क्यों जी, आप सेकुलर हो?

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क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :

क्यों जी, आप सेकुलर हो? तो बन्द करो यह पाखंड! पक गये सेकुलरिज़्म सुन-सुन कर! अब और बेवक़ूफ नहीं बनेंगे! पुणे पर इतना बोले, सहारनपुर पर चुप्पी क्यों? दुर्गाशक्ति नागपाल जो अवैध दीवार ढहाने गयी थी, अब वहाँ मसजिद बन गयी है, सेकुलरवादियो जाओ वहाँ नमाज पढ़ आओ!

नहीं चाहिए ऐसा सेकुलरिज्म! क्रिकेट में पाकिस्तान जीते तो उसे चीयर करते हो! ईद की बधाई क्यों दें हम आपको? वगैरह-वगैरह। यह पिछले दिनों सोशल मीडिया की एक झलक थी! 

पिछले दो कॉलम इसलामी और हिन्दू पुनरोत्थानवाद के नये उभरते ख़तरों पर लिखे। इस हफ़्ते कोई और विषय लेना चाह रहा था। लेकिन लगा कि घाव दिनोंदिन गहरे होते जा रहे हैं। इसलिए सेकुलरिज्म पर खरी-खरी चर्चा जरूरी है।

क्या सेकुलरिज्म एक बोगस बकवास है?

सबसे पहला सवाल! क्या सेकुलरिज्म के बिना देश का काम चल सकता है या नहीं? अगर सेकुलरिज्म नहीं तो उसकी जगह क्या? बीजेपी वाला सर्वधर्म समभाव? दोनों में मोटे तौर पर कोई फ़र्क़ नहीं, बस एक छिपे एजेंडे के अलावा। उसकी चर्चा हम बाद में करेंगे। इसलिए फ़िलहाल सवाल को इस तरह रखते हैं कि क्या सेकुलरिज्म या ‘सर्वधर्म समभाव’ एक बोगस बकवास है? चलिए, मान ही लिया कि हमारे देश को उसकी कोई ज़रूरत नहीं? उसे हम रद्दी की टोकरी में फेंक दें तो उसकी जगह क्या लायेंगे? कुछ न कुछ तो होना ही पड़ेगा न? राज्य या तो सेकुलर होता है या धर्म के खूँटे से बँधता है। बीच की कोई स्थिति नहीं होती! तो सेकुलरिज्म के अलावा दूसरा विकल्प क्या है? हिन्दू राष्ट्र! बस।

सोचने की दो बातें हैं। पहली यह कि राज्य को सेकुलर होने की ज़रूरत क्यों पड़ी? और राज्य को राजतंत्र के बजाय लोकतंत्र की ज़रूरत क्यों पड़ी? ज़ाहिर-सी बात है कि राजतंत्र और धर्म के खूँटे से बँधे राज्य की अवधारणा बड़ी पुरानी है। राजतंत्र की बुनियाद ही इस पर रखी गयी थी कि राजा ईश्वर का अंश है। तो जो राजा का धर्म हुआ, वही उस राज्य का ‘ईश्वरीय धर्म’ हो गया! यानी राज्य और धर्म एक सिक्के के दो पहलू हुए। लेकिन असलियत में जब राज्य और धर्म में कभी टॉस होने की नौबत आ जाये तो चित भी धर्म और पट भी धर्म! सदियों के कड़ुवे अनुभवों के बाद लोकतंत्र की खोज हुई और पश्चिम में राज्य को चर्च से अलग रखने यानी राज्य के सेकुलर होने के विचार ने जन्म लिया। यानी राज्य के काम में धर्म का कोई दख़ल न हो। धर्म लोगों की निजी आस्था का मामला रहे। दूसरी बात यह कि यह दोनों माडल हमारे सामने आज भी मौजूद हैं। और यह बात पानी की तरह साफ है कि इनमें से कौन-सा माडल ज्यादा बेहतर, ज्यादा मानवीय, ज्यादा हितकारी, ज्यादा संवेदनशील, वक़्त के अनुसार बदलाव के लिए ज्यादा लचीला, ज्यादा आधुनिक और सतत प्रगतिवादी है!

‘धर्म-राज्यों’ का पाषाण-चरित्र!

