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मनसुख मांडविया की अंग्रेजी का उपहास करती गुलाम मानसिकता
युवा ही लाएंगे हिंदी समय!
संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :
अब लडाई अंग्रेजी को हटाने की नहीं हिंदी को बचाने की है
सरकारों के भरोसे हिंदी का विकास और विस्तार सोचने वालों को अब मान लेना चाहिए कि राजनीति और सत्ता से हिंदी का भला नहीं हो सकता। हिंदी एक ऐसी सूली पर चढ़ा दी गयी है, जहां उसे रहना तो अंग्रेजी की अनुगामी ही है। आत्मदैन्य से घिरा हिंदी समाज खुद ही भाषा की दुर्गति के लिए जिम्मेदार है।
किसी और में खुद को देख पाना ही प्रेम है
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आप में से बहुत से लोग इंग्लैंड गये होंगे। मैं भी गया हूँ।
पर आज कहानी न तो आपकी लिखी जा रही है, न मेरी। आज कहानी लिख रहा हूँ उस नौजवान की, जिसे अंग्रेजी नहीं आती थी पर उसे इंग्लैंड जाना था। उसका पासपोर्ट बन चुका था, वीजा लग चुका था। अब बस उड़ना भर बाकी था।
आओ, हिन्दी की भी सोच लें भाई
संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :
सितंबर का महीना आ रहा है। हिन्दी की धूम मचेगी। सब अचानक हिन्दी की सोचने लगेंगें। सरकारी विभागों में हिन्दी पखवाड़े और हिन्दी सप्ताह की चर्चा रहेगी। सब हिन्दीमय और हिन्दीपन से भरा हुआ। इतना हिन्दी प्रेम देख कर आँखें भर आएँगी। वाह हिन्दी और हम हिन्दी वाले। लेकिन सितंबर बीतेगा और फिर वही चाल जहाँ हिन्दी के बैनर हटेंगें और अंग्रेजी का फिर बोलबाला होगा। इस बीच भोपाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन भी होना है। यहाँ भी दुनिया भर से हिन्दी प्रेमी जुटेगें और हिन्दी के उत्थान-विकास की बातें होंगी। ऐसे में यह जरूरी है कि हम हिन्दी की विकास बाधा पर भी बात करें। सोचें कि आखिर हिन्दी की विकास बाधाएँ क्या हैं?
अदालतों से अंग्रेजी हटे
डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :
भारत को आजाद हुए 67 साल हो गये लेकिन हमारी न्याय-व्यवस्था अभी भी गुलामी की शिकार है। एक वकील ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है और उसमें माँग की है कि सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों में अब राजभाषा हिंदी का प्रयोग होना चाहिए।