Tuesday, April 8, 2025
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बेटियों से उजाला होता है

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

अपने एक परिचित का हालचाल पूछने के लिए मुझे कल दिल्ली के मैक्स अस्पताल में जाना पड़ा। वहाँ ऑपरेशन थिएटर के पास मैं अपने परिचित के बाहर आने का इंतजार कर रहा था। एक-एक कर कई मरीज स्ट्रेचर पर बाहर लाये जा रहे थे। मैं सभी मरीजों और उनके परिजनों को गौर से देखता। जैसे ही कोई मरीजा बाहर आता, उनके परिजनों के चेहरे खिल उठते। डॉक्टर बाहर आकर पूछता कि क्या आप फलाँ के साथ हैं?

मुफ्त का यश

प्रेमचंद :

उन दिनों संयोग से हाकिम-जिला एक रसिक सज्जन थे। इतिहास और पुराने सिक्कों की खोज में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली थी। ईश्वर जाने दफ्तर के सूखे कामों से उन्हें ऐतिहासिक छान-बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। वहाँ तो जब किसी अफसर से पूछिए, तो वह यही कहता है 'मारे काम के मरा जाता हूँ, सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती।' शायद शिकार और सैर भी उनके काम में शामिल है ? उन सज्जन की कीर्तियाँ मैंने देखी थीं और मन में उनका आदर करता था; लेकिन उनकी अफसरी किसी प्रकार की घनिष्ठता में बाधक थी।

अपराध बोध

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मेरे बेटे को रास्ते में पाँच सौ रुपये का एक नोट गिरा हुआ मिला। उसने उस नोट को उठा कर जेब में रख लिया। लेकिन कुछ दूर जाकर वो वापस लौटा और उसने उस नोट को जेब से निकाल कर वहीं फेंक दिया।

पर्मानेंट इलाज

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मुझे खुद ही याद नहीं कि आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ, उसे पहले आपको सुना चुका हूँ या नहीं। 

चोरी का धन मोरी (नाली) में जाता है

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

सुबह से उठ कर फोन पर लगा था। इसी चक्कर में आज जो लिखने का मन था, वो लिख नहीं पाया और जो लिख रहा हूँ उसे लिखने का मन नहीं। पर मैं भी क्या करूँ, पहले ही बता चुका हूँ कि रोज-रोज फेसबुक पर लिखना सिर्फ मेरे मन पर नहीं निर्भर करता। ये कोई और है जो मुझसे लिखवाता है, मैं निमित मात्र बन कर टाइप करता चला जाता हूँ।

हर कर्म का प्रतिफल मिलता है

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

मैंने कल लिखा था कि अगर मुझे किसी ने याद दिलाने की कोशिश की तो मैं हिटलर की उस कहानी का जिक्र जरूर करूंगा, जिसमें एक फौजी अफसर का बेटा कैसे अपने पिता के बनाए नर्क में फंस जाता है और फिल्म खत्म होने के कई महीनों बाद तक मेरी नाक में आदमी के जलने की दुर्गंध छोड़ जाता है।

दुश्मन को अपना बनायें

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

ये कहानी मैंने नहीं लिखी। कहीं सुनी थी, लेकिन इसमें संदेश इतना अच्छा छिपा था कि आपसे साझा किए बिना नहीं रह पाऊंगा।

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