बसपा नहीं, स्वामी प्रसाद मौर्य नुकसान में

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संदीप त्रिपाठी :

उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों की सरगर्मी अभी से नजर आने लगी है।

इलाहाबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली, इस दौरान सपा-बसपा से जुड़े कई नेताओं का भाजपा में शामिल होना, कांग्रेस द्वारा गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश में पार्टी प्रभारी नियुक्त करना और नये प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पर अटकलें, फिर पूर्वांचल के मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय, इससे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की नाराजगी और मुलायम सिंह के कहने पर शिवपाल यादव का उन्हें मनाने जाना, आंध्र के फायरब्रांड मुस्लिम नेता और सांसद ओबैदुल्लाह ओवैसी की उत्तर प्रदेश, खास कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सक्रियता और अब बसपा के प्रमुख नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की पार्टी से बगावत। ये सभी बातें बताती हैं कि उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए तैयार होने लगा है। बिसातें बिछने लगी हैं।

स्वामी प्रसाद मौर्य के आरोप

बात करें ताजा घटनाक्रम की, जिसमें स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी है। उन्होंने अपने साथ कई बसपा विधायकों और नेताओं के होने का दावा भी किया है। जवाब में बसपा सुप्रीमो मायावती ने उन्हें यह बताने की चुनौती दे दी है कि अपने बेटे-बेटी के टिकट के लिए उन्होंने कितने पैसे दिये। दरअसल टिकट बेचने का आरोप बसपा पर पहले से लगता रहा है। मौर्य ने भी बगावत के लिए इसी आरोप को आधार बनाया है। लेकिन यहाँ याद रखना होगा कि इससे पहले मौर्य मायावती के बहुत निकटवर्ती नेताओं में शुमार रहे। मौर्य की आज की राजनीतिक हैसियत भी मायावती के कारण ही बनी। अगर हम मौर्य के आरोप को सही मानते हैं तो मौर्य से पहले जिन नेताओं ने टिकट बेचने का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ी, उनके आरोपों को भी जायज मानना होगा। ऐसे में मौर्य को पहले यह बताना होगा कि वे अब तक चुप क्यों रहे, उनका ईमान अचानक अब कैसे जागा, इससे पहले चुनावी टिकटों की बिक्री में क्या उनकी हिस्सेदारी थी? मौर्य को सबूत देने होंगे।

बसपा पर असर की उम्मीद नहीं

जहाँ तक स्वामी प्रसाद मौर्य के पार्टी छोड़ने से बसपा पर असर पड़ने का कयास है, मुझे नहीं लगता कि कोई खास असर पड़ने जा रहा है। बसपा का वोट बैंक स्पष्ट है और वह वोट बैंक बसपा का है और मायावती से जुड़ा है। किसी और नेता की पैठ उस वोट बैंक में तभी तक है जब तक कि वह बसपा में है। बसपा से कई नेता अलग हुए, नयी पार्टियाँ बनायीं या अन्य प्रमुख दलों में शामिल हुए, लेकिन वे बसपा के वोट बैंक पर रत्ती भर भी असर नहीं डाल पाये। स्वामी प्रसाद मौर्य जैसा दावा कर रहे हैं कि कई विधायक और पार्टी नेता उनके साथ हैं, इसका परीक्षण मोटा-मोटी 25 जून को हो जायेगा जब बसपा द्वारा बुलायी गयी पार्टी विधायकों की बैठक होनी है। इसमें कितने विधायक शामिल नहीं होते हैं, यह देखना महत्वपूर्ण होगा। साथ ही यह भी नजर रखनी होगी कि बैठक में शामिल न होने वाले विधायकों में से कितनों का टिकट पहले ही कट चुका है। 

बसपा वह पार्टी है, जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने या किसी नेता के बगावत करने का उसके वोट बैंक पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। इसीलिए बसपा की चुनावी रणनीति इतनी भर होती है कि पार्टी के मूल वोट बैंक में प्रत्याशी की जाति के वोट जोड़ कर क्या जीतने योग्य समीकरण बन रहे हैं? इस समीकरण में केवल दो बातें महत्वपूर्ण होती हैं – एक तो पार्टी का वोट बैंक जो मायावती के हाथ में होता है और दूसरे प्रत्याशी की जाति। किसी तीसरे नेता का कोई प्रभाव इस समीकरण पर नहीं होता। इसलिए यह तर्क कि स्वामी प्रसाद मौर्य की बगावत से बसपा को कोई झटका लगेगा, बहुत दमदार नहीं लगता।

क्या होगा स्वामी प्रसाद मौर्य का

मौर्य के पार्टी छोड़ने के पीछे असली वजह वह नहीं है, जो वे बता रहे हैं। बसपा ने उनकी सीट पर इलाहाबाद के जावेद इकबाल के नाम की घोषणा कर रखी है। मौर्य इसी वजह से नाराज बताये जा रहे हैं। बहुत कोशिशों के बाद भी जब फैसला नहीं बदला तो आखिरकार उनके पास पार्टी छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा। अब तक के कयासों के हिसाब से स्वामी प्रसाद मौर्य सपा की ओर बढ़ रहे हैं। मौर्य सपा के लिए बस इतने ही लाभदायक प्रतीत हो रहे हैं कि चुनावी वर्ष में बसपा के बड़े नेता के आने से सपा को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलेगी। लेकिन यह बढ़त जमीन पर नहीं दिखेगी। मौर्य को महज इतना लाभ होगा कि उनकी राजनीतिक उपस्थिति बनी रहेगी। निश्चित रूप से मौर्य को सपा में वह हैसियत कभी नहीं मिल सकती, जो उन्हें बसपा में मिली थी। भाजपा स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी में शामिल कर बाबू सिंह कुशवाहा को शामिल करने की वर्ष 2012 की भूल की पुनरावृत्ति नहीं करेगी। कांग्रेस में शामिल होना भी मौर्य की बजाय कांग्रेस के लिए ज्यादा लाभदायक होगा। लेकिन इससे आगामी चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन की कांग्रेस की योजना को झटका लग सकता है। किसी अन्य पार्टी में जाने का कोई राजनीतिक अर्थ नहीं है। इसलिए मौर्य के पास सपा में जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।

(देश मंथन, 24 जून 2016)

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