खुल कर सामने आएं ना?

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देवेन्द्र शास्त्री :

हमने आरएसएस और दक्षिण पंथियों का झूठ और छलावा पढ़ा और देखा है। वो पचास साल तक सत्ता के गलियारों में झाँक भी नहीं सके। अब जाकर उन्हें समझ में आयी कि सच स्वीकार किए बिना काम नहीं चलने वाला। तो कुछ सच उन्होंने स्वीकार कर लिए जैसे गाँधी, पटेल को अपना लिया, नेहरु के योगदान को भी मानने लगे हैं। और फिलहाल गोडसे को त्याग दिया। हाँ लेकिन मंदिर मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, अदानी-अंबानी चल रहा है। मजदूर और किसान आज भी उनकी प्राथमिकता पर नहीं है। ठीक है, दो साल और हैं, देखते हैं क्या करते है। पर यहाँ मैं उनकी बात नहीं कर रहा। वो तो पहले से कुख्यात हैं, जैसे भी हैं, सामने हैं। ढका-छुपा अब कुछ नहीं। मैं बात कर रहा हूँ तथाकथित सेकुलर्स की।

JNU और प्रेस क्लब की घटना के बाद देश के सेकुलर चेहरों से भी डर लगने लगा हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वो अलगाववादियों, आतंकवादियों, माओवादियों किसी की भी तरफदारी कर सकते हैं। क्या इन्हें पता नहीं है कि लश्कर-इ-तैयबा कश्मीरी अलगाववाद में आतंक और पैसा दोनों झौंकते आ रहा है। और ISI की सरपरस्ती में यह सब होता है। आश्चर्य नहीं होगा, अगर किसी दिन पता चले कि कोई रिचर्ड हैडली था जो कांड कर के चला गया “मैं बेचारा सेकुलर”। मानवाधिकार की चिंता होनी चाहिए पर चुनिंदा और मौका परस्ती क्यों। आप को लगता है कि कश्मीरी भाइयों के साथ भारतीय सरकार और सेना ज्यादती करती है और आपके पास कोई रास्ता है तो सुझाइये, पर खुल कर। ताल ठोक कर। ये दक्षिणपंथियों की तरह दोगलापन क्यों? जैसे अरुंधति राय और प्रशांत भूषण ने कश्मीर पर आपनी सोच जाहिर कर दी। कोई माने या ना माने।

JNU में कश्मीर पर चर्चा करने के नाम पर प्रशासन से अनुमति ली गयी थी। कुछ गलत नहीं। सिद्धांतत: अगर आप मानते हैं कि केपिटल पनिशमेंट नहीं होना चाहिए तो अफजल गुरु ही क्यों किसी को भी दी गई फाँसी को गलत कह सकते हैं। पर अफजल गुरु को शहीद करार दें, “अफजल हम तेरे अरमानों को मंजिल तक पहुँचाएँगे” हैडिंग के पर्चें बाँटें और कहें कि उसकी फाँसी जुडिशियल किलिंग थी। तो भाई आपके पास यह कहने का न तो संविधान में अधिकार है और ना ही कोई प्रमाण। यह काम केवल देशद्रोही मानसिकता से ही हो सकता है। और वैसी ही धाराओं में आपको धरा जा सकता है। JNU में लगे देश विरोधी नारेबाजी से वो मानसिकता एक्सपोज हो गयी। 

उस तथाकथित सांस्कृतिक और वैचारिक चर्चा में जो इटेलेक्चुअल शामिल हुए थे, उनके नाम भी उजागर हों जाएँ तो जमावड़ा का मकसद और भी साफ हो जाएगा। सोशियल मीडिया पर एक चश्मदीद सेकुलर छात्र कह रहा है कि कुछ कश्मीरी आये थे (जिनको उसने उस दिन से पहले कभी नहीं देखा) वो अनुमति वापस लिए जाने से नाराज हो गये और देश विरोधी नारेबाजी करने लगे। भाई जिन्होंने आयोजन की अनुमति और जिम्मेदारी ली थी, उन्हें बाहर से आने वाले कश्मीरियों की भी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। कन्हैया से देशवासियों की सहानुभूति है। वो इमेच्योरिटी में मारा गया। अपने ही भाषणों से वो फंसता जा रहा है। वायरल हुए एक भाषण है में उसने सवाल किया है कि प्रशासन पहले यह बताये कि क्यों पहले अनुमति दी और फिर किस के कहने पर वापस ली? एक उसका सवाल यह भी है कि आयोजन का सारा मैटेरियल तीन दिन पहले परिसर में आ गया था। प्रशासन को मैटेरियल आपत्तिजनक क्यों नहीं लगा। अब यह तो वैसी ही बात है कि चोर कहे, क्यों तुमने ताला नहीं लगाया? हम नहीं जानते कि नागपुर से फोन आया था या नहीं पर नारेबाजी के कंटेट साबित करते हैं कि प्रशासन ने अनुमति वापस लेकर सही कदम उठाया था। यह काम प्रशासन को खुद ही करना चाहिए था। अगर नागपुर के इशारे पर किया गया तो प्रशासन की नाकारापन तो कह सकते हैं, पर काम उसने गलत नहीं, सही किया।

एक और वीडियो वायरल किया गया है और उसके बिना पर बेहद जिम्मेदार पार्टियाँ और लोग कह रहे हैं कि यह नारेबाजी एबीवीपी ने करवाई थी। जिस एबीवीपी के कार्यकर्ता को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते दिखाया गया है, वो बैक ग्राउंड से आने वाली आवाज से सिंक्रोनाइज नहीं होती। उससे यह कतई साबित नहीं होता कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद बोल रहा है। लिहाजा मुझे लगता है कि वाम छात्रों ने बचने का वही तरीका आजमाया है जो आम तौर पर दक्षिणपंथी इस्तेमाल करते हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। अब तो अवार्ड वापसी के पीछे की हकीकत पर भी शक होने लगा है।

(देश मंथन 16 फरवरी 2016)

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