न्याय क्या सबके लिए बराबर है?

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

बड़ी-बड़ी अदालतें हैं। बड़े-बड़े वकील हैं। बड़े-बड़े कानून हैं। और बड़े-बड़े लोग हैं। इसलिए छोटे-छोटे मामले अक्सर ही कानून की मुट्ठी से फिसल जाते हैं! साबित ही नहीं हो पाते! और लोग चूँकि बड़े होते हैं, इतने बड़े कि हर मामला उनके लिए छोटा हो ही जाता है! वैसे कभी-कभार ऐसा हो भी जाता है कि मामला साबित भी हो जाता है। फिर? फिर क्या, बड़े लोगों को बड़ी सज़ा कैसे मिले? इसलिए सजा अक्सर छोटी हो जाती है! और अगर कभी-कभार सजा भी पूरी मिल जाये तो? तो क्या? पैरोल पर एक कदम जेल के अन्दर, दो कदम जेल के बाहर! वह भी न हो सके तो अस्पताल तो हैं ही न!

Salman Khan: रिहाई और सवाल

Salman Khan छूट गये। तेरह बरस की कानूनी लड़ाई सात महीनों में ही पलट गयी! कार कौन चला रहा था, पता नहीं। सलमान खान Salman Khan ने शराब पी रखी थी या नहीं, पता नहीं। दुर्घटना शराब पी कर गाड़ी चलाने के कारण हुई थी या नहीं, पता नहीं। कार का टायर दुर्घटना के पहले फटा था या दुर्घटना के कारण फटा था, पता नहीं। अब बहस होती रहेगी। सवाल दो हैं। और सवाल बड़े हैं। और ये सवाल सिर्फ इस मामले से जुड़े हुए नहीं हैं। सवाल हर छोटे-बड़े अपराध, उनकी जाँच, अदालती सुनवाई और फैसलों से जुड़े हैं। इन पर चर्चा होनी ही चाहिए।

जितने बड़े मामले, उतनी ढीली जाँच?

पहला सवाल यही कि पुलिस मामलों की जाँच कैसे करती है? अदालतों में अक्सर मामले क्यों साबित नहीं हो पाते? जुटाये गये और पेश किये गये सबूत बहुत बार ऊपरी अदालतों में क्यों खारिज हो जाते हैं? कई बार मामले को तकनीकी पेंचों में उलझा कर क्यों आरोपी बच निकलने में सफल हो जाते हैं? क्या जानबूझ कर सबूतों में कसर छोड़ दी जाती है? और क्या पुलिस में ऐसा कोई समीक्षा-तंत्र है, जो इस बात का जायजा लेता हो कि किस जाँच अधिकारी ने किस मामले की जाँच कैसे की, सही की या गलत की, कितने मामले अदालत में साबित हो सके, कितने नहीं हो सके और क्यों? क्या किसी पुलिस-अधिकारी की कार्यकुशलता इस बात से मापी जाती है कि कितने मामलों में अदालतों ने जाँच पर सवाल उठाये और कितने मामलों में किसी निर्दोष को गलत तरीके से फँसा दिया? एंकाउंटर के ‘गुड वर्क’ के लिए तो पुलिसवाले प्रमोशन पाते रहे हैं, ‘लीप-पोत’ जाँच के ‘बैड वर्क’ के लिए उनके खिलाफ क्या होता है?

दूसरा सवाल इससे भी बड़ा है। निचली अदालत ने जिन सबूतों के आधार पर सलमान खान Salman Khan को सज़ा सुनायी, हाइकोर्ट ने सात महीनों के भीतर उन सबको खारिज कर दिया! सबूत वही, स्थितियाँ वही, लेकिन दो अदालतों की व्याख्या में इतना अन्तर? अन्तर हो सकता है? लेकिन यह अन्तर क्यों, क्या इसकी समीक्षा नहीं होनी चाहिए? क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि व्याख्याओं के इस अन्तर को कम किया जा सके? अब तक देश की अदालतों में हजारों पेचीदा मामले आ चुके और जा चुके। क्या उन तमाम फैसलों की समीक्षा का कोई तंत्र है, जिससे पता चले कि किन परिस्थितियों में किन अदालतों से कानूनी पेचीदगियों की व्याख्याओं में क्या गलतियाँ हुईं? और यह कैसे सुनिश्चित किया जाये कि एक जैसे हर मामले में अदालतों का रुख लगभग एक जैसा हो। आरोपी चाहे छोटा हो या बड़ा, अदालत का रवैया हर मामले में एक हो।

इतनी जल्दी जमानत कैसे मिली Salman Khan को?