उदाहरण तो हजारों हैं, लेकिन दो की चर्चा करूँगा। सऊदी अरब आर्थिक रूप से अथाह सम्पन्न देश। वहाबी इसलाम का मूल स्रोत। उसकी भरी हुई चाबी से चलनेवाला आइएसआइएस आज दुनिया में एक नये और कहीं ज्यादा भयानक इसलामी कट्टरवाद के संकट के तौर पर उभरा है। इसलाम के दूसरे तमाम अनगिनत पंथों का सफाया उसका एजेंडा है। उसके क़ब्जे वाले इलाक़ों में आधुनिक विचारों की हत्या और दकियानूसी अमानवीय परम्पराओं की वापसी की चर्चाएँ किसी का भी दिल दहलाने के लिए काफी हैं। दूसरा उदाहरण आयरलैंड का है, जहाँ सविता हलप्पानवर को इसलिए जान गँवानी पड़ी कि रोमन कैथोलिक देश होने के कारण उसको किसी भी हाल में गर्भपात की इजाजत नहीं दी जा सकती थी! अब सविता की मौत के बाद हुई तीखी आलोचनाओं के चलते वहाँ क़ानून में बदलाव किया गया है। शुक्र है कि वह इतना भी बदलने को तैयार हो गये, वरना धर्म कब किसी की फ़रियाद सुनता है? हजारों साल पुरानी अंध-कंदराओं में जीनेवाले धर्म-राज्य के पाषाण- चरित्र को समझने के लिए ये दोनों उदाहरण काफ़ी हैं। इसलिए अगर भगवान न करे, भारत कभी हिन्दू राष्ट्र बना तो उसका चेहरा ऐसे धर्म-राज्यों की तरह नहीं होगा, यह कोई कैसे सोच सकता है? ख़ासकर, तब जबकि एक शंकराचार्य महोदय अभी कुछ ही दिन पहले यह विफल अभियान चला चुके हैं कि जो हिन्दू हैं, वह शिरडी के साईं बाबा की पूजा न करें! और ‘सरकारी सरपरस्ती’ वाले दीनानाथ बतरा जी की मानें तो ‘मुश्किल’, ‘दोस्त’, ‘गुस्सा’ जैसे शब्दों से ही हिन्दी ‘गन्दी’ हो जाती है, क्योंकि ये शब्द उर्दू या फारसी या अरबी जैसी भाषाओं से हिन्दी में आये हैं। जहाँ भाषा को लेकर इतनी कट्टरता हो, वहाँ धर्म को लेकर क्या सोच होगी, समझा जा सकता है!

कोई कह सकता है कि नेपाल हिन्दू राष्ट्र है, वहाँ क्या समस्या है? सच यह है कि दोनों की कोई तुलना हो ही नहीं सकती! नेपाल के मुकाबले भारत कहीं विशाल है और भारत की सामाजिक संरचना घनघोर जटिल है। यहाँ इतने अनगिनत धर्म हैं, धर्मों के इतने अनगिनत पंथ हैं, इतने सम्प्रदाय, समुदाय, जातियाँ, जनजातियाँ, भाषाएँ, उपभाषाएँ, इतनी विविध छोटी-बड़ी संस्कृतियाँ हैं, यहाँ धर्म-राज्य कैसे चल सकता है? उसके क्या ख़तरे होंगे, यह साफ़ है. इसलिए हमारे लिए सेकुलरिज्म का कोई विकल्प नहीं है। हाँ, यह भी सही है कि सेकुलरिज्म के अब तक के अपने प्रयोग में हम अपनी-अपनी बदनीयतों के कारण बुरी तरह विफल रहे हैं। लेकिन ध्यान दीजिए कि यह विफलता हमारी है, सेकुलरिज्म के विचार की नहीं। नाचना नहीं आने से आँगन को टेढ़ा घोषित न करें श्रीमान!

जैसा लोकतंत्र, वैसा सेकुलरिज्म!

सेकुलरिज्म को हम क्यों सफल नहीं बना पाये? भ्रष्ट, अवसरवादी और वोट बैंक की राजनीति के कारण। ठीक वैसे ही, जैसे कि सब जानते-बूझते हुए भी आज विधायिका में लगभग एक तिहाई अपराधी हैं। ठीक वैसे ही, जैसे यह एक खुली हुई गोपनीय बात है कि काले धन के बिना चुनाव नहीं लड़ा जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे कि यह सबको पता है कि भारत में कोई (कुछ अपवादों की गुंजाइश रख लें तो 99.9% लोग) ट्रैफिक नियमों को नहीं मानता। फिर भी अपनी तमाम समस्याओं के बावजूद लोकतंत्र और ट्रैफिक दोनों यहाँ चलते हैं, वैसे ही सेकुलरिज्म भी चल रहा है!

