्रोह है तो कानून की किस या किन-किन धाराओं के तहत? या आपकी नजर में राष्ट्रविरोधी और राष्ट्रद्रोही वह सब हैं, जो आपके विचारों से सहमत नहीं हैं? यानी राष्ट्र क्या है? क्या संघ, संघ परिवार, बीजेपी और उसके संगठन ही राष्ट्र हैं, वही तय करेंगे कि राष्ट्र क्या है, उसकी परिभाषा क्या है और जो राष्ट्र और राष्ट्रवाद की उसकी परिभाषा मानने को तैयार न हो, वह राष्ट्रविरोधी है?
सिद्धार्थ वरदराजन ‘साम्प्रदायिक’ हैं?
इसी सोच के चलते एक बुजुर्ग केन्द्रीय मंत्री ने इन छात्रों को ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित कर दिया। हैदराबाद की इस घटना का दूसरा चिन्ताजनक पहलू यह है, जिसकी आहटें दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के गद्दीनशीन होने के फौरन बाद शुरू हो गयी थीं, और अब हर क़दम पर फासिस्ज़्म के यह निशान दिखने लगे हैं। अभी दो दिन पहले इलाहाबाद विश्विद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) ने वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन (Siddhartha Varadarajan) को छात्रों को सम्बोधित नहीं करने दिया और उन्हें लगभग बन्धक बना कर रखा क्योंकि परिषद की राय में वरदराजन ‘साम्प्रदायिक और राष्ट्रविरोधी’ हैं! कुछ दिनों पहले ही मैग्सायसाय पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता सन्दीप पाण्डेय (Sandeep Pandey) को ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित कर काशी हिन्दू विश्विद्यालय के विजिटिंग फैकल्टी पद से हटा दिया गया। हद है!
PM Modi’s pain on Rohith Vemula Suicide should go beyond emotional talk
लखनऊ में शुक्रवार को अपने भाषण में रोहित वेमुला की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भावुक हो गये। निश्चित ही उन्हें इस हादसे से सदमा पहुँचा होगा। ऐसे हादसे से भला किसे सदमा न पहुँचेगा। हम सबको बहुत सदमा पहुँचा है। लेकिन तसल्ली तो हमें तब होती, जब प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के, अपने संघ परिवार के लोगों को भी कुछ नसीहत देते, उन्हें कुछ तो कहते कि वे जैसी भाषा बोल रहे हैं, उनके लोग अपने विरोधी विचार रखनेवालों पर जैसे हमले कर रहे हैं, समाज में चारों तरफ तनाव बढ़ाने-भड़काने की कोशिश कर रहे हैं, वह सब ठीक नहीं है, देशहित में नहीं है और उसे तुरन्त बन्द किया जाना चाहिए। पिछले बीस महीनों से बार-बार, हजारों बार प्रधानमंत्री मोदी से यह गुहार लगायी जा चुकी है कि वह कम से कम अपनी सरकार के मंत्रियों, अपनी पार्टी के सांसदों, विधायकों, नेताओं, कार्यकर्ताओं और संघ परिवार के संगठनों पर चाबुक चलायें, दबाव बनायें कि वे समाज में जहर घोलनेवाली हरकतों से बाज़ आयें। लेकिन प्रधानमंत्री का एक भी ऐसा बयान हमें कहीं देखने को नहीं मिला, उनकी तरफ़ से एक भी ऐसी कोशिश कहीं नजर नहीं आयी। आखिर क्या मजबूरी है उनकी?
हर घटना के पीछे एक ही वैचारिक उपकरण!
मजबूरी नहीं है, बल्कि संघ का सुविचारित एजेंडा है। कभी अटलबिहारी वाजपेयी एक ‘उदार’ मुखौटा हुआ करते थे, आज मोदी जी विकास का मुखौटा हैं। वह विकास की बाँसुरी बजाते रहेंगे और ऐसे ही फासिस्ज़्म का तम्बू धीरे-धीरे ताना जाता रहेगा। गाँधी की हत्या, बाबरी मसजिद का ध्वंस, दादरी कांड, ईसाई चर्चों पर हमले, लेखकों की हत्याएँ और उन्हें धमकियाँ और रोहित वेमुला की आत्महत्या, इन सबके पीछे कहीं न कहीं एक ही विचार क्यों उपकरण बनता है, सोचने की बात यह है।
(देश मंथन, 27 जनवरी 2016)