Salman Khan का मामला ही लीजिए। सेशन अदालत से सजा मिलने के कुछ घंटों के भीतर ही आनन-फानन में उन्हें हाईकोर्ट से जमानत मिल गयी। क्या यह सामान्य प्रक्रिया है? क्या किसी सामान्य व्यक्ति के मामले में हाइकोर्ट इतनी ही तत्परता से उसकी जमानत की अर्जी सुनवाई के लिए स्वीकार करता? क्या कार-दुर्घटना में सजा पाने वाला हर आदमी कुछ घंटों में इस तरह जमानत पा सकता है?

Uphaar Fire Tragedy: अंसल बन्धुओं को क्या सजा मिली?

फिर उपहार आग दुर्घटना के मामले में अंसल बन्धुओं का मामला देखिए। उपहार सिनेमाघर में सारे नियमों की इस तरह अनदेखी न की गयी होती तो इतनी जानें बच सकती थीं। इतनी बड़ी दुर्घटना के इतने साल बाद जो सजा मिली, उसकी भरपाई भी कुछ लाख का जुर्माना देकर हो गयी! ऐसी सजा से कौन सबक लेगा? बात कही गयी कि उनकी उम्र का ध्यान कर सजा कम कर दी गयी। मामला 1997 का है। सुनवाई अठारह साल तक खिंची और फिर जो सजा होनी थी, वह भी नहीं हुई। कारण चाहे जो भी हों, पर उनमें एक कारण यह तो था ही कि मामला बड़े लोगों से जुड़ा था।

Ruchika Girotra Case: आखिर परिवार हार गया!

रुचिका गिरोत्रा मामला ले लीजिए। सत्ता प्रतिष्ठान ने एक बड़े पुलिस अफसर को बचाने के लिए क्या-क्या नहीं किया, रुचिका के परिवार का किस तरह उत्पीड़न किया गया, यह किसे मालूम नहीं। और रुचिका की आत्महत्या के बावजूद उसके परिवार को अन्तत: न्याय नहीं ही मिल सका। कारण? यही कि कानूनी दाँव-पेंचों में और लचर जाँच में मामला झूलता रहा और अन्त में 22 साल बाद रुचिका के परिवार ने लड़ने का हौसला छोड़ दिया।

Jessica Lal & Priyadarshini Matto murder cases

जेसिका लाल और प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड के मामलों में भी निचली अदालत में आरोपियों के खिलाफ मामले साबित नहीं हो पाये। जेसिका लाल मामले में तो बाद में यह भंडाफोड़ भी हो गया कि किस तरह पुलिस जाँच में जानबूझ कर गड़बड़ी की गयी थी। यह अलग बात है कि जनाक्रोश भड़क जाने के बाद दोनों मामलों में हाईकोर्ट की सुनवाई में आरोप साबित हुए और सजा हुई।

Salman Khan समेत यह सारे मामले हमारी न्याय व्यवस्था पर गम्भीर सवाल उठाते हैं कि न्याय क्या सबके लिए बराबर है? न्यायपालिका क्या अपने भीतर झाँक कर देखेगी? क्या वह कोई ऐसा तंत्र विकसित करेगी कि इन्साफ की तराजू पर सब वाकई बराबर हों, क़ानूनी पेंचों की व्याख्याओं में अदालतों की सोच में बहुत अन्तर न हो। और पुलिस सुधार पर भी क्या हम गहराई से सोचेंगे? क्या पुलिस जाँच में ढिलाई को ‘बैड वर्क’ मान कर ऐसे अफसरों को सबक नहीं सिखाया जाना चाहिए?

(देश मंथन, 14 दिसंबर 2015)

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