इसलिए लोकतंत्र को ठीक कीजिए। सेकुलरिज्म अपने आप ठीक हो जायेगा! लोकतंत्र में बेईमानियाँ चलती रहें और सेकुलरिज्म ईमानदारी से चलता रहे, ऐसा तो हो नहीं सकता। यह बात सबको समझनी पड़ेगी। और सेकुलरिज्म केवल हमारी भ्रष्ट वोट-लिप्सा के वायरस से ही जर्जर नहीं है, दुनिया भर की घटनाएँ, आतंकवाद, वैश्विक तनाव, घरेलू उत्तेजनाएँ, छोटे-बड़े दंगे, पुलिस के फ़र्ज़ीवाड़े, स्थानीय से लेकर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति के दाँव-पेंच और न जाने क्या-क्या चीजें उस पर लगातार हमले करती रहती हैं।

अब देखिए न, किसी को पता नहीं कि बांग्लादेशियों के नाम पर दहाड़ें मारने वाली बीजेपी अब उनको देश से बाहर खदेड़ने के लिए क्या करने वाली है? आप नहीं सम्भाल सकते तो तसलीमा नसरीन को गुजरात भेज दीजिए, ऐसी हुँकार भरनेवालों को अब उनका वीसा बढ़ाने में क्यों बड़ा सोच-विचार करना पड़ गया? तब इन मुद्दों पर सरकार की आलोचना से अपने ‘वोट बैंक’ की भावनाएँ भड़का कर फायदा उठाया जा सकता था, लेकिन आज सरकार में हैं तो सारा ऊँच-नीच सोचना ही पड़ेगा! काँग्रेस हो, सपा हो, बसपा हो, तृणमूल हो, लेफ़्ट हो, राजद हो, जदयू हो या बीजेपी हो या कोई और भी राजनीतिक दल, हर जगह राजनीति का यही दोहरा मापदंड और यही सुविधावाद किसी न किसी रूप में मौजूद है और यही सेकुलरिज्म का सबसे बड़ा शत्रु है!

‘सर्वधर्म समभाव’ के आगे ‘धर्म-राज्य’ है!

लेकिन यह सच है कि लोग सेकुलरिज्म की विफलता से बेहद हताश हैं। लेकिन ऐसे में आवेश के बजाय आत्मनिरीक्षण ज्यादा कारगर उपाय है। सोचिए और देखिए। जो कुछ अखरता है, उसे सीधे-सीधे कहिए कि यह ठीक नहीं, इसे रुकना चाहिए, बदलना चाहिए। बहस कीजिए, मित्रों से, समूहों से, नेताओं से. सब पर दबाव बनाइए। जो सेकुलरिज्म को लेकर ईमानदार हैं, उनको नायक बनाइए। हर प्रकार के कट्टरपंथ को ईमानदारी से खारिज कीजिए, आधुनिक और प्रगतिशील विचारों को अपनाइए, दिमाग़ों की खिड़कियाँ खुली रखिए, ताजा हवा आती रहेगी और हर नापाक इरादों को नाकाम कीजिए। आपकी पीढ़ी पहले वालों से कहीं ज्यादा पढ़ी-लिखी और समझदार है। यह आपको तय करना है कि आप राजनीति के हाथों बेवक़ूफ़ बनते रहेंगे या उसे पटरी पर लायेंगे।

और अन्त में। सर्वधर्म समभाव और सेकुलरिज्म में फ़र्क क्या है? सेकुलरिज्म में राज्य धर्म से निरपेक्ष रहता है, वहाँ यह गुंजाइश नहीं कि राज्य किसी धर्म का अनुयायी हो। सर्वधर्म समभाव में राज्य सभी धर्मों से ‘समभाव’ रखता है, लेकिन यहाँ राज्य उनमें से किसी एक धर्म का माननेवाला भी हो सकता है! बस खतरा यहीं पर है! आप ‘सर्वधर्म समभाव’ से फिसल कर कौन जाने कब ‘धर्म-राज्य’ बन जायें, यह कौन बता सकता है? (raagdesh.com)

(देश मंथन, 04 अगस्त 2014)

 

 

 

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