डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :
नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ-समारोह में दक्षेस-राष्ट्रों के नेताओं को आमंत्रित करके पड़ौसी देशों को मैत्री का नया संदेश दिया है। भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने अब से पहले ऐसी पहल नहीं की है।
हाँ, गणतंत्र-दिवस पर कई राष्ट्राध्यक्षों को अतिथि बनाया गया है लेकिन अपने शपथ-समारोह में विदेशी नेता पहली बार आयेंगे। अफगानिस्तान और श्रीलंका के नेताओं की स्वीकृति आ चुकी है। अन्य नेता भी आएंगे लेकिन सबसे महत्वपूर्ण स्वीकृति पाकिस्तान की है। यदि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ आ जाते हैं तो निमंत्रणों की यह कूटनीति सफल मानी जायेगी और नहीं भी आते हैं तो नरेंद्र मोदी का क्या बिगड़ना है? उन्हें तो शाबाशी ही मिलेगी कि उन्होंने सद्भावना फैलायी।
मियां नवाज ने पिछले साल शपथ लेने के पहले इच्छा व्यक्त की थी कि उनके शपथ-समारोह में भारत के प्रधानमंत्री आएं लेकिन डॉ मनमोहन सिंह नहीं गये। हो सकता है कि स्वयं मियां नवाज भी न आ सकें। यों तो उन्हें साल भर पहले से पता था कि मोदी ही प्रधानमंत्री बनेंगे और उन्होंने मोदी के साथ सहज संबंध बनाना तय कर रखा था। इसीलिए मोदी को बधाई देनेवालों में सर्वप्रथम विदेशी नेताओं में वे भी थे। मोदी के न्यौते से पाकिस्तान में थोड़ा राहत का भाव फैला है। नवाज ने मोदी को न्यौता दिया है। यह अच्छी शुरुआत है। यह शुभ संयोग है कि इस समय सीमांत पर भारत-पाक झड़पे नहीं हो रही हैं या कोई भयंकर आतंकवादी घटना नहीं घट रही है लेकिन परसों ही भारत के दो पत्रकारों को इस्लामाबाद से निकाला गया है। पीटीआई और ‘हिंदू’ के संवाददाताओं को क्यों निकाला गया, अभी तक पता नहीं चला है। यह तो गनीमत है कि भारत में नयी सरकार बनने के माहौल में इस घटना ने तूल नहीं पकड़ा, वरना दोनों सरकारों के बीच तू-तू – मैं-मै शुरू हो गयी होती। मियां नवाज आयें या नहीं, दोनों देशों को अपने सर्वविध संबंधों के सुधार पर तेजी से काम शुरू कर देना चाहिए।
जहाँ तक श्रीलंका और बांग्लादेश का सवाल है, इन दो पड़ौसियों के साथ भारत के संबंधों को हमारी प्रांतीय राजनीति बहुत प्रभावित कर रही है। तृणमूल सरकार ने तीस्ता जल-समझौता और सीमा समझौता नहीं होने दिया और तमिल पार्टियां श्रीलंका के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने में बाधा पहुँचाती हैं। मनमोहन सिंह मजबूर थे लेकिन मोदी नहीं। मोदी को चाहिए कि इन प्रांतीय नेताओं को विदेश नीति पर सवार न होने दे।
दक्षेस में भारत के अलावा सात देश हैं। उन्हें निमंत्रण गया है लेकिन बर्मा और ईरान को क्यों नहीं गया? सोवियत संघ के पुराने पाँचों गणतंत्रों को भी बुलाया जाये। मोरिशस को भी जोड़ा जाये। अब हमारे दक्षेस में 8 नहीं, 16 देश होने चाहिए। इनका साझा बाजार, साझी संसद, साझा महासंघ बनाना मोदी सरकार का लक्ष्य होना चाहिए। इस लक्ष्य की पूर्ति के हिसाब से देखा जाए तो दक्षेस-राष्ट्रों को भेजे गये इस निमंत्रण का स्वागत किया जाना चाहिए।
(देश मंथन, 23 मई 2014)