सुशांत झा, पत्रकार :
नीतीश कुमार की कानून-व्यवस्था को लेकर प्रतिबद्धता पर व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई संदेह नहीं है। उन्होंने पिछले एक दशक में बिहार को ठीक-ठाक पटरी पर लाया है। लेकिन सीवान के पत्रकार की हत्या पर मेरी कुछ अलग राय है।
बड़े अखबार का जिला ब्यूरो चीफ ठीक-ठाक रुतबे वाला आदमी होता है, मेरे कई दोस्त बिहार में ब्यूरो-चीफ हैं। वो कलक्टर-एसपी के साथ उठते-बैठते हैं, उन्हें सांसदों-मंत्रियों के फोन आते हैं, अगर जिले से कोई भीमकाय प्रोजेक्ट क्रियान्वयित हो रहा हो तो तमाम चेयरमैन और एमडी तक उन्हें दारू पिलाते हैं। अगर वो अपने पेश में ईमानदार है, तो महकमे उससे हड़कते हैं, अगर वो बेईमान है तो बहुत कम उमर में राजधानी में फ्लैट हासिल कर लेता है।
सीवान वाले राजदेव रंजन के बारे में पूरा ब्योरा मिलना बाकी है-लेकिन एक बात साफ है कि जिसने भी हत्या की या तो उसे पुलिस का भय नहीं था या वो पुलिस के करीबी था या फिर उसे इस बात का भरोसा था कि पटना में उसे कोई बचा लेगा।
नीतीश कुमार की परेशानी इसी बिंदु से शुरू होती है। जिस हिसाब से गया रोड-रेज मामले में उनका सहयोगी दल अप्रत्यक्ष रूप से हत्यारों का समर्थन करता नजर आ रहा है और खुद उप-मुख्यमंत्री इशारों में बयानवाजी कर रहे हैं, नीतीश की असली दिक्कत यहाँ है।
मुझे नहीं लगता कि नीतीश राज में पुलिस का भय कम हुआ होगा, हाँ कानून की पकड़ से बचने का हौसला जरूर बुलंद हो रहा है।
नीतीश की तीसरी पारी इस मायने में अलग है कि सत्ता के अब दो-दो केंद्र हैं। बीजेपी के साथ उनकी पारी एक हद तक अनुकूल रही थी जिसकी एक वजह बिहार बीजेपी में कद्दावर नेताओं का अभाव और मत्यैक्यता की कमी थी। साथ ही जनाधार का लालू विरोधी मिजाज भी था कि नीतीश को पूरी छूट दी जाए। लालू की राजद वैसी पार्टी नहीं है, न ही उसका जनाधार वैसा है और न ही उसकी आकांक्षाएं वैसी हैं।
कुछ लोग बीजेपी शासित झारखंड के एक टीवी पत्रकार की हत्या से इसकी तुलना कर जंगलराज जैसी बातों का खंडन कर रहे हैं। मैं नीतीश राज को जंगल-राज नहीं मानता लेकिन झारखंड के पत्रकार से तुलना भी जायज नहीं मानता। हाँ, मनुष्य के जान की बराबर कीमत होती है, लेकिन संदर्भ अलग होते हैं। क्या दिल्ली में किसी बीबीसी पत्रकार पर हमले की तुलना विद्वत-जन, लक्ष्मीनगर में किसी ‘सुलगती चट्टान’ या ‘धर्मात्मा टाइम्स’ के पत्रकार पर हुए हमले से करेंगे?
इस हत्याकांड से नीतीश कुमार को आत्मचिंतन करना चाहिए। इसे मैं गया-रोड रेज से ज्यादा खतरनाक मानता हूँ क्योंकि ये एक प्लान्ड मर्डर है और एक ऐसे व्यक्ति की हत्या है जिसे आमतौर पर कमजोर नहीं समझा जाता (कुपाठ करनेवाले ये अर्थ न लगाएं कि यहाँ पर कमजोरों की हत्या का समर्थन किया जा रहा है)।
(देश मंथन, 15 मई 2016)




सुशांत झा, पत्रकार :












