रत्नाकर त्रिपाठी :
बनारस की सड़क पर इतना बड़ा जमावड़ा देखे मुद्दत हो गयी थी। अद्भुत दृश्य था, अगर ये मेला होता, तो इसे बनारस की नाग-नथैया और नाटी-इमली के भरत-मिलाप की तरह लक्खा मेले का दर्जा मिल जाता। माँ गंगा की गोद में मूर्ति विसर्जन की माँग लेकर आबाल-वृद्ध सड़क पर थे। भीड़ की खूबसूरती ये थी कि 80 % लोग एक-दूसरे को जानते नहीं थे, लेकिन ‘एक मांग-एक धुन’, उन्हें आपस में माला के मोतियों की तरह पिरोये हुई थी।
मैंने सैकड़ों की संख्या में उन बनारसियों को देखा, जिन्हें उनके पोते या नाती हाथ पकड़ कर जुलूस में शिरकत करा रहे थे। खुद से चल पाने में अक्षम इन अनुभवियों के आँखों की चमक और जज्बा देखते बनता था। ऐसा लग रहा था की सारा बनारस माँ गंगा से ये मनुहार करने जा रहा हो कि, “माई, कुछ करा, तोरे इहाँ अइले बगैर कैसे रिवाज पूरा होइ”; हर हर महादेव का उद्घोष, डमरू-वादन और नगाड़े की थाप फिजां में एक मस्ती और सुखद उन्माद घोल रही थी। माहौल कुछ ऐसा कि कल तक इसे कांग्रेसी जमावड़ा कह कर उपहास करने वाले भाजपा प्रतिनिधि भी मजबूरन शिरकत करने पहुँचे थे।
मैं दावे से कह सकता हूँ कि आज सच्चे बनारसी सड़क पर थे और उन्हें मूर्ति विसर्जन की आजादी के सिवा किसी दल या व्यक्ति से मतलब नहीं था। वर्षों बाद मुझे एक अनजाने चेहरे की हैसियत से किसी भीड़ का हिस्सा बनने में गर्व हुआ; वर्षों बाद मुझे लगा कि मैं उस लड़ाई का हिस्सा हूँ, जो सभी वर्जनाओं से ऊपर उठ कर न्याय के लिए लड़ी जा रही है।
फिर अचानक पथराव और आगजनी का तांडव शुरू हो गया। मैं और राघवेन्द्र मिश्रा संभवतः वहाँ सबसे पहले पहुँचने वालों में थे; साफ दिख रहा था कि ये हिंसा एक षड्यंत्र के तहत की जा रही थी। मुँह पर रुमाल और कपड़ा बांधे युवक जिस तरह हिंसा कर रहे थे, वो बताता था कि उन्हें दिये हुए कार्य को खत्म कर वहाँ से भाग जाने की जल्दी है। उनके पास गाड़ियों को फूंकने का पूरा इंतजाम पहले से था। स्पष्ट था कि वो ताकतें कामयाब हो रहीं थीं, जिनका रवैया इस मुद्दे पर ढुलमुल था और अब वे अपने वोट-बैंक को खिसकता देख रहीं थीं।
पर मैं उन बनारसियों की दाद देना चाहूँगा, जिन्होंने ऐसी ताकतों के मंसूबे भाँप लिए और लड़ाई को जंगमबाड़ी से आगे मदनपुरा और गिरजाघर से आगे, नयी सड़क बढ़ने से पूरी ताकत झोंक कर रोका, नहीं तो ये पुलिस-उपद्रवियों की आँखमिचौली, कब साम्प्रदायिक हिंसा में बदल जाती,पता ही नहीं चलता।
ईश्वर ने एक अच्छा काम मुझसे भी करवाया; कुछ लोग एक सिपाही को गोदौलिया पिकेट से खींच कर पत्थरों और लाठियों से मारने की कोशिश कर रहे थे; वो मौत के भय से चिल्ला-चिल्ला कर रो रहा था और छोड़ देने की गुहार लगा रहा था। राघवेन्द्र मिश्रा ने मुझे आवाज देकर उसकी जान बचाने को कहा, और फिर हम दोनों ने उसे उस उन्मादी भीड़ के चंगुल से बचा कर भगा दिया, नहीं तो कैसा अनर्थ होता, ये कल्पना से परे है।
हाँ, एक बात समझ नहीं आयी कि ये कैसी प्रतिकार यात्रा थी, जिसमें सेना को आगे छोड़कर, विधायक, पूर्व सांसद, राजनेता और प्रमुख संतों जैसे तमाम सेनापति सेना के पीछे चल रहे थे। आंदोलन मैंने भी किये हैं और मैं आन्दोलनों का हिस्सा भी रहा हूँ; मैं ये जानता हूँ कि अगर सेनापतिगण आगे रहते, तो ये घटना कदापि ना होती; मैं ये भी जानता हूँ कि, “भीड़ के पीछे तो बारात का दूल्हा चलता है, सेनापति तो युद्ध में सेना के आगे चलता हैं”
“अब यक्ष प्रश्न यह है कि पीछे-पीछे चल रहे इतने सारे सूरमा, जुल्म और अन्याय का प्रतिकार करने जा रहे थे कि शिव-बारात ले कर जा रहे थे?”
‘कोई सेनापति मिले, तो पूछियेगा जरूर’
(देश मंथन, 07 अक्तूबर 2015)