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दीक्षा
प्रेमचंद :
जब मैं स्कूल में पढ़ता था, गेंद खेलता था और अध्यापक महोदयों की घुड़कियाँ खाता था, अर्थात् मेरी किशोरावस्था थी, न ज्ञान का उदय हुआ था और न बुद्धि का विकास, उस समय मैं टेंपरेंस एसोसिएशन (नशानिवारणी सभा) का उत्साही सदस्य था। नित्य उसके जलसों में शरीक होता, उसके लिए चन्दा वसूल करता। इतना ही नहीं, व्रतधारी भी था और इस व्रत के पालन का अटल संकल्प कर चुका था। प्रधान महोदय ने मेरे दीक्षा लेते समय जब पूछा- 'तुम्हें विश्वास है कि जीवन-पर्यंत इस व्रत पर अटल रहोगे?' तो मैंने निश्शंक भाव से उत्तर दिया- 'हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।'
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