राकेश उपाध्याय, पत्रकार :
जिस देश के जनजीवन में, आम लोगों की ज़िंदगी में जब सेक्युलरिज्म का जज्बा रहता है, तभी उस देश में भी सेक्युलरिज्म जिंदा रहता है। राज्य सेक्युलर हो या नहीं, समाज की मानसिकता में सेक्युलरिज्म होना चाहिए।
हर व्यक्ति को उसकी आस्था के मुताबिक, पूजा-उपासना करने की आजादी देने से बढ़ कर और क्या है सेक्युलरिज्म? कुदरत के दिये हुए हवा, पानी, प्रकाश, जमीन पर पूरी प्रतिभा और क्षमता के साथ जीने की आजादी से बढ़ कर और क्या है सेक्युलरिज्म? मैं निजी तौर पर मानता हूँ कि भारतीय समाज में सेक्युलरिज्म उस वक्त से मौजूद है, जब दुनिया में कई बड़े मत-मजहबों का अस्तित्व भी नहीं था। जितने मत-संप्रदाय और पूजा पाठ के तरीके भारत में हजारों साल पहले से जन्मे, उतने अगर दुनिया के किसी हिस्से में जन्मे हों, पले-बढ़े और पोषित हुए हों तो कोई बताये। विविधता को मंजूर करना भारत ने दुनिया के किसी दूसरे हिस्से से नहीं सीखा। यह भारत की बुनियाद में शामिल तत्व है, जिसे चाहें तो सेक्युलरिज्म कहें या हिंदुत्व या कुछ और। इसे आजादी के फौरन बाद संविधान की प्रस्तावना में भी इसीलिए नहीं लिखा संविधानविदों ने, क्योंकि जो बात स्वभाव में है, उसे लिखने और बताने की जरूरत भी होती है क्या? अपनी गंध से ही फूल पहचान बता देता है। बावजूद इसके, 1950 में संविधान निर्माण के करीब 25 साल बाद साल 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिये भारतीय राज्य को सेक्युलर होने का तमगा पहनाया गया, क्योंकि कहीं-ना-कहीं सेक्युलर सियासत घुटन महसूस कर रही थी, पसोपेश में थी कि संविधान की प्रस्तावना में ही जब भारत को सेक्युलर नहीं लिखा गया है तो फिर इसके सेक्युलर होने का सबूत लायें भी तो कहाँ से?
तो क्या भारत 1976 या 1950 या 1947 के पहले सेक्युलर नहीं था? यूरोप में जब सेक्युलरिज्म और राज्य के रिश्तों पर बहस चल रही थी, तब भारतीय समाज और राज्य के रिश्तों में सेक्युलरिज्म कहाँ था? ईसा-पूर्व तीसरी सदी में सिकंदर के आक्रमण के वक्त या फिर ईसा बाद सातवीं सदी में मोहम्मद बिन कासिम के हमले के वक्त भारतीय समाज और राज्य सही अर्थों में कहीं से सेक्युलर थे या नहीं? इतिहास का सच यही है, सदियों और सहस्राब्दियों के आईने ने देखा है कि भारत का मूल समाज, जिसे आप भारतीय कहें, हिंदू कहें, सनातनी कहें, आर्य कहें या कोई और नाम दे दें, उसके जीवन में मानव समाज की पहचान को मजहब के आधार पर बाँट कर देखने की परंपरा कभी नहीं रही। भूगोल के आधार पर जरूर लोग पहचाने जाते रहे, बाकी सब तो गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर तय हुआ। धर्म की विराट छाया से कुछ ने निकलना चाहा, तब भी उन्हें भारतीय दर्शन ने अपनी चिंतनधारा से बाहर नहीं जाने दिया। कभी विचारभिन्नता या मतभिन्नता की वजह से किसी मत-संप्रदाय को नरसंहार की तलवार के नीचे नहीं रखा।
हजारों साल पहले, जब ज्ञान का सूर्य दुनिया के बाकी देशों में उगा भी नहीं था, भारत के संतों ने उपनिषद लिखे और पहले उपनिषद की पहली पंक्ति ही यह लिखी – ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत्किंचित्जगत्यांजगत, तेन त्यक्तेन भुंजीथा मां गृधः कस्यस्विधनम्। वही उपनिषद, जिसे पढ़ने और फारसी में अनूदित करने सम्राट शाहजहां के बेटे दारा शिकोह प्रयाग के दारागंज से ले कर काशी के औरंगाबाद तक जाने कितनी चौखट घूमे, लेकिन कभी किसी ब्राह्मण ने उन्हें हिंदू बनने के लिए नहीं कहा। बाबा फरीद से रसखान तक, रहीम से जायसी तक, ताजबीबी से नजीरुल इस्लाम तक जिस धारा ने बखूबी इस भारतीय चिंतन को समझा, गुना-बुना-जिया, हजारों नाम है इस धारा में, कहाँ तक गिनायें? सवाल जब रुहानियत और प्रभु (अल्लाह) के नूरानी तत्व को जानने, समझने का होगा तो फिर काहे का बंधन, किस बात की मजहबी और सांप्रदायिक विभाजन की रेखा? हिंदुस्तान की चिंतनधारा की सरजमीं पर सजदा किये बगैर दुनिया की कोई आध्यात्मिक यात्रा न पहले कभी मुकम्मल हो सकी, न भविष्य में कभी मुकम्मल हो पायेगी।
वेदों के निचोड़ उपनिषदों ने हमें क्या बताया? यही ना कि इस चराचर कायनात में जो भी है, कण-कण ईश्वर से परिपूर्ण है, ईश्वरीय अंश है, सारा संसार उसी एक प्रभु की लीला है। जो मुझमें समाया, वही तुझमें समाया। कुन फाया कुन फरमाया जिसे फकीरों ने। इसलिए क्या मेरा और क्या तेरा, इस धरती पर त्याग करते हुए जीवनयापन करना सीखो। दूसरे की संपत्ति पर, दूसरे के धन की ओर लालच भरी दृष्टि से मत देखो। और उपनिषदों का यही चिंतन हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, शैव, वैष्णव, लिंगायती, सनातनी, आर्यसमाजी यानी भारत में जन्मे और भारत की धऱती से प्रभावित हर मत-संप्रदाय के दर्शन पर गहरे रूप में छा गया। यही भारतीय दर्शन किंवा हिंदू विचार प्रवाह भारत में राजनीतिक चिंतन के विकास का जरिया भी बना, जिसमें सभी मत-मजहबों के साथ चलने का सहिष्णु और असल सेक्युलर चिंतन खुद-ब-खुद समाहित था, इसे भारतीय समाज को कहीं यूरोप से, कहीं अरब से सीखने और ओढ़ने की जरूरत नहीं पड़ी।
लेकिन आज के राजनीतिक और कथित मजहबी लोगों का जो सेक्युलर एजेंडा है, उसका चेहरा विद्रूप है, भयानक है। उस पर आप लाख लिखें, लाख बोलें, भारतीय समाज को आज का राजनीतिक सेक्युलर एजेंडा कभी मंजूर नहीं होगा, क्योंकि यह अपने मुँह पर दूध की मलाई लपेटे विष का वह घड़ा है, जिसे आम हिंदुस्तानी अपनी सद्गुण-विकृति के कारण बीती कुछ शताब्दियों में मिले घावों के बाद दुनिया भर के सेक्युलर चिंतकों से कहीं बेहतर समझने लगा है।
(देश मंथन, 04 अगस्त 2014)