क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :
पहला सवाल : अगर किसी सरकारी कर्मचारी, अफसर या न्यायिक अधिकारी को किसी अपराध के लिए सजा मिलती है, तो वह तो अपनी नौकरी पर कभी वापस नहीं रखा जा सकता, तो फिर ऐसा ही पैमाना राजनेताओं के लिए क्यों नहीं अपनाया जाना चाहिए? सजायाफ्ता नेता पर आजीवन रोक क्यों नहीं लगनी चाहिए?
दूसरा सवाल : नेता के दागी होने और आर्थिक पिछड़ेपन के बीच कोई सम्बन्ध है क्या?
सवाल तीखा है। मौजूँ है। सही है। लेकिन जवाब कहाँ से आयेगा? बिहार के कुख्यात बाहुबली शहाबुद्दीन की जमानत पर पूरा देश बड़े गुस्से में है। होना भी चाहिए। ऐसी बेशर्मी से कानून की धज्जियाँ उड़ें तो काहे का कानून और काहे की सरकार? माफिया-राजनीति-सत्ता और तंत्र के गलीज गँठजोड़ का इससे ज्यादा शर्मनाक नमूना भला और क्या हो सकता है? और ‘सुशासन बाबू’ अब चाहे जो भी कहें या करें, यह बात मानने लायक है ही नहीं कि किसी ‘कानूनी चूक’ या किसी ढिलाई या लापरवाही की वजह से शहाबुद्दीन को जमानत मिल गयी। सच यह है कि शायद नीतीश जी को दो बातों का अन्दाजा ही नहीं था। एक यह कि इस मामले पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया होगी और दूसरी यह कि शहाबुद्दीन जेल से बाहर आते ही नीतीश जी को इस तरह मुँह चिढ़ा देगा।
ये हल्ला भी निठल्ला हो जायेगा!
बहरहाल, शहाबुद्दीन पर तो जो होना है, होगा। कुछ दिन के हल्ले-गुल्ले के बाद ये हल्ला भी निठल्ला हो जायेगा, जैसे पहले के जाने कितने हल्ले अब किसी को याद नहीं। और कोई याद दिलाये भी, तो छोड़ो यार पुरानी बातें! और कई बार तो पार्टी बदलने से हल्लों की परिभाषा भी बदल जाती है। होता है न ऐसा। तो इस बार भी होगा। राजकाज के अपने रिवाज हैं। चलते रहेंगे!
सवाल, जिसे कोई पूछना नहीं चाहता
लेकिन ऐसा क्यों होता है? तीखा सवाल यही है। जिसे न कोई पूछना चाहता है और जिसका न कोई जवाब देना चाहता है। न नेता, न जनता। इसीलिए यह सवाल आप सबसे पूछा जा रहा है। राजनीति में अपराधी क्यों आते हैं, क्यों आने दिये जाते हैं, और सारी की सारी राजनीतिक पार्टियाँ बड़े-बड़े बदनाम माफियाओं तक को टिकट क्यों देती हैं, जनता उन्हें वोट क्यों देती है, और आम तौर पर हर बार वह आसानी से चुनाव क्यों जीत जाते हैं, जेल से लड़ें तो भी। सत्तर के दशक से ये सवाल उठना शुरू हुए थे, पैंतालीस सालों में बढ़ते-बढ़ते अब ये पहाड़ हो चुके हैं, जिन्हें बस टुकुर-टुकुर ताकते रहिए और लेख लिख कर खीझ उतारते रहिए। और कोई चारा है क्या? असली सवाल यह है।
सजायाफ्ता नेता पर आजीवन रोक क्यों न लगे?
और यह सवाल अब सुप्रीम कोर्ट पहुँचा है। पूछनेवाले ने बड़ा तीखा और मौजूँ सवाल पूछा है। सवाल है कि अगर किसी सरकारी कर्मचारी, अफसर या न्यायिक अधिकारी को किसी अपराध के लिए सजा मिलती है, तो वह तो अपनी नौकरी पर कभी वापस नहीं रखा जा सकता, तो फिर ऐसा ही पैमाना राजनेताओं के लिए क्यों नहीं अपनाया जाना चाहिए? सजायाफ्ता नेता पर आजीवन रोक क्यों नहीं लगनी चाहिए?
याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि देश की संसद और विधानसभाओं में बड़े पैमाने पर ‘अपराधी नेताओं’ की घुसपैठ हो गयी है। इनमें ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं, जिन पर बलात्कार, हत्या, लूट, डकैती और अवैध उगाही तक के संगीन आरोप हैं। ऐसे सारे मामलों में मुकदमे की सुनवाई एक साल में पूरी हो और जिन्हें सजा मिले, उन पर आजीवन रोक लगे। अभी सजायाफ्ता अपराधी सिर्फ छह साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन उसके बाद वह चुनाव लड़ें, विधायक-सांसद बनें, कानून बनायें, मंत्री बनें और सरकार चलायें, सब कानूनन जायज है। नैतिकता का तकाजा जरूर है कि ऐसे लोगों से नजदीकी नहीं रखी जानी चाहिए, लेकिन नैतिकता खुद के ओढ़ने के लिए तो होती नहीं, वह तो हमेशा दूसरों को ओढ़ायी जाती है!
लेकिन तब भी बदलेगा क्या?
सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल इस सवाल पर केन्द्र सरकार और चुनाव आयोग की राय पूछी है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट अगर इस याचिका को मान कर कोई ऐतिहासिक फैसला दे भी दे, तो भी कुछ ज्यादा तो बदलेगा नहीं! क्यों? जरा अब तक के आँकड़े निकालिए। ऐसे कितने लोगों को सजा हो पायी? बाहुबली माफियाओं, रसूखदार राजनेताओं और ‘सेलिब्रिटी’ सितारों के खिलाफ मुकदमों का क्या हश्र होता है, यह किसी से छिपा है क्या? उन्हें तो किसी मामले में बमुश्किल ही सजा हो पाती है, क्योंकि गवाह या तो मुकर जाते हैं, या जाँच ढीली हो जाती है, सबूत इकट्ठा ही नहीं किये जाते, इकट्ठा कर लिये गये तो रहस्यमयी तरीकों से बदल जाते हैं, फाइलें बदल जाती हैं, सरकारी पैरवी अनमनी हो जाती है। अगर सलमान खान के खिलाफ मुम्बई पुलिस एक सड़क दुर्घटना के मामले में सबूत न जुटा पाये और वरुण गाँधी के उत्तेजक भाषण की सीडी सिरे से लापता हो जाये, सारे के सारे गवाह मुकर जायें, तो वे ‘बाइज्जत बरी’ ही होंगे न!
और अमेरिका से एक दिलचस्प रिसर्च
तो बदलेगा कौन? हम-आप ही न! लेकिन हम बदलने के लिए तैयार हैं क्या? अपने-अपने धर्म, सम्प्रदाय, जाति के लोगों के किसी पाप को अगर हम पाप मानने को तैयार नहीं, तो यह हालत कभी नहीं सुधर सकती। बात तभी बनेगी, जब अपराधी को हम सिर्फ अपराधी समझें, चाहे वह कोई भी हो। और यह समझ लीजिए कि अपराधियों को हीरो बना कर हर तरह से भुगतते हम-आप ही हैं। इस बारे में अमेरिका में कुछ समय पहले एक बड़ा ही दिलचस्प रिसर्च पेपर छपा। अमेरिका के तीन विश्वविद्यालयों के तीन शोधकर्ताओं निशीथ प्रकाश, मार्क रॉकमोर और योगेश उप्पल ने मिल कर यह जानने की कोशिश की कि क्या दागी नेताओं के चुनाव जीतने का उनके निर्वाचन क्षेत्र के विकास पर कोई असर पड़ता है।
अँधेरे और सड़क का रिश्ता!
इन शोधकर्ताओं ने आर्थिक गतिविधि को मापने के लिए दो पैमाने लिये। एक यह कि दागी नेताओं के निर्वाचन क्षेत्रों में रात में बिजली की रोशनी कितनी ज्यादा दिखी और उनके इलाके में कितनी सड़क परियोजनाएँ पूरी हो पायीं। उन्होंने 2004 से 2008 के बीच देश के 20 राज्यों के 941 विधानसभा क्षेत्रों के सैटेलाइट चित्रों के अध्ययन में पाया कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में अपराधी उम्मीदवार चुने गये, वहाँ रात में बिजली की रोशनी में बढ़ोत्तरी की वार्षिक दर 24 प्रतिशत अंक कम रही। उनका निष्कर्ष है कि कम बिजली का इस्तेमाल मतलब आर्थिक गतिविधियों में कमी यानी जीडीपी में 2.6% अंकों की कमी यानी आर्थिक पिछड़ापन!
इसी तरह उन्होंने देखा कि ऐसे जिन निर्वाचन क्षेत्रों में बिजली की रोशनी में बढ़ोत्तरी की दर धीमी रही, उन्हीं इलाकों में सड़क परियोजनाओं का काम भी ज्यादा लटका रहा। शोधकर्ताओं का कहना है कि रात में बिजली की रोशनी की कमी के लिए तो यह कहा जा सकता है कि हो सकता है कि इन इलाकों में बिजली ढंग से आती ही न हो। लेकिन सड़क परियोजनाओं में बिजली का तो कोई काम है ही नहीं। उन्हें तो पूरा होना चाहिए था। शोधकर्ताओं का कहना है कि सड़क परियोजनाओं को उन्होंने इस आधार पर पैमाना बनाया कि इनमें भ्रष्टाचार और नेता-ठेकेदार-अफसर गँठजोड़ की शिकायतें आम हैं।
जितने बड़े आरोप, उतना पिछड़ापन!
एक और दिलचस्प बात। शोधकर्ताओं ने देखा कि जिन नेताओं पर जितने अधिक गम्भीर प्रकृति के आपराधिक आरोप हैं या आर्थिक घोटालों के गम्भीर आरोप हैं और गिनती में ये आरोप जितने ज्यादा हैं, उसी अनुपात में उनके इलाकों में आर्थिक गतिविधियों में उतनी ही ज्यादा कमी देखी गयी। लेकिन जिन नेताओं पर मामूली किस्म के आरोप हैं, उनके इलाकों में यह गिरावट उतनी ही कम दर्ज की गयी। मतलब साफ है। नेता पर जितने संगीन आरोप, आर्थिक पिछड़ापन उतना ही ज्यादा!
लम्बा राज कर सकता है बंटाधार!
और हाँ, एक और मजेदार बात तो मैं आपको बताना ही भूल गया! इन शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि आर्थिक गतिविधियों में गिरावट किसी दागी नेता के चुने जाने के साथ ही फौरन नहीं शुरू हुई। बल्कि उसकी विधायकी के एक से लेकर दो साल बाद ही गिरावट का यह सिलसिला शुरू हुआ। यानी दागी नेता को अपना ‘नेटवर्क’ जमाने, पुलिस-अफसर-माफिया गँठजोड़ की गोटियाँ बिठाने में जो समय लगा, उसके बाद ही आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ी। मतलब साफ है न कि दागी नेता जितने ज्यादा दिनों तक इलाके पर राज करेगा, उतना ही ज्यादा बंटाधार होगा! तो अब चुन लीजिए कि आपको क्या चाहिए!
(देश मंथन, 17 सितंबर 2016)