Sunday, June 8, 2025
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रुठते परिंदे – 2002 में आखिरी बार आया था साइबेरियन क्रेन

विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार : 

विश्व पटल पर लंबे समय तक केवलादेव नेशनल पार्क की पहचान साइबेरियन क्रेन के कारण रही है। यहाँ हर साल साइबेरियन क्रेनों का जोड़ा सर्दियों से बचने के लिए और अपनी नई पीढ़ी को जन्म देने के लिए आया करता था। पर बदलते पर्यावरण के कारण एक वक्त आया जब साइबेरियन क्रेनों ने अपनी राह बदल ली। इस कदर रूठे कि दुबारा यहाँ का रुख नहीं किया।

‪‎यादें‬ – 13

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

अब यहीं से शुरू हो सकती है वो कहानी, जिसकी भूमिका बाँधते-बाँधते मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ। 

‪‎यादें‬ – 11

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

एक राजा था। दुष्ट और महामूर्ख था। एकबार एक साधु ने उसे दिव्य वस्त्र दिया और कहा कि ये ऐसा वस्त्र है, जो सिर्फ उसी व्यक्ति को नजर आयेगा, जिसकी आत्मा में छल-कपट न हो, जो अच्छा व्यक्ति हो। ऐसा कह कर उसने राजा के सारे कपड़े उतरवा दिये और उसे दिव्य वस्त्र पहना दिया।

‪‎यादें‬ -9

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

कल की मेरी पोस्ट पर अमित ने कमेंट के साथ एक तस्वीर चस्पा की, जिसमें श्रीमती गाँधी जमीन पर बैठी हैं और सामने पुलिस वाले खड़े हैं। आप में से बहुत से लोगों को यह तस्वीर याद होगी। बहुत से लोगों को समझ में नहीं आया होगा कि आखिर ये तस्वीर कब की है।

‪‎यादें‬

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आदमी जिन्दगी का सफर तय करता है। मोटर-गाड़ियाँ सिर्फ सड़कों का सफर तय करती हैं। समय के साथ जिन्दगी के सफर में आदमी बहुत कुछ सीखता है और नया होता जाता है, जबकि सड़क के सफर में मोटर-कार घिसती हैं और पुरानी पड़ती जाती है। 

इमरजंसी – एक याद (4)

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार एक अमेरिकी, जो घनघोर नास्तिक था, भारत घूमने आया और यहाँ से वापस जाते हुए वो अपने साथ भगवान की एक मूर्ति लेकर गया। लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ कि ये नास्तिक अमेरिकी भला भारत से भगवान की मूर्ति क्यों खरीद लाया है। लोगों ने उससे पूछा कि भाई, इस मूर्ति में ऐसी क्या बात है। 

इमरजंसी – एक याद (2)

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

शायद पिताजी को इस बात का आभास हो चुका था कि दिल्ली में कुछ हो रहा है। वैसे तो पिताजी की आदत में शुमार था सुबह और शाम को रेडियो पर खबरें सुनना। सुबह आठ बजे रेडियो ऑन था।

मर्द

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

जून का महीना मेरी यादों का महीना होता है। आज जिन यादों से मैं गुजरने की सोच रहा हूँ, उस पर तो पूरी किताब भी लिख सकता हूँ। हालाँकि यादों की जिन कड़ियों से मैं गुजरने की अभी सोच रहा हूँ, वो बेशक एक दस्तावेज बन सकता है पर उसे ऐतिहासिक दर्जा कभी नहीं मिल सकता, क्योंकि चौथी-पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा क्या इतिहास लिख पायेगा, और कोई क्यों उसपर यकीन कर पायेगा। 

दिल की सुनो, बदलाव भी जरूरी

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

प्रिय संजय सिन्हा,

पिछले तीन दिनों से तुम जयप्रकाश नरायण, इमरजंसी, इन्दिरा गाँधी, अच्छे दिन वगैरह-वगैरह लिख रहे हो उसका फल तुमने भोग लिया है। कहाँ तुम एक-एक पोस्ट पर हजार-हजार लाइक बटोरा करते थे, और जबसे तुमने जरा राजनीतिक यादों की झलकियों को दिखाने की कोशिश की, तुम्हें तुम्हारी औकात पता चल गयी।

सरकार के वादे और टूटती उम्मीदें

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

भोपाल में मेरे इतिहास की प्रोफेसर मिसेज मित्तल की आँखें ये पढ़ाते हुए चौड़ी हो जाती थीं कि फासिज्म ‘प्रचार’ पर बहुत जोर देता है।

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