संसद को क्यों चाहिए स्टार सांसद?

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श्रीकांत प्रत्यूष, संपादक, प्रत्यूष नवबिहार :

मनोनीत सांसदों क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और अभिनेत्री रेखा की गैरहाजिरी का मुद्दा शुक्रवार को राज्य सभा में गूंजा। सांसदों ने उनके लगातार अनुपस्थित रहने पर सवाल उठाया और उनकी राज्य सभा की सदस्यता रद्द करने की माँग की।

अभिनेता से नेता बने ये स्टार सांसद केवल संसद नहीं आने के दोषी नहीं हैं बल्कि राजनीति में आने का इनका मकसद ,भारतीय राजनीति और समाज की इनकी समझ इतनी ओछी है कि इन्हें संसद कहते हुए भी शर्म आती है। जहाँ तक संसद की बैठकों में भाग नहीं लेने की बात है, स्टार सांसदों के नाम की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। 2013 से जुलाई 2014 के बीच संसद के तीन सत्रों में राज्य सभा की कार्यवाही 35 दिनों के लिए चली लेकिन मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सचिन केवल तीन दिन ही पहुँचे। एक दिन भी स्पोर्ट्स से जुड़ा न कोई सवाल किया और ना ही किसी चर्चा में भाग लिया।

क्रिकेट की दुनिया में एक से एक रिकॉर्ड बनाकर क्रिकेट से सन्यास लेने वाले सचिन राजनीति में बड़ा खराब रिकॉर्ड बना रहे हैं। सचिन के इस रिकॉर्ड के बाद फिल्मी दुनिया और खेल की दुनिया के सितारों के राजनीति में आने को लेकर सवाल उठने लगे हैं। क्या सितारों को चुनाव में मैदान में उतारना राजनीति के लिए श्रेयष्कर है? क्या ये मनोरंजन और खेल की दुनिया के सितारे संसद में पहुँचकर खेल और मनोरंजन की दुनिया से जुड़ी समस्याओं को संसद में उठा पायेगें? क्या जनता की समस्याओं को समझने और उसके समाधान के लिए संघर्ष करने का वक्त इनके पास है?

ये हाल केवल सचिन का नहीं बल्कि सभी स्टार सांसदों का ऐसा ही राजनीतिक रिकॉर्ड है। एक सांसद औसतन 300 सवाल करता है और 38 बैठकों में भाग लेता है लेकिन फ़िल्मी सितारों के बतौर सांसद अपने कर्तव्यों के निर्वाह का आलम ये है कि बीजेपी के पूर्व सांसद धर्मेन्द्र ने संसद के किसी डिबेट में और न ही बैठक में एकदिन भी भाग लिया। मनोरंजन की दुनिया से संसद पहुँचनेवाले ज्यादातर सांसदों का यहीं हाल है। फिर राजनीतिक दलों द्वारा इन्हें अपना उम्मीदवार बनाए जाने का का मकसद सिर्फ उनकी लोकप्रियता को भुनाकर अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा करना ही हो सकता है।

लोक सभा चुनाव में चालीस से ज्यादा फिल्मी दुनिया के सितारे मैदान में थे। इन्होंने अपनी अदाओं से मतदाताओं को खूब रिझाया। रंग बिरंगे परिधानों में सजे, अपनी अदाओं और किरदार से लोगों के दिलो-दिमाग पर छाये रहनेवाले मनोरंजन की दुनिया के सितारों के लोक सभा चुनाव में उतरने से चुनाव तो दिलचस्प हो गया और कुछ राजनीतिक दलों की लोक सभा की सीटें भी बढ़ गयीं लेकिन फिर वहीँ सवाल –ये क्या स्टार सांसद संसद में भी फ़िल्मी लटके झटके दिखाते रहेगें या जिस क्षेत्र (कला –स्पोर्ट्स) से आते हैं उसकी आवाज भी संसद में बन पायेगें? नगमा की अदा के जलवे, हेमा मालिनी के शोले के डायलौग और लम्बे लम्बे हिप्पी काला चश्मा वाले बप्पी लाहिरी के गीत से चुनाव में तो लोगों का मनोरंजन हो जाता है, लेकिन सांसद बनने के बाद जनता उनसे अपनी समस्याओं के फिल्मी अंदाज में एक झटके में सुलझा लेने की उम्मीद भी करती है।

