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भाई की आँखों में चमक और बहन की आँखों में प्यार
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
माँ तीन दिनों के लिए पिताजी के साथ बाहर गई थी। मैं बिना माँ के एक दिन नहीं रह सकता था। माँ ने जाते हुए मुझसे दो साल बड़ी बहन को निर्देश दिया था कि संजू का ख्याल रखना। बहन चुपचाप खड़ी थी।
यमराज के चंपू से लोहा लें
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कल मैंने नोएडा के एक मॉल में खाना खाते हुए उत्तराखंड के एक आईएएस अधिकारी की हृदयघात से मौत की कहानी लिखी थी। मैंने आपसे अनुरोध किया था कि आप मेरी इस कहानी को जितने लोगों तक पहुँचा सकें, पहुँचा दें।
छिपाए गए सच में आदमी टूट कर गिरता है
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैं अपनी माँ से पूछा करता था कि माँ, आपकी शादी पिताजी से कैसे हुई?
माँ अपनी शादी को ईश्वरीय विधान बताती। कहती कि भगवानजी आये थे और उन्होंने सब तय कर दिया। बहुत से बच्चों की तरह मेरे मन में भी कौतूहल जगता कि माँ की शादी वाली तस्वीरों में मैं कहीं क्यों नहीं हूँ? माना कि मैं छोटा बच्चा रहा होऊँगा और मुमकिन है कि सो रहा होऊँगा, पर एक दो तस्वीरों में तो मुझे होना ही चाहिए था।
कोट मुक्ति मुद्रा
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
यह भी तारीखों का ही एक खेल है कि बहुत साल पहले मैं अपने छोटे भाई के साथ 19 अप्रैल की सुबह बैठा हुआ था और अगले दिन होने वाली अपनी शादी की चर्चा कर रहा था। मेरी शादी में मेरा छोटा भाई ही माँ बना बैठा था, पिता बना बैठा था, सखा बना बैठा था।
स्पष्ट खुलासा
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैं चाहूँ तो फोन करके भी जबलपुर के Rajeev Chaturvedi को धन्यवाद कह सकता हूँ। लेकिन मैं पोस्ट के जरिए धन्यवाद कहने जा रहा हूँ, क्योंकि उन्होंने इस बार मुझे एक ऐसी किताब भेंट की जिसने मेरी समझ के आकार को बदल दिया है। मैंने उनसे कई बार इस बात की चर्चा की थी कि अपने छोटे भाई के निधन से मैं बहुत व्यथित हूँ, और भीतर ही भीतर बहुत अवसाद से गुजरता हूँ।
रिश्तों की तलाश
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज आपको बहुत से सवालों के जवाब मिल जाएँगे।
विकल्प न हो तो, जो है उसमें खुश रहिये
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे फुफेरे भाई के पास एक जोड़ी हवाई चप्पल थी। चप्पल क्या, समझिए ऊपर रंग उतरा हुआ फीता था, नीचे घिसी हुई ऐड़ी थी। ऐड़ी इतनी घिसी हुई कि पाँव फर्श छूता था। लेकिन थी चप्पल।
स्वामिनी
प्रेमचंद :
शिवदास ने भंडारे की कुंजी अपनी बहू रामप्यारी के सामने फेंककर अपनी बूढ़ी आँखों में आँसू भरकर कहा- बहू, आज से गिरस्ती की देखभाल तुम्हारे ऊपर है। मेरा सुख भगवान से नहीं देखा गया, नहीं तो क्या जवान बेटे को यों छीन लेते! उसका काम करने वाला तो कोई चाहिए। एक हल तोड़ दूँ, तो गुजारा न होगा। मेरे ही कुकरम से भगवान का यह कोप आया है, और मैं ही अपने माथे पर उसे लूँगा। बिरजू का हल अब मैं ही संभालूँगा। अब घर की देख-रेख करने वाला, धरने-उठाने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान की जो इच्छा थी, वह हुआ; और जो इच्छा होगी वह होगा। हमारा-तुम्हारा क्या बस है? मेरे जीते-जी तुम्हें कोई टेढ़ी आँख से देख भी न सकेगा। तुम किसी बात का सोच मत किया करो। बिरजू गया, तो अभी बैठा ही हुआ हूँ।
मृत्यु अटल है, जीवन सकल है
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज आपको एक न में ले चलता हूँ।
अपने जीवन में मुझे एक बार ओशो से मिलने का मौका मिला।