Friday, November 22, 2024
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रिश्तों के कपड़े

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

“माँ, मैं इस बार लाल फूलों वाली कमीज नहीं पहनूँगा।”

रिश्तों का पाठ

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

बचपन में मुझे चिट्ठियों को जमा करने का बहुत शौक था। हालाँकि इस शौक की शुरुआत डाक टिकट जमा करने से हुई थी। लेकिन जल्द ही मुझे लगने लगा कि मुझे लिफाफा और उसके भीतर के पत्र को भी सहेज कर रखना चाहिए। इसी क्रम में मुझे माँ की आलमारी में रखी उनके पिता की लिखी चिट्ठी मिल गयी थी। मैंने माँ से पूछ कर वो चिट्ठी अपने पास रख ली थी। बहुत छोटा था, तब तो चिट्ठी को पढ़ कर भी उसका अर्थ नहीं पढ़ पाया था, लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया बात मेरी समझ में आती चली गयी। 

गृह-नीति

प्रेमचंद :

जब माँ, बेटे से बहू की शिकायतों का दफ्तर खोल देती है और यह सिलसिला किसी तरह खत्म होते नजर नहीं आता, तो बेटा उकता जाता है और दिन-भर की थकान के कारण कुछ झुँझलाकर माँ से कहता है, 

समंदर की सैर

‪‎संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

बहुत से लोग कभी बड़े नहीं होते। मैं भी उनमें से एक हूँ। 

बेटी ‘उजाला’ और बहू ‘बेरहम’

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

माँ ने बताया था कि जिस दिन मेरा जन्म हुआ था, उस दिन खूब बारिश हो रही थी। सुबह के पांच बजे घर में थाली पर हँसुए की झंकार गूंजी थी। मैं याद करने पर आऊँ तो सब कुछ याद आ सकता है। लेकिन मैं आज अपने जन्मदिन को याद नहीं करना चाहता।

इमरजंसी – एक याद (3)

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मैंने माँ को बहुत कम नाराज होते देखा था। उसकी आवाज तो कभी ऊँची होती ही नहीं थी। लेकिन उस दिन माँ बहुत तिलमिलाई हुयी थी। पता नहीं कहाँ से वो कुछ सुन आयी थी।

प्यार को प्यार ही रहने दो

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

“माँ, उठो। माँ, सुनो मैं क्या पूछ रहा हूँ। दो दिन पहले मैंने पोस्ट में लिख दिया था कि पांचाल के नृपति द्रुपद ने कृष्ण को अपनी बेटी द्रौपदी से विवाह के लिए आमंत्रित किया था, तो कुछ लोगों ने नाराजगी जताई और कहा कि मैं धर्म और पौराणिक कहानियों के विषय में कुछ नहीं जानता, केवल काल्पनिक कहानी लिख रहा हूँ। 

माँ

प्रेमचंद :   

आज बन्दी छूटकर घर आ रहा है। करुणा ने एक दिन पहले ही घर लीप-पोत रखा था। इन तीन वर्षों में उसने कठिन तपस्या करके जो दस-पाँच रूपये जमा कर रखे थे, वह सब पति के सत्कार और स्वागत की तैयारियों में खर्च कर दिये।

यही है जिन्दगी, यही है रिश्ता

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

करीब 30 साल पहले मैं अपनी जन्मभूमि से दूर जा रहा था तब मेरी खुली आँखों में हजारों यादें सिमटी थीं।

मुश्किल में मित्र की पहचान होती है

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

जब माँ मुझे और इस संसार को छोड़ कर जा रही थी तब मैं नहीं सोच पाया था कि माँ के चले जाने का मतलब क्या होता है। मेरी नजर में माँ कैंसर की मरीज थी और भयंकर पीड़ा से गुजर रही थी।

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