राजनीति में अभिनेता, अभिनेत्रियों की इंट्री वैसे कोई नयी शुरुआत नहीं है। बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर बिनोद खन्ना, शत्रुधन सिन्हा, हेमा मालिनी, किरण खेर, मनोज तिवारी, जादूगर पीसी सरकार, बप्पी लहरी, समाजवादी पार्टी से जया बच्चन और राजबब्बर जैसे कई फिल्मी सितारे चुनाव मैदान में उतरे तो जरुर लेकिन हार गए। फ़िल्मी सितारे गुल पनाग, कामेडियन जावेद जाफरी ने भी आम आदमी पार्टी के टिकट पर किस्मत आजमाया। केवल फ़िल्मी परदे पर दर्शन देने वाले अभिनेता-अभिनेत्री जब हाथ जोड़कर सामने वोट माँगते नजर आयें तो जनता का रीझना लाजिमी है और यहीं वजह है कि जनता उन्हें वोट भी दे देती है। जिन्हें जनता ने नहीं भेजा उन्हें राजनीतिक दलों ने राज्य सभा भेज दिया। लेकिन संसद में पहुँचे इन फ़िल्मी और खेल के दुनिया के स्टारों की राजनीतिक समझ पर तरस आता है।

इन सितारों का राजनीति, इतिहास, भूगोल का ज्ञान भी अनूठा है संसद पहुँचने का मकसद भी निराला है। बप्पी लाहिरी राजनीति में संगीत को पिरोकर भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं। वहीँ हेमा मालिनी मुंबई से प्रवासियों को बाहर भेजने का इरादा रखती हैं। देश सेवा की भावना का हवाला देनेवाले ये फिल्मी सितारे देश सेवा और राजनीति से कितना ताल्लुक रखते हैं, जानकार आपको हैरानी होगी। मेरठ से कांग्रेस के टिकट पर राजनीति में किस्मत आजमानेवाली नगमा कश्मीर के अलगावादी नेता सैयद अलीशाह गिलानी को भारत रत्न बताती हैं। वहीँ टीएमसी के उम्मीदवार देव चुनाव की तुलना बलात्कार से करते हैं। उनका कहना है – “या तो आप रेप को एन्जॉय करते हैं या फिर शोर मचाते हैं।”

दूसरे टीएमसी सांसद तापस पाल अपने चुनाव प्रचार के दौरान अपने विरोधियों के घर में घुसकर रेप करने की धमकी तक देते नजर आये। टीडीपी एमपी मुरली मोहन को जब संसद में महिला सुरक्षा पर अपनी राय देने का मौका मिलता है तो कहते हैं कि महिलाओं के गलत ड्रेस बलात्कार के कारण हैं। संसद में ऐसे दर्जनों अभिनेता अभिनेत्रियाँ अब तक पहुँच चुके हैं, लेकिन उनमे से बिहारी बाबू को छोड़कर शायद ही कोई एक गंभीर नेता का इमेज बना पाया हो। ऐसी राजनीतिक समझ रखने वाले फिल्मी सितारों के राजनीति में इंट्री को लेकर अगर शरद यादव ये सवाल उठाते हैं तो क्या गलत है कि ऐसे स्टारों को राजनीति में लाकर क्या राजनीतिक दल संसद और विधान सभा को नाटक-नौटंकी और जादू घर बनाना चाहते हैं?

सवाल ये भी उठता है कि जिन स्टारों के पास संसद में आने का और जनता की समस्याओं को उठाने का समय नहीं है उन्हें राजनीतिक दल क्यों सांसद बनाते रहते हैं ? क्या राज्य सभा भेजने के लिए देश में ऐसे कलाकारों, समाजसेवियों और साहित्यकारों की कमी है जो देश दुनिया की राजनीति के साथ लोगों की समस्याओं को भी बखूबी समझते हैं और उनके पास उन समस्याओं को संसद में उठाने, उसके लिए संघर्ष करने का पूरा समय है? जबाब होगा नहीं। लेकिन ऐसे लोगों को राजनीतिक दल संसद में क्यों भेजेगें जो जनता का हित तो साध सकते हैं लेकिन राजनीतिक दलों को वोट नहीं दिला सकते। इन निक्कमे स्टार सांसदों के खिलाफ पहली बार अगर संसद में आवाज उठी है तो, इसका स्वागत होना चाहिए। उम्मीद ये भी की जा सकती है कि इस विरोध के मद्देनजर फिल्म स्टार और स्पोर्ट्स स्टार आगे राजनीति में आने से हिचकें और राजनीतिक दल भी उन्हें टिकेट देने से परहेज करें।

(देश मंथन, 09 अगस्त 2014